क्या है नेट निरपेक्षता?
नई दिल्ली | समाचार डेस्क: इंटरनेट ने दुनिया में क्रांतिकारी परिवर्तन का सूत्रपात किया है. जिस तरह से मानव सभ्यता को आग जलाने के ज्ञान ने, चक्के के आविष्कार ने तथा भाप इंजन के अविष्कार ने तीव्र गति प्रदान की थी उसी तरह से इंटरनेट ने मानव सभ्यता का स्वरूप ही बदल दिया है. इससे संचार के माध्यम सस्ते तथा सर्वसुलभ हो गये हैं. ऐन तकनीकी विकास के इस उच्च स्तर इंटरनेट को साधने की कोशिश की जा रही है. जिसका विरोध नेट निरपेक्षता के नाम से जाना जा रहा है. मनुष्य के जीवन में यह व्यक्तिगत, सार्वजनिक तथा आर्थिक मोर्चे पर बेहद क्रांतिकारी बदलाव लाने वाला स्रोत बन सकता है, लेकिन यह सबको इंटरनेट की पहुंच समान रूप से उपलब्ध होने पर ही निर्भर करेगा. मतलब, लोग बिना किसी भेदभाव या कीमतों में किसी अंतर के जो चाहें इंटरनेट पर खोज सकें और देख सकें. यहीं से ‘इंटरनेट निरपेक्षता’ का सिद्धांत निकला है.
नेट न्यूट्रैलिटी शब्द का सबसे पहले इस्तेमाल कोलंबिया विश्वविद्यालय में प्रोफेसर टिम वू ने किया था. इसे नेटवर्कतटस्थता, इंटरनेट निरपेक्षता तथा नेट समानता भी कहा जाता है. इंटरनेट निरपेक्षता तकनीकी जटिलताओं से घिरी वैश्विक-अवधारणा है. मोटे तौर पर यह इंटरनेट की आजादी या बिना किसी भेदभाव के इंटरनेट तक पहुंच की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करता है.
इसका वास्ता इंटरनेट के सेवा शुल्क से है. टेलीकॉम ऑपरेटर, फोन कम्पनियां और इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर इस स्थिति में होते हैं कि वे उपभोक्ता को मिलने वाली सेवा को नियंत्रित कर सकें.
इसका मतलब यही है कि इंटरनेट सेवा प्रदाता या सरकार इंटरनेट पर उपलब्ध सभी तरह के डेटा को समान रूप से लें. इसके लिए समान रूप से शुल्क हो. इंटरनेट सेवाएं उपलब्ध कराने वाली कंपनियां इस पर तरह-तरह के रोक लगाना चाहती हैं. सरकारों का अपना एजेंडा है. यह कंपनियों की कमाई और मुनाफे से तथा सरकारों की नीतियों से जुड़ा मामला है.
तकनीकी मतलब : तकनीकी रूप से नेट निरपेक्षता का मतलब इंटरनेट पर उपलब्ध हर तरह की सामग्री से समान व्यवहार है. यानी इंटरनेट की किसी भी सामग्री, वेबसाइट या एप से भेदभाव नहीं हो. इसके तहत दूरसंचार कंपनियों को भुगतान के आधार पर इंटरनेट पर किसी कंपनी या इकाई को न तो वरीयता दी जा सकती है और न ही किसी की अनदेखी की जा सकती है. अगर कोई ऐसा करता है, तो यह इंटरनेट निरपेक्षता के सिद्धांत के खिलाफ है.
विवाद : भारत में इंटरनेट निरपेक्षता को लेकर सभी प्रमुख विवादों में दूरसंचार कंपनी एयरटेल का कहीं न कहीं हाथ रहा है. एयरटेल ने दिसंबर 2014 में इंटरनेट आधारित ओवर द टॉप सेवाओं के लिए अलग से शुल्क लगाने की घोषणा की थी, लेकिन उसके इस कदम को इंटरनेट की आजादी के खिलाफ बताते हुए सोशल मीडिया में खूब आलोचना हुई.
कंपनी के इस कदम को इंटरनेट की आजादी या इंटरनेट तक समान पहुंच अथवा इंटरनेट तटस्थता के खिलाफ बताया गया. सरकार ने भी इसके खिलाफ बयान दिया और अंतत: कंपनी ने इसे वापस ले लिया. लेकिन इससे इंटरनेट निरपेक्षता की बहस ने एक बार फिर जोर पकड़ लिया.
इसके बाद एयरटेल ने अप्रैल में एक नई पहल के जरिए फिर विवाद खड़ा कर दिया. कंपनी ने एक नया मार्केटिंग प्लेटफॉर्म ‘एयरटेल जीरो’ पेश किया. कंपनी का कहना था कि इस प्लेटफार्म के जरिए उसके ग्राहक विभिन्न मोबाइल एप का नि:शुल्क इस्तेमाल कर सकेंगे. यानी इसके लिए उन्हें इंटरनेट खर्च नहीं करना होगा, क्योंकि यह खर्च एप बनाने वाली कंपनियां वहन करेंगी.
कंपनी की इस पहल का भी कड़ा विरोध हुआ. खासकर सोशल मीडिया पर इसके खिलाफ ‘सेव द इंटरनेट’ जैसा अभियान खड़ा हो गया. इसके बाद एयरटेल ने हालांकि कहा कि उसका एयरटेल जीरो खुला प्लेटफॉर्म होगा और यह भुगतान के आधार पर किसी वेबसाइट को ब्लॉक या बंद नहीं करता अथवा किसी वेबसाइट को वरीयता नहीं देता है.
सरकार की राय : नेट निरपेक्षता को लेकर सरकार की शुरुआती राय यही रही है कि वह इंटरनेट की आजादी यानी समान पहुंच के पक्ष में है. दूरसंचार व आईटी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने 13 अप्रैल 2015 को कहा, ‘हमें बिना किसी भेदभाव के इंटरनेट की उपलब्धता सुनिश्चित करने की हरसंभव कोशिश करनी होगी.’
टेलीकॉम कंपनियां क्यों नहीं चाहती है निरपेक्षता?
नई तकनीकी ने उनके व्यवसाय को चोट पहुंचाई है. मसलन एसएमएस को व्हॉट्सएप जैसी लगभग मुफ्त सेवा ने परास्त कर दिया है. स्काइप जैसी इंटरनेट कॉलिंग सेवा से फोन कॉलों पर असर पड़ा है, क्योंकि लंबी दूरी की फोन कॉल्स के लिहाज से वे कहीं अधिक सस्ती हैं. इन बातों से टेलीकॉम कम्पनियों के राजस्व को नुकसान हो रहा है. इसी कारण से कंपनियां इंटरनेट निरपेक्षता का विरोध कर रही हैं.