आर्थिक सवालों के मौलिक वीर नारायण सिंह
कनक तिवारी
इतिहास कई बार सच की तलाश के बदले रोमांटिक रूपकों के कारण ज्यादा लोकप्रिय बना दिया जाता है. आज छत्तीसगढ़ के लिए वीरता के गौरव का दिन है. रायपुर के निकट सोनाखान की छोटी जमींदारी के मालगुजार आदिवासी नारायण सिंह की शहादत हुई थी.
उनका ठीक ठाक और प्रामाणिक ब्यौरा नहीं है. इतिहास लिखे जाने की समाज वैज्ञानिक परंपरा कहां है? मसलन यह तक तय नहीं हो पाया कि गांधी 1920 में छत्तीसगढ़ आए थे या नहीं? नारायण सिंह का इतिहास कौन बताए? लेकिन वीर नहीं होंगे तो साहित्य और इतिहास अधमरे हो जाएंगे. पुष्ट, अपुष्ट तथ्यों के गुबार से भी ऐतिहासिक सच तो झरता रहा है.
किस्सा है कि 1856 में भयंकर सूखा पड़ने से सोनाखान और आसपास के गांवों के किसान किसान भुखमरी झेलते दाने दाने को मोहताज हो गए. मुनाफाखोर, जमाखोर, काले बाजारिए ऐसे भी मौसम में वसंत उत्सव मना रहे थे.
अभी तक विश्व इतिहास के सबसे बड़े किसान आंदोलन की गैरहाजिरी होती तो अदानी के बड़े बड़े गोदाम जीभ लपलपा रहे होते! मुनाफाखोरी का खेल तो देश में आज भी है. चाहे गेहूं हो, सरसों का तेल या गन्ना या और कुछ!
नारायण सिंह ने सेठियों से गुजारिश की अपने गोदामों से अनाज किसानों को, मुफ्त नहीं तयशुदा दामों पर, दे दें. अगली फसल आने पर नारायण सिंह को मिली उपज से भरपाई कर लें.
मुनाफाखोर देह, देश और चरित्र छोड़ सकते हैं, लेकिन मुनाफा नहीं. उन्होंने इन्कार किया. उत्तेजना लेकिन भुखमरी से किसानों को निजता लाने में नारायण सिंह ने कहा होगा ‘जाओ गोदाम लूट लो.‘ भूखे किसानों ने ठीक वही किया.
नारायण सिंह पर अपराधों पर मुकदमा चला, जो मैकॉले द्वारा रचित भारतीय दंड संहिता 1860 के पहले नामजद रहे हैं. नारायण सिंह को सजा-ए- मौत दी गई.
कहा जाता है जहां रायपुर का जयस्तंभ चौक है, वहां उन्हें गोली से उड़ा दिया गया. सरकारी गजेटियर में हादसे की तारीख 19 दिसंबर बताई गई थी. बाद में उसे 10 दिसंबर कर दिया गया.
आज ही रायपुर में खबर छपी है. छत्तीसगढ़ में कृषि उपज पर मंडी शुल्क प्रति 100 रुपये में 3 रुपये बढ़ाने के कारण व्यापारियों ने धान का रेट 200 रुपये प्रति क्विंटल गिरा दिया है.
व्यापारी अपना पक्ष बता रहे हैं और कांग्रेस सरकार अपना कि इससे किसानों पर तो बोझ नहीं बढ़ रहा था. आज ही देष का सबसे बड़ा किसान आंदोलन स्थापित कर सरकारी और कॉरपोरेटी अत्याचार से पहली जीत दर्ज कर किसान घरों को लौट रहे हैं.
उनकी लड़ाई में 700 से ज्यादा किसानों की शहादत भी हो गई. पता नहीं आगे किसानों को सरकार से कुछ मिलेगा या फिर छत्तीसगढ़ के मुनाफाखोरों के पुनर्जन्मित कॉरपोरेटी सरकारों से किसानों पर गोली भी चलवाएंगे!
सरकारी विज्ञापन में नारायण सिंह को स्वतंत्रता संग्राम का सैनिक बताया जा रहा है. जानना जरूरी है विवेकानन्द 15 से 17 बरस की उम्र में 1877 से 1879 के बीच छत्तीसगढ़ में रहे. उन्होंने नारायण सिंह के आंदोलन तो क्या छत्तीसगढ़ के अकाल के भी बारे में बाद में एक वाक्य नहीं लिखा.
यही सिद्ध होता है कि उन्नीसवीं सदी की सांझ में समाचारों की संसूचना का कोई तंत्र नहीं था. लगभग अशिक्षित, सभी संचार साधनरहित इलाके में अंगरेजों के खिलाफ स्वतंत्रता की लड़ाई की राष्ट्रीय समझ नारायण सिंह में कैसे उद्गमित बताई जाती है? इतिहास की प्रामाणिक किताबों में भी ऐसा श्रेय 1857 के जनयुद्ध को है.
नारायणसिंह का यश आर्थिक सवालों के मौलिक नायक की तरह प्रचारित नहीं होना चाहिए. यह इतिहास का शिलालेख है कि नारायणसिंह ने भूख, गरीबी, जुल्म और पूंजीवादी व्यवस्था में पिसते किसानों की बदहाली और भुखमरी दूर करने सहयोगी ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ नीयतन अपना जीवन दांव पर लगा दिया. लेकिन किसानों को भूख से नहीं मरने दिया!
मुनाफाखोरी, जमाखोरी और कालाबाजारी के खिलाफ सबसे पहले और सबसे सार्थक संघर्ष छत्तीसगढ़ के इस बेटे ने सायास किया. शासकीय समझ में आज भी नारायणसिंह की शहादत को लेकर मौजूदा कृषि व्यवस्था में दलालों, आढ़तियों, व्यापारियों और सरकारी तथा सहकारी संस्थाओं के शिकंजों को इस तरह ढीला करने की ज़रूरत है जिससे किसानों को आत्महत्याओं और मुफलिसी के वीभत्स अनुभवों से बचाया जा सके.
आज भी देश सरकारों के ही कारण महंगाई, भ्रष्टाचार, घूसखोरी, मुनाफाखोरी, जमाखोरी, सरकारी अत्याचारों वगैरह से पीड़ित है. आदिवासी संस्कृति को नारायण सिंहन ने केवल नाच-गाना, गम्मत, नाटक, कव्वाली नहीं समझा. बताया उसमें उग्र पौरुषमय मूल्य भी हैं.
नारायणसिंह, गुंडा धूर, रामाधीन गोंड़, लाल श्याम शाह जैसे बहादुर धरती पुत्रों ने छत्तीसगढ़ियों बल्कि आदिवासियों की दब्बू और सहिष्णु मानसिकता के मिथक को अपनी मर्दानगी से तोड़ा. सिद्ध किया अन्याय करने वाले से अन्याय सहने वाला बड़ा गुनहगार है. क्या आज भी सरकारों के कारण कायरता जनता का चरित्र नहीं है?
सरकारें कॉरपोरेटियों की भ्रष्टाचारी की गिरफ्त बल्कि सहयोग में हैं. नारायणