स्थिरता के लिए जनादेश
नेपाल की जनता ने समानता और न्याय के साथ सुधार और समृद्धि के लिए वामपंथी पार्टियों को जनादेश दिया है.2015 में नेपाल ने नया संविधान अपनाया. इस संविधान के तहत हुए पहले चुनाव में वाम मोर्चे को कामयाबी हासिल हुई. इस मोर्चे ने नेपाली कांग्रेस को हराया. 1990 के दशक के शुरुआती दिनों के बाद का यह सबसे बड़ा जनादेश है. तीन वामपंथी दलों के मोर्चे को 165 सीटों में से 70 प्रतिशत से अधिक सीटें मिलीं. साथ ही समानुपातिक प्रतिनिधित्व व्यवस्था के तहत उसे आधे से अधिक वोट मिले.
मतदाताओं को लगा कि यह मोर्चा एक स्थायी सरकार देने में कामयाब होगा. इससे राजनीति के केंद्र में सुशासन और लोगों की समस्याएं आ जाएंगी. जनता ने नेपाली कांग्रेस, राजशाही का समर्थन करने वाली ताकतों और मधेशियों के गठबंधन को नकार दिया. नेपाली कांग्रेस का चुनाव अभियान निराशावाद से भरा हुआ था.
1990 में नेपाल में लोकतंत्र की बहाली के बाद सरकारों की अस्थिरता एक बड़ी समस्या रही है. इसलिए नेपाल के लिए स्थिर सरकार बेहद अहम है. 27 सालों में इस देश ने 13 प्रधानमंत्री और 27 कार्यकाल देखे हैं. इन सालों में नेपाल ने एक दशक तक गृह युद्ध झेला, राजशाही के साथ गतिरोध देखा और माओवादियों के साथ शांति प्रक्रिया भी देखी. इसके बाद नई संविधान सभा बनी. राजशाही खत्म हुई और नेपाल एक गणराज्य बना. संविधान बनाने की प्रक्रिया में भी काफी विवाद हुए. लेकिन नेपाल में आए विध्वंशक भूकंप के बाद सभी दलों ने एक होकर संविधान को अंतिम रूप दिया. हालांकि, मधेशियों और जनजातियों की मांगों को लेकर संविधान के प्रति असंतोष बना हुआ है.
यूएमएल मदन भंडारी के नेतृत्व के बाद इस बार सबसे अधिक सीटें जीती है. केपी ओली के नेतृत्व में पार्टी ने अपना रुख बदला है. पिछले एक दशक में इस पार्टी ने यथास्थितिवाद और नेपाली राष्ट्रवाद की राजनीति की है और नेपाल में एक पूर्णतः संघीय ढांचा विकसित करने की प्रक्रिया में अड़चनें पैदा की हैं. इसकी आर्थिक नीतियां भी संरक्षणवाद पर आधारित है. मधेशी आंदोलन के दौरान इसने भारत की दखलंदाजी का जमकर विरोध किया इस वजह से इसे नेपाली जनता का साथ मिला.
पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ की सीपीएन एमसी ने भी अपना पारंपरिक चोला बदला है. पहले रैडिकल बदलावों की मांग करने वाली यह पार्टी अब संवैधानिक दायरे में सत्ता हासिल करने को अधिक तरजीह दे रही है. भूमि सुधार जैसे मुद्दे पीछे छूट गए हैं. इस वजह से इस पार्टी में टूट भी आई लेकिन प्रचंड ने यूएमएल के साथ गठबंधन करके खुद को प्रासंगिक बनाए रखा है.
दोनों पार्टियों को प्रचंड बहुमत मिलना और आने वाले दिनों में दोनों का प्रस्तावित विलय मुश्किलें पैदा कर सकता है. दोनों दलों को इसके लिए तैयार रहना चाहिए. दोनों को उन समस्याओं के समाधान की दिशा में कोशिशें करनी चाहिए जो दीर्घकालिक हैं. इसमें पलायन, अपूर्ण भूकंप राहत कार्य, पुनर्निर्माण और नेपाल का आर्थिक विकास प्रमुख है. नेपाल की कृषि में आई स्थिरता से वहां पलायन बढ़ा है. अर्थव्यवस्था का विविधिकरण नहीं होने से नेपाल को विदेशी सहायता पर निर्भर रहना पड़ रहा है.
अब देखना होगा कि क्या वाम मोर्चा संरक्षणवाद से बाहर निकलती है. क्योंकि इसने नेपाल की अर्थव्यवस्था को नकारात्मक ढंग से प्रभावित किया है. इसके लिए जरूरी है कि दोनों पार्टियां भूमि सुधार के अपने मूल मुद्दे पर लौटें. उत्पादक क्षेत्रों में सरकारी निवेश बढ़ाया जाए. विदेशी निर्भरता घटाने के लिए देश के अंदर एक औद्योगिक ढांचा विकसित किया जाए.
राज्यों के पुनर्गठन का मसला अब भी नहीं सुलझा है. इससे मधेशियों और जनजातियों में असंतोष है. यूएमएल को पहाड़ों में तराई के हितों के खिलाफ बोलने से समर्थन मिला है. लेकिन अगर सरकार ने इसी रवैये को अपनाया तो असंतोष बढ़ेगा और अलगाववादी को जनसमर्थन मिल सकता है. वाम मोर्चा को यह नहीं समझना चाहिए कि उन्हें यथास्थिति बनाए रखने के लिए जनादेश मिला है.
सुशासन और लोकतंत्र के लिए लोगों ने राजशाही विरोधी अभियानों को समर्थन दिया था. लेकिन नेपाल के राजनीतिक वर्ग ने लोगों के उन आकांक्षाओं को नहीं पूरा किया है. वाम मोर्चा को एक मौका मिला है उन आकांक्षाओं को पूरा करने का.
1960 से प्रकाशित इकॉनामिक एंड पॉलिटिकल विकली के नये अंक का संपादकीय