नमो चाय की चुस्कियां
कनक तिवारी
ग्यारह. नागपुर के ढाबों में कॉलेज के कई छात्र लगातार परीक्षा के दिनों में चाय पीने आते. मराठी में कहते, ‘अरधा कप चहा. अण दोण बसी.‘ अर्थात आधी कप चाय दो और दो बसी (सॉसर). इस तरह प्रत्येक छात्र को अधिकतम चैथाई कप चाय पीने का घूंट मिलता. परीक्षा के कारण वे कई कई बार हर ढाबे वाले को इसी तरह तंग करते. महाराष्ट्र में नमो चाय उतनी ही मात्रा में पिलाई जा रही है, जितनी दिल्ली, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, बिहार और पंजाब में. यह तो उत्तर भारत के साथ सरासर अन्याय है. कहां मराठियों का छोटा सा कप और कहां पंजाबियों का तीन पाव का बड़ा सा लस्सी वाला ग्लास.
नमो चाय को हर प्रदेश में अलग अलग मात्रा में पिलाए जाने को लेकर भाजपा खानपान के विशेषज्ञों से सलाह क्यों नहीं लेती? उत्तर भारत की चाय में दूध ही दूध होता है. उसमें कभी भी एक से ज़्यादा उबाल नहीं दिया जाता. महाराष्ट्र की कड़ी मीठी चाय का तेवर ही कुछ और होता है. आप ब्रज भाषा को सुनिए. फिर मराठी सुनिए. दोनों क्षेत्रों की चाय का अंतर अपने आप समझ आ जाएगा. उत्तर भारत में वैसे भी ठंड पड़ रही है और बारिश भी हो रही है. वहां तो ग्लास भर चाय से कम कोई क्यों पिएगा? वैसे भी अरविन्द केजरीवाल उत्तरी भारत में सबको पानी पिलाना ही चाहते हैं. एक माह में 650 लीटर मुफ्त.
बारह. जबलपुर में मेरे मित्र लेखक और पूर्व प्राचार्य डॉ. गंगाप्रसाद गुप्त ‘बरसैंया‘ की ससुराल है. जब मैं जबलपुर हाईकोर्ट में प्रैक्टिस करता था, तो उनकी ससुराल भी गया. ससुराल के बुजुर्ग ने कहा कि कभी भोजन करने तो आओ. एक बार बिन बुलाए मेहमान की तरह मैं नीयतन भोजन करने के वक्त पहुंच गया. सोचा भोजन करके ही जाऊंगा. बहुत देर बैठे रहने के बाद भी जब किसी ने सुध नहीं ली, तो कहना पड़ा ‘अब जाने की इजाजत दीजिए.‘
भोले बुजुर्ग अपना आमंत्रण देना भूल गए थे. मैं जब चलने लगा. फकत इतना बोले, ‘चाय पिओ तो पिलाएं.‘ ऐसा सशर्त निमंत्रण मैंने पहले नहीं सुना था. लिहाज़ा लौट गया. लेकिन यह उनकी नफासत और फितरत में शामिल था. वे जबरिया अतिथि को चाय नहीं पिलाना पसंद करते थे. यदि अतिथि की इच्छा हो तो उसे हां कहने में क्यों दिक्कत होनी चाहिए.
नमो चाय के पिलाने वालों को भी जबलपुर के हूंका जी का यह आप्त वाक्य ‘चाय पिओ तो पिलाएं‘ भाजपा के कार्यालयों में लिखकर टांग देना चाहिए. इससे पीने वाले और नहीं पीने वाले दोनों तरह के लोगों को असुविधा नहीं होगी. कई बार चाय नहीं पीने वाले भी भीड़ बढ़ाने पहुंच जाते हैं. कांग्रेस घबराती है कि बी.जे.पी. में भीड़ बढ़ रही है. मतगणना होने पर भाजपा को धोखा हो जाता है.
तेरह. मैं वर्षों पहले भिलाई में किन्हीं आर.एन. मुखर्जी के मकान में साल भर के लिए किराए पर रहता था. संयंत्र के अधिकारी मुखर्जी मोशाय किसी ट्रेनिंग के लिए अमेरिका गए हुए थे. एक दिन उनके रिश्तेदार डॉ. मुखर्जी मुझसे किराया लेने आए. मैं किराएदार-अध्यापक के घर पर अकेला था.
