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आधुनिक देश के अंदर प्राचीन राष्ट्र का निर्माण !

श्रवण गर्ग
हमें समझाया जा रहा है कि आज़ादी हासिल करने के बाद से इंडिया या भारत के नाम से जिस भौगोलिक इकाई को राष्ट्र मानकर गर्व किया जा रहा था वह हक़ीक़त में ‘राष्ट्र’ था ही नहीं. वह तो तत्कालीन राजनीतिक व्यवस्थाओं के अंतर्गत संचालित होने वाला हाड़-मांसके लोगों का एक बड़ा समूह था.

राष्ट्र-निर्माण तो अब हो रहा है. उसका विधिवत नामकरण कर उसे संस्कारित भी किया जा रहा है.

स्वाभाविक है कि ‘राष्ट्र’ के निर्माण की प्रक्रिया में एक सौ तीस करोड़ नागरिक उस संक्रमणकाल की पीड़ा से गुज़र रहे हैं, जिसे अंग्रेज़ी में transition period कहा जाता है. संक्रमणकाल शब्द का उपयोग साम्यवादी संदर्भों में ज़्यादा होता है. व्यवस्था में सर्वहाराकी तानाशाही स्थापित होने के संदर्भ में.

मतलब यह कि राज्य की व्यवस्था पूँजीवादी हो अथवा सर्वहारावादी, तानाशाही के ज़रिए ही संचालित होगी.

जिस स्वरूप के राष्ट्र-निर्माण की पीड़ा या प्रक्रिया से हम गुज़र रहे हैं, उसमें तानाशाही सर्वहारा की नहीं बल्कि धर्म की स्थापित होने वाली है. इस्लामी राष्ट्रों में उपस्थित एक धर्म विशेष के साम्राज्य या धार्मिक तानाशाही के समानांतर बहुसंख्यकों द्वारा पालन किए जाने वाले धर्म की तानाशाही.

धर्म के आधार पर राष्ट्र के रूप में इतनी विशाल भौगोलिक इकाई के स्थापित होने की कल्पना मात्र से वे तमाम लोग उत्तेजित हैं जो धार्मिक रूप से बहुसंख्य हैं. जो अल्पसंख्यक हैं, वे किसी अनहोनी की आशंका से डरे हुए हैं. धार्मिक नेताओं द्वारा आह्वान किया जा रहा है कि नए राष्ट्र का उदय कराने के लिए शस्त्रों का उपयोग करना पड़ सकता है और उसके लिए नागरिकों को तैयार रहना होगा. यानी धर्म की सत्ता हथियारों की पूजा-अर्चना के बिना स्थापित नहीं हो सकेगी.

बहुसंख्यकों की वर्तमान में दुरवस्था का कारण ही यह बताया जा रहा है, बाहरी हमलावरों द्वारा अतीत में उनसे उनके हथियार छीन लिए गए थे. वे हथियार उन्हें फिर से प्राप्त करना होंगे !

हम ठीक से देख नहीं पा रहे हैं कि करोड़ों की आबादी वाले महानगरों से लगाकर गाँव-क़स्बों तक हथियारों की बाढ़ फूट पड़ रही है. नागरिक अब हथियारों को देखकर या हाथों में पकड़ते हुए ख़ौफ़ नहीं खाते उलटे रोमांचित होने लगते हैं. नागरिक भी पुलिस और सैनिकों जैसा युद्ध-कौशल प्राप्त करना चाह रहे हैं.

सरकार भी हथियार ख़रीद रही है और उसके नागरिक भी. सरकार दूसरे देशों को अनाज और अन्य ज़रूरी सामान बेच रही है और तीसरे मुल्कों से लड़ाकू विमान और युद्ध का साजों-सामान ख़रीद रही है. एक बड़ी संख्या में नागरिकों को वह अनाज दे रही है पर मुफ़्त में.

नागरिकों से यह नहीं पूछा जा रहा है कि जो धार्मिक सत्ताएँ उनसे हथियार ख़रीदने का कह रहीं हैं, वे अनाज ख़रीदकर खाने के लिए क्यों नहीं बोल रहीं हैं!! वे अगर ऐसा करेंगी तो नागरिक अनाज ख़रीदने की क्षमता प्राप्त करने के लिए रोज़गार की माँग करने लगेंगे.

हम इस वक्त एक नए क़िस्म के साम्राज्यवाद से मुख़ातिब हैं. इस साम्राज्यवाद में दूसरे मुल्कों पर जीत नहीं हासिल करना पड़ती. कहा जा रहा है कि पहले देश के अंदर ही साम्राज्य का विस्तार करना है. उन बस्तियों, लोगों और धर्मों पर अपना क़ब्ज़ा जमाना है, जो अभी भी हमारे अधिकार क्षेत्र से बाहर हैं, हमारे धर्म का हुक्म मानने से इनकार कर रहे हैं. अधिकार क्षेत्र का मतलब बहुसंख्यकों की किताबें, इतिहास, पताकाएँ और उनके बनाए क़ानून हैं.

सरकार जनता को बताना नहीं चाहती कि इतने हथियारों की ख़रीद वह किन मुल्कों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल के लिए कर रही है. समूची जनता ने अभी हथियारों में धन लगाना शुरू नहीं किया है पर उसे जानकारी है कि उनका उपयोग किसके ख़िलाफ़ किया जाना उससे अपेक्षित है.

वे धार्मिक सत्ताएँ जो इस ‘देश’ को ‘राष्ट्र’ बनना चाहतीं हैं, इस बात से खुश नहीं हैं कि लोग अपनी रक्षा के लिए शस्त्र नहीं ख़रीद रहे हैं. जब ख़रीदेंगे ही नहीं तो उन्हें धारण कैसे करेंगे? प्रजातंत्र में सरकारें सिर्फ़ अनाज ही मुफ़्त में बाँट सकती है, हथियार नहीं.

नागरिकों के बीच कुछ समूह इस तरह का प्रचार कर रहे हैं कि देश में हिंसा और नफ़रत का माहौल बनाया जा रहा है जिससे कि उसकी एकता और अखंडता को ख़तरा उत्पन्न हो सकता है. अभी यह मानकर नहीं चला जा सकता कि जो कुछ भी चल रहा है या चलाया जा रहा है उसे नागरिकों ने भी अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी है.

काफ़ी लोगों का ध्यान इस तथ्य की तरफ़ गया है और कई का नहीं भी गया है कि हाल के महीनों में शासक और उनके कारिंदे अंतर्राष्ट्रीय जगत में काफ़ी आक्रामकता से पेश आने लगे हैं. दूसरे मुल्कों के साथ रिश्तों में उनकी बातचीत का स्वर बदल गया है.

अपनी सर्वोच्चता, प्रभुता और क्षेत्रीय श्रेष्ठता को लेकर एक नए क़िस्म का अहंकार उनकी भाव-भंगिमा में व्यक्त होने लगा है. दुनिया के किसी एक कोने में चल रहे सिर्फ़ एक युद्ध ने ही शासकों की महत्ता को इतना बदल दिया है.

क्या ही विडम्बना है कि भारत दुनिया के मुल्कों के बीच तो एक बड़ी आर्थिक शक्ति बनकर उभर रहा है, अरबपतियों की संख्या बढ़ रही है पर आम आदमी लगातार गरीब हो रहा है. कहा जाता है कि केवल नौ अरबपतियों के पास पचास प्रतिशत लोगों से ज़्यादा की सम्पत्ति है.

हम एक ऐसी स्थिति की तरफ़ अग्रसर होते दिख रहे हैं, जिसमें एक सौ तीस करोड़ के मुल्क में उत्पादक कामों के लिए कुल आबादी के एक चौथाई लोगों की ही अंततः ज़रूरत बचेगी.

कहा जाता है कि नब्बे करोड़ ज़रूरतमंद लोगों में से पैंतालीस करोड़ ने रोज़गार की तलाश ही बंद कर दी है ! पर गरीब और बेरोज़गार लोग भूखे नहीं सोएँगे. सरकार सभी के लिए मुफ़्त या रियायती अनाज का इंतज़ाम करेगी. उसकी इस उपलब्धि को विदेशों में भी गर्व के साथ प्रस्तुत किया जाएगा. किया जा भी रहा है.

एक खबर के मुताबिक़,भारतीय प्रबंध संस्थान (आइ आइ एम),कलकत्ता के दीक्षा समारोह में बाम्बे स्टॉक एक्सचेंज के प्रमुख आशीष कुमार चौहान ने माँग की कि अस्सी करोड़ लोगों को मुफ़्त भोजन देने के लिए प्रधानमंत्री को नोबेल पुरस्कार दिया जाना चाहिए.

पिछले दिनों अपनी डेनमार्क यात्रा के दौरान पीएम ने वहाँ रह रहे भारतीय मूल के नागरिकों से दो महत्वपूर्ण जानकरियाँ शेयर कीं: पहली जानकारी में राजधानी कोपेनहेगन में रह रहे कोई हज़ार भारतीयों से उन्होंने कहा कि समावेशिता और सांस्कृतिक वैविध्य भारतीय समुदाय की ताक़त है जो दुनियाभर के भारतीयों को एक करती है.

दूसरी बात पीएम ने यह कही कि हरेक व्यक्ति ऐसे पाँच ग़ैर-भारतीय विदेशियों को, जिन्हें वह जानता है, भारत यात्रा के लिए प्रेरित करे और ये लोग कहेंगे ‘चलो इंडिया’. ‘यह काम आप सभी राष्ट्र्दूतों को करना है’, पीएम ने डेनमार्क में भारतीयों से कहा.

कुछ इसी तरह की भावनाएँ प्रधानमंत्री ने अपनी हाल की जापान यात्रा के दौरान भी भारतीय समुदाय के लोगों से बातचीत में व्यक्त कीं.

प्रधानमंत्री की कही गई दोनों बातें अद्भुत हैं.एक अनुमान के मुताबिक़ दुनिया के विभिन्न मुल्कों में इस समय कोई तीन-सवा तीन करोड़ एनआरआइ (नॉन रेज़िडेंट इंडियंस) और ओसीआई (ओवरसीज सिटीजंस ऑफ इंडिया) रह रहे हैं. इनके अतिरिक्त हरेक साल कोई पच्चीस लाख भारतीय विदेशों के लिए रवाना हो रहे हैं.

इतनी बड़ी संख्या में से अगर पच्चीस प्रतिशत भारतीय मूल के नागरिक भी पाँच-पाँच ग़ैर-भारतीय विदेशियों को ‘चलो भारत’ के लिए प्रेरित कर देंगे तो करोड़ों विदेशी प्रत्यक्ष रूप से भारत के समावेशी सांस्कृतिक वैविध्य से रूबरू हो सकेंगे.

विदेशी नागरिक यह भी देख सकेंगे कि भारत को लेकर उसके जिस अतीत, इतिहास, दर्शन और राष्ट्र-नायकों की उन्हें अब तक जानकारी दी गई थी, वह कितनी त्रुटिपूर्ण थी. ये नागरिक लोगों से बातचीत करेंगे और अपनी आँखों से देख सकेंगे कि एक आधुनिक देश में किस तरह एक प्राचीन भारत का निर्माण हो रहा है और दूसरी ओर, प्राचीन शहरों के भीतर कितनी तेज़ी से ‘स्मार्ट सिटीज’ बसाई जा रहीं हैं.

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