नमो चाय की चुस्कियां
कनक तिवारी
पांच. मेरे काका चाय बनाने के बड़े शौकीन थे. यह तय नहीं हो पाता था कि बीरबल की खिचड़ी और काका की चाय में कौन पहले बनी होगी. वे पतीली में चाय चढ़ाकर धीमी आंच में ही पकाते, जिसे घरेलू गैस के चूल्हे की भाषा में ‘सिम‘ कहते हैं. मोबाइल वाला ‘सिम‘ नहीं.
वे लगातार स्टेनलेस स्टील के चम्मच से पानी में शक्कर, दूध और चाय की पत्ती डालकर उसे पतीली की पेंदी में रगड़ रगड़कर चलाते रहते. कहते इससे चाय में नए तरह का स्वाद आता है. कितनी भी जल्दी हो उनकी चाय बीस मिनट से पहले बनती ही नहीं थी. कई बार बस या ट्रेन की यात्रा उन्हें चाय बनाते बनाते रद्द करनी पड़ती. वे यात्रा छोड़ सकते थे लेकिन चाय बनाने का अपना हुनर नहीं.
बीस मिनट में बनी चाय को पीने के लिए भी उन्हें बीस मिनट से कम नहीं लगते थे. वे कहते न्यूटन के नियम के अनुसार चाय बल्कि कोई भी गर्म तरल पदार्थ पहले तेजी से ठंडा होता है. फिर बहुत धीरे धीरे. हर पांच डिग्री तापमान कम होने के बाद चाय का स्वाद बदलने लगता है. नमो चाय के प्रवर्तकों को इस कहानी से कुछ न कुछ तो शिक्षा लेनी ही चाहिए. प्रधानमंत्री पद की मोदी-चाय धीरे धीरे खदबदाती तो इस बार बेचारे आडवाणी जी को चाय मिल जाती.
छह. गोंदिया में ‘ग्रेजुएट टी‘ की एक दूकान कई वर्ष पहले खुली. किस्सा यह था कि एक स्नातक नवयुवक को कहीं कोई नौकरी नहीं मिली. उसने नौकरी के लिए बहुत एड़ियां रगड़ीं. किसी ने उसे उद्यमी बनने की सलाह दी.
उसने बाज़ार के केन्द्र में ‘ग्रेजुएट टी‘ नामक दूकान खोल दी. सहानुभूति और उद्यम के प्रयोग के कारण दूकान खूब चल निकली. धीरे धीरे शहर में चर्चा होने लगी. नौजवान की हौसलाफजाई के लिए तमाम ग्राहक नाश्ता अलग अलग होटलों में करते. लेकिन चाय पीने ‘ग्रेजुएट टी‘ दूकान में ही आते.
लोकप्रियता यहां तक बढ़ी कि गोंदिया स्टेशन पर उतरकर गाड़ियां बदलने वाले ग्राहक भी स्टेशन या आसपास की होटलों में चाय पीने के लिए नहीं जाकर ‘ग्रेजुएट टी‘ की दूकान में ही चाय पीते. पता नहीं अब उस दूकान की क्या हालत है.
उस ग्रेजुएट युवक को भी खुद को चाय वाला प्रचारित करके इस बार लोकसभा चुनाव का टिकट भाजपा से क्यों नहीं मांगना चाहिए था. उसके और मोदी जी के लिए कहा गया है ‘नेकी कर दरिया में डाल, मौका पड़े तो बाल्टी भर निकाल.‘
सात. मैंने अपना जीवन राजनांदगांव के दिग्विजय महाविद्यालय के अंगरेज़ी प्राध्यापक के रूप में शुरू किया. हिन्दी विभाग में देश के श्रेष्ठ लेखक पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी और गजानन माधव मुक्तिबोध थे. मैं 23 का, मुक्तिबोध 46 के और बख्शी जी 69 के. इस तरह हमें देखकर विद्यार्थी 23 का पहाड़ा पढ़ने लगते.
मैं कई बार दोनों वरिष्ठों को आग्रहपूर्वक पास के चाय ठेले तक चाय पिलाने ले जाता. मुक्तिबोध चाय ही पीते. बख्शीजी कई बार चाय के बदले कॉफी की सिफारिश करते.
मैं धर्मसंकट में कभी चाय तो कभी कॉफी पीता. मुक्तिबोध मज़ाक करते, ‘यदि मेरी तरह लिखना है तो चाय पिओ. यदि बख्शीजी की तरह लिखना है तो कॉफी पिओ.‘ एक बार मैंने आधा कप चाय और आधा कप कॉफी को मिलाकर पीने की कोशिश की.
मेरे दोनों बुजुर्ग चाय, कॉफी पीकर ख्यातनाम लेखक होकर साहित्य के इतिहास में सम्मानित जगह बनाकर चले गए. मैं बदनाम लेखक भी नहीं बन सका. मोदी समर्थकों को कभी भी चाय और कॉफी मिलाकर नहीं पीनी चाहिए. मनसे, शिवसेना, एम0डी0एम0के0, अकाली दल वगैरह वगैरह की कॉफी के साथ संघ परिवार की चाय को मिलाने में बहुत सावधानी बरतने की ज़रूरत है.
आठ. नमो चाय के साथ एक दिक्कत तो है. उसके मुकाबले राहुल गांधी के कांग्रेसी समर्थकों ने रागा दूध मैदान में उतार दिया है. यदि रागा दूध उसी दिन नहीं पिया गया तो उसे जमाकर दही बनाया जा सकता है. उस दही से लस्सी या छाछ और ज़रूरत पड़ने पर पनीर भी. खीर सेंवई, कर्डराइस, बासुंदी भी पकाई जा सकती है. श्रीखंड भी बनाया जा सकता है. रसगुल्ला, छेनापायस, संदेश, पेड़ा, बरफी और भी बहुत कुछ. अर्थात पूरे भारत के सभी प्रदेशों के निवासियों के लिए दूध से वहां प्रचलित खाद्य पदार्थ तो बनाये ही जा सकते हैं.
यदि नमो चाय उसी दिन नहीं पी गई तब उसका क्या किया जाएगा? वह तो किसी रूप में परिवर्तित नहीं हो सकती. कांग्रेस के संस्कार उसके संस्थापक नेताओं ने इसी तरह बनाए हैं कि वह हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, पारसी, बौद्ध, जैन सभी तरह की संस्कृतियों में घुल मिल जाए. नमो चाय को रागा दूध के महत्व के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन तो करने का सोचना ही होगा.
प्रख्यात पत्रकार राजेन्द्र माथुर ने कहा ही है कि हर पार्टी सरकार में आने पर कांग्रेस हो जाती है. भाजपा जब जब सत्ता में आई है उसने कांग्रेस के दूध वाले सभी रिकॉर्ड तोड़कर दिखाए हैं. बहुलता की संस्कृति वाले नहीं, प्रशासनिक भ्रष्टाचार के.
नौ. नमो चाय के सैद्धांतिक, वैचारिक और व्यापारिक समर्थकों में योग गुरु रामदेव, ‘आर्ट ऑफ लिविंग‘ के श्रीश्रीरविशंकर और आसाराम वगैरह भी हैं. इन दिनों नमो चाय के पीने पिलाने का टेलीविजन चैनलों पर खूब प्रदर्शन चल रहा है. थोड़ी थोड़ी देर में अंतराल याने ब्रेक होता है.
अनिवार्य रूप से बाबा रामदेव का काली दाढ़ी लहराने वाला चेहरा शुद्ध देसी गाय के घी का प्रचार करता हुआ विज्ञापन में चिपकाया जाता है. नरेन्द्र मोदी की चाय की खुशबू के मुकाबले बनाम रामदेव की गाय के घी की महक सूंघने का मज़ा ही कुछ और है. श्रीश्रीरविशंकर की पुस्तक का विमोचन भी मोदी ने ही किया है.
मुकेश अंबानी और गौतम अदानी के अतिरिक्त आसाराम का साम्राज्य भी गुजरात में खूब फला फूला है. सभी तरह के धर्म गुरु और अखाड़ों के अधिपति यह क्यों नहीं कह रहे हैं कि मोदी को चाय नहीं पिलानी चाहिए. मोदी वाराणसी से चुनाव लड़ेंगे. भगवान शिव को तो चाय प्यारी नहीं थी. अयोध्या के रामलला ने कभी चाय नहीं पी. मथुरा के कृष्ण तो घी, दूध, मक्खन की चोरी भी करते थे.
भाजपा के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में चाय कहां से आ गई है? प्रधानमंत्री बनने पर मोदी अयोध्या में रामलला का मंदिर बनाने के पहले क्या अमित शाह के ज़रिए सभी साधु संतों और अखाड़ा अधिपतियों को नमो चाय पिलाएंगे? हिन्दू धर्म दूध की तरह है. मोदी की धार्मिक समझ चाय की तरह.
दस. झांसी के बस स्टैण्ड में एक बार अलसुबह कड़ी ठंड में चाय पीने की जरूरत हुई. मैं परिवार समेत था. एक छोटे से ढाबे में भट्टी सुलगाई जा रही थी. थोड़ी देर में एक ग्वाला दूध लेकर आया. तब तक बस स्टैण्ड के कुछ कुली वहां आ गए थे.
ढाबे वाले ने कहा, ‘साहब मैं चाय नहीं दे सकता. आज दूध कम आया है. यदि चाय का बरतन चढ़ाऊंगा तो ये कुली झगड़ा करेंगे. ये सुबह एक एक पाव दूध जलेबी के साथ खाते हैं. चाय नहीं पीते.‘ उसने कहा चाहें तो दूध ले लें. तब कुली नहीं झगड़ेंगे. मैंने कहा मेरे हिस्से के दूध से ही चाय बना दो. तो भी उसने इनकार किया.
एक बंगाली यात्री युवक भी था. वह बंगाली होने के कारण ट्रेड यूनियन शैली में लड़ने लगा. बोला कि चाय तो देनी पड़ेगी.
थोड़ी देर चले वाद विवाद का पटाक्षेप एक कुली ने यह कहते हुए कराया ‘अरे दे दे साहब को घोड़वा का मूत. (घोड़े की पेशाब). नहीं मानता है तो पिला दे?’ नरेन्द्र मोदी जी की राजनीतिक अश्वगति से मेरा अनुरोध है कि वे इस कथा की सच्चाई को उमा भारती जी से जंचवा लें.