नेपाल: प्रचंड की राह में घनघोर चुनौतियां
काठमांडू | समाचार डेस्क: नेपाल के प्रधानमंत्री ‘प्रचंड’ की राह में चुनौतिया अपरंमपार हैं जिनसे निपटना उनके लिये आसान नहीं है. भारत के साथ संबंधों को फिर से पुराने दिनों की तरह बहाल करने के अलावा उन्हें घरेलू मोर्चे पर मधेसी समस्याओं से भी दो-चार होना है. ख़ासकर ऐसे वक्त में जब उनके पास अपने पहले प्रधानमंत्रित्व काल के समान ताकत सदन में नहीं है. केपी शर्मा ओली पर जो आरोप लगाकर उन्हें पद से हटाया गया है अब ‘प्रचंड’ उनसे खुद निपटना होगा.
नेपाल इस समय राजनीतिक और संवैधानिक घनघोर चुनौतियों के चौराहे पर खड़ा है. ऐसे में प्रचंड की राह बहुत आसान नहीं होगी.
प्रधानमंत्री बनने से पहले ही वह कुछ तय एजेंडों के बारे में भलीभांति जानते थे. इन एजेंडों के जरिए ही पूरी तरह से बंटी हुई राजनीतिक विचारधाराओं वाली पार्टियों के बीच संतुलन कायम किया जा सकता है. राजनीतिक आम सहमति बनाना और संसद में दिए अपने चुनाव भाषणों के वायदों को पूरा करना भी उनके लिए चुनौती होगा.
प्रचंड के लिए नेपाली कांग्रेस की अगुवाई वाली पूर्ववर्ती के.पी. शर्मा ओली की सरकार से हुए सात बिंदुओं पर समझौते और तीन बिंदुओं पर संयुक्त लोकतांत्रिक मधेसी मोर्चा से हुए समझौते को निभाना भी चुनौती होगी.
प्रचंड अपनी सीमाओं से घिरे हैं. वह सदन की सबसे बड़े दल नेपाली कांग्रेस के साथ सत्ता में हैं.
उन्हें विपक्षी नेपाल-एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी के विशेष सहयोग की जरूरत है. नए संविधान के तहत बिना दो तिहाई मत के कोई संशोधन नहीं किया जा सकता, ऐसे में मधेसी दलों की शिकायतों के निवारण में इसकी जरूरत होगी.
मधेसी दलों के बगैर सहयोग के उनका संसद में शानदार मतों के साथ प्रधानमंत्री निर्वाचित होना संभव नहीं था.
लंबी दौड़ के लिए प्रचंड को अपने पूर्ववर्ती शर्मा ओली के मुकाबले नए संविधान को बेहतर तरीके से लागू करना होगा. उन्हें मधेस दलों की मांगों का समाधान करना, भूकंप के बाद के पुनर्निर्माण कार्यो में तेजी लाना और संक्रमणकालीन न्याय तंत्र के कार्य को दुरुस्त करने का कार्य करना होगा. इसके अलावा भारत और चीन के बीच राजनीतिक स्तर पर संतुलन बनाना होगा.
यदि वह खुद को बेहतर साबित नहीं कर पाते हैं तो प्रचंड की अपने पहले की सरकार को गिराने में मिली सफलता व्यर्थ सिद्ध हो जाएगी. इसके लिए उनके पास वक्त भी कम है.
नेपाली कांग्रेस से हुए समझौते के मुताबिक, प्रचंड सिर्फ 9 महीने के लिए प्रधानमंत्री होंगे.
प्रधानमंत्री चुने जाने के कुछ क्षणों बाद प्रचंड ने बुधवार को दिए अपने बयान में कहा, “मैं अपने प्रधानमंत्री काल के दौरान राष्ट्रीय सहमति के साथ बढ़ने की कोशिश करूंगा.”
प्रचंड ने सदन को भरोसा देते हुए कहा, “हमें बड़े मुद्दों और एजेंडा पर साथ आना चाहिए. प्रधानमंत्री के तौर पर मुझे पूर्वाग्रह और इनकार की राजनीति से दूर रहना होगा.”
दूसरे विवादित मुद्दों में प्रचंड के सामने 53,000 मामले मानवाधिकार हनन के हैं, जो दशक भर पहले माओवादी उग्रवाद के समय के हैं.
इसी तरह 25 अप्रैल, 2015 को आए बड़े भूकंप के बाद राष्ट्रीय पुनर्निर्माण कार्य में तेजी लाने का मुद्दा भी इससे जुड़ा हुआ है.
नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी सेंटर) के नेता यदि अपने दूसरे प्रधानमंत्रित्व काल में यदि हिमालयी देश को समस्याओं से नहीं उबार पाते हैं तो वह जनता का भरोसा नहीं जीत पाएंगे.
के.पी. शर्मा ओली ने प्रधानमंत्री पद से 24 जुलाई को इस्तीफा दिया था. इसके बाद प्रचंड के लिए 39वें प्रधानमंत्री बनने का रास्ता नेपाली कांग्रेस और मधेसी दलों के सहयोग से संभव हुआ.