क्यों रिहा हो जाते हैं ‘नक्सली’ ?
आलोक प्रकाश पुतुल | बीबीसी: छत्तीसगढ के सुकमा में पिछले महीने नक्सली हमले में सीआरपीएफ़ के 25 जवानों की मौतके मामले में पुलिस ने चार लोगों की गिरफ़्तारी का दावा किया है. पुलिस के अनुसार गिरफ़्तार लोगों ने स्वीकार किया है कि वे इस हमले में शामिल थे. लेकिन पुलिस को ये बात अदालत में भी साबित करनी होगी.
जगदलपुर लीगल एड से संबद्ध एडवोकेट शालिनी गेरा कहती हैं, “सुकमा, दंतेवाड़ा और बीजापुर ज़िले की स्थानीय अदालतों में साल 2005 से 2013 के इस तरह के सभी मामलों का हमने आरटीआई के आधार पर अध्ययन किया है. 96 प्रतिशत मुकदमों में अदालत ने सभी अभियुक्तों को निर्दोष मानते हुए बाइज्ज़त बरी किया है.”
पिछले कुछ सालों में छत्तीसगढ़ में नक्सलियों के बड़े हमलों, उसके बाद हुई गिरफ़्तारियों और फिर अदालतों से उनकी रिहाई के मामले भी शालिनी गेरा के आंकड़ों को मज़बूती प्रदान करते हैं.
देश में माओवादियों का सबसे बड़ी हमला 6 अप्रैल 2010 को दंतेवाड़ा के ताड़मेटला में हुआ था, जिसमें सीआरपीएफ के 76 जवान मारे गए थे. पुलिस ने इस हमले के लिए कथित रूप से जिम्मेदार 10 लोगों को गिरफ्तार किया और उन्हें जेल भेज दिया.
इस मामले में तीन साल तक अदालती कार्रवाई चली, 40 से अधिक गवाह पेश हुए और अंत में अदालत ने गिरफ्तार अभियुक्तों को निर्दोष मानते हुये बाइज्जत बरी कर दिया.
साल 2009 में माओवादियों द्वारा राजनांदगांव ज़िले के एसपी विनोद चौबे समेत 29 जवानों की हत्या के मामले में माओवादियों के दो कथित मास्टरमाइंड को गिरफ्तार किया गया. दोनों के खिलाफ 60 गवाह पेश किए गए लेकिन अदालत ने दोनों को निर्दोष मानते हुए उन्हें रिहा करने के आदेश दिए.
मई 2010 में दंतेवाड़ा में ही संदिग्ध माओवादियों के हमले में 33 लोग मारे गये थे. पुलिस ने 13 लोगों को गिरफ्तार किया और उन्हें मुख्य अभियुक्त बताया. लेकिन तीन साल बाद सभी 13 अभियुक्तों को अदालत ने निर्दोष मानते हुए रिहा कर दिया.
ऐसे मामलों की एक लंबी फेहरिश्त है.
बस्तर के विधायक रहे आदिवासी नेता मनीष कुंजाम का कहना है कि अधिकांश मामलों में वारदात के बाद अभियुक्त माओवादी भाग जाते हैं और पुलिस गांव के लोगों या संघम सदस्यों को पकड़ लेती है.
मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल की छत्तीसगढ़ इकाई के अध्यक्ष डॉक्टर लाखन सिंह का भी यही कहना है कि नक्सलियों के हमलों से नाराज़ सुरक्षाबलों का गुस्सा गांव के निर्दोष लोगों पर उतरता है.
लाखन सिंह कहते हैं, “सुरक्षाबल के लोग गांवों में पहुंचते हैं, लोगों को मारते-पीटते हैं, फर्ज़ी मुठभेड़ करते हैं और ज़रूरत हुई तो कुछ लोगों को माओवादी बता कर अदालतों में पेश कर देते हैं. पुलिस भी असलियत जानती है, इसलिए ऐसे मामलों में पुलिस की विवेचना भी आधी-अधूरी रहती है. ऐसे में निर्दोष लोगों को अदालत बरी कर देती है.”
लेकिन दंतेवाड़ा के डीआईजी पुलिस सुंदरराज पी का कहना है कि माओवाद प्रभावित इलाकों की तो छोड़ें, शहरी इलाकों में भी पुलिस के सामने दिए बयानों से लोग पलट जाते हैं.
सुंदरराज कहते हैं, “पुलिस अपनी विवेचना में पूरी ईमानदारी बरतती है. माओवादियों से जुड़े मामलों में सबूत जुटाना बहुत मुश्किल होता है. अव्वल तो इस तरह के मामलों में कोई गवाह नहीं मिलता और मिल जाये तो बाद में माओवादियों के आतंक और भय से गवाह अदालतों में पलट जाते हैं.”
डीआईजी पुलिस सुंदरराज पी का कहना है, ”जब तक माओवादियों से जुड़े मामलों में आम जनता का सहयोग नहीं मिलेगा, तब तक अदालतों से अभियुक्त छूटते रहेंगे. आम जनता को माओवादियों के भय और आतंक से ऊपर उठकर उनके ख़िलाफ़ खड़े होना पड़ेगा.”