सौजन्य के नाते मैंने डॉक्टर साहब को चाय पीने का आग्रह किया. पतीली पर पानी चढ़ाकर आया और उसमें चायपत्ती, शक्कर तथा दूध भी डाला. फिर बातचीत करने लगा. भूलवश दुबारा उतना ही पानी फिर डाल दिया. दूध, शक्कर और पत्ती नहीं. वह चाय डॉ. मुखर्जी को दी. वे डॉक्टर होकर भी उसे कड़वी दवा समझकर मुंह बना बनाकर किसी तरह गुटकते रहे. फिर साल भर किराया लेने नहीं आए.
कई महीने बाद अमेरिका से लौटकर मकान मालिक आर.एन. मुखर्जी ने बचा खुचा किराया एक साथ लिया. यह भी अनुरोध किया कि किराया दे दूं, लेकिन मैं उन्हें चाय नहीं पिलाऊं. फिर मुझे डॉ. मुखर्जी के भयातुर होने का पूरा किस्सा सुनाया. नमो चाय के बनाने वाले यदि ज्यादा भीड़ देखें तो उन्हें मेरी तरह चाय नहीं बनानी चाहिए. वरना मतदाता रूपी डॉ. मुखर्जी उनके पास लौटकर कभी नहीं आएंगे.
दूसरों के अनुभव से सीखने वाला ही विद्वान होता है. आडवाणी के अनुभव से सुषमा स्वराज, जेटली, मुरली मनोहर जोशी सीख ही रहे हैं.
चौदह. फिल्मों में भी चाय पीने पिलाने के कई दृश्य अभिनीत किए जाते हैं. अमूमन लड़की की शादी जब तय होती है, तब आगंतुक अतिथियों अर्थात संभावित वर पक्ष को चाय जरूर पिलाई जाती है. वह चाय लेकर संभावित वधू ही आती है. इसी सिलसिले में युवजन को इसी गाने का मुखड़ा ज़रूर याद होगा, ‘शायद मेरी शादी का खयाल दिल में आया है. इसी लिए मम्मी ने तुम्हें चाय पे बुलाया है.‘
यहां शादी शब्द का अर्थ प्रधानमंत्री का पद है. मम्मी का अर्थ भाजपा से है. फिल्मों में तो चाय के साथ बिस्किट, पकौड़े, सैंडविच, टोस्ट, मिठाइयां, मेवे और फल भी होते हैं. पंजाबी मित्र जब रोटी खाने बुलाते हैं तो लस्सी, मक्खन, चिकन, सरसों का साग, बैंगन का भरता, छोले वगैरह रोटी के आसपास उसी तरह आते हैं. जैसे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ मंत्रिगण नारायण सामी, राजीव शुक्ला और कमलनाथ चलते हैं.
नरेन्द्र मोदी गुजरात के हैं. गुजराती बहुत मितव्ययी होते हैं. वे फिजूलखर्ची नहीं करते. फिल्म ‘थ्री इडियट्स‘ में करीना कपूर ठीक कहती हैं, ‘तुम गुजराती लोग ढोकला, फाफड़ा, थेपला, हांडवा, खाखरा वगैरह खाते हो. ये खाने की चीजें हैं या एटम बम.‘ नरेन्द्र मोदी क्या करीना कपूर के भय के कारण चाय के साथ ये सभी गुजराती व्यंजन खाने का निमंत्रण देने से बच रहे हैं. उनकी भाषा, उच्चारण, शैली, कथ्य वगैरह सभी में से तो वैसे ही एटम बम ही झरते हैं. फिर बेचारी चाय के साथ गुजराती खाद्य पदार्थों के एटम बम क्यों नहीं परोसते.
पंद्रह. मेरी पत्नी की मित्र भिलाई निवासी कुसुम श्रीवास्तव चाय बनाने में विश्व कीर्तिमान रच सकती हैं. पिछले लगभग पचास वर्षों से उनकी चाय के स्वाद में रत्ती भर भी फर्क नहीं हो रहा है. आप पूरी दुनिया में मैकडोनल्ड की फ्रेंचफ्राइज़ खाइए. स्वाद में रत्ती भर का फर्क नहीं होता. मैकडोनल्ड दुनिया की सबसे बड़ी भोजनालय श्रृंखला है.
कुसुम श्रीवास्तव भी भारतीय मैकडोनल्ड गृहिणी हैं. जब भी अच्छी चाय पीने का मन होता है, हम उनके यहां जाते हैं. उनकी चाय बनाने का व्यापारिक गुर अब तक कोई नहीं सीख पाया. उन्हें चाय बनाते देखने वाली उनकी बहू को भी यह कमाल अभी हासिल होना बाकी है. जैसे 26 दलों को साथ लेकर चलने वाला वाजपेयी का गुर राजधर्म निभाने के नाम पर मोदी को सीखना है.
इसी से ख्याल आया कि भाजपा के पूरे देश के कार्यकर्ता जगह जगह के मतदाताओं को नमो चाय पिला रहे हैं. हर शहर क्या हर मोहल्ले की चाय का स्वाद अलग हो जाने के खतरे भी उसमें सन्निहित होते ही हैं. भाजपा को यह क्यों नहीं सूझा, बल्कि अब भी सूझे कि वह नमो चाय का पेटेंट करा ले. उसके लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर फार्मूला सुझाने की प्रतियोगिता आयोजित की जाए.
विजयी प्रतिभागी को सम्मानजनक निधि भी प्रदान की जाए. मेरा दावा है कि यदि ऐसी प्रतियोगिता होगी तो हमारी सुपरिचित भिलाई की कुसुम श्रीवास्तव को पराजित करना अच्छे से अच्छे चाय बनाने वाले रसोइए यहां तक कि मोदी जी को भी नसीब नहीं होगा. छत्तीसगढ़ प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह और भिलाई स्टील प्लांट को वैसे भी लगातार प्रथम आने की आदत जो हो गई है.
सोलह. 1963 में दिग्विजय महाविद्यालय के अंगरेजी विभाग के प्राध्यापक की हैसियत में मैं महाविद्यालय के छात्रों की टीम को सागर विश्वविद्यालय में युवा महोत्सव के सिलसिले में ले गया था. अंगरेजी विभाग के हम प्राध्यापकों ने हिन्दी विभाग से अपनी खुन्नस के कारण कई चुटकुले और किस्से गढ़ रखे थे. हम मज़ाक में कहते ‘भाई, सागर नहीं जाना. यदि जाना, तो विश्वविद्यालय वाले मकरौनिया स्टेशन पर नहीं उतरना. आप अच्छे भले वहां जाएंगे. हिन्दी विभाग के अध्यक्ष नन्ददुलारे वाजपेयी आपको पीएच.डी. की डिग्री फेंककर मारेंगे. आप मनुष्य के रूप में जाएंगे और हिन्दी के डॉक्टर बनकर लौटेंगे.‘
बहरहाल हम मकरौनिया स्टेशन पर ही उतरे. सामने ही चाय का ठेला था. मेरे साथ लगभग 20 छात्र थे. हमने चाय का ऑर्डर दिया. चाय वाले ने बमुश्किल चार पांच लोगों को अपने टूटे फूटे कप या ग्लास में चाय पकड़ा दी. मैंने चाय वाले से कहा कि बाकी सब लोगों को भी साथ साथ चाय दे दो. चाय वाले ने बुंदेलखंडी अक्खड़ तेवर के उच्चारण में पलटवार किया. ‘पहले तुम तो पी लो. चाय के कप खाली होंगे तब तो दैंगे. देख नहीं रहे. इतने ही कप और ग्लास हैं.‘
हमारी चाय पीने का मज़ा उसके कड़े मीठे तेवर के कारण दुगना हो गया. असल में दम चाय में नहीं होती. चाय वाले में होती है. गुजरात की किसी नामालूम दुकान में एक नौजवान ने कुछ समय तक ग्राहकों को चाय पिलाई. किसे मालूम था कि वह देश के करोड़ों लोगों से अपनी चाय की कीमत वसूल करने आएगा. वह अपनी ही पार्टी के वरिष्ठों को पानी भी पिलाएगा.
भाजपा की नमो चाय पार्टियों में इसीलिए कागज के कप इस्तेमाल किए जा रहे हैं. चाय पिओ और उन्हें कूड़ेदान में फेंको. राजनीतिक पार्टियां मतदाताओं के वोट भी तो इसी तरह कबाड़ती हैं. वोट ले लो. फिर मतदाताओं को ही कूड़ेदान में कम से कम पांच साल के लिए फेंक दो. चाय कोई फेविकोल तो है नहीं जो रिश्तों को जोड़कर रखेगी. भाजपा ने चाय का राजनीतिक महत्व समझा है. वह चाय के इतिहास में सदैव याद रखा जाएगा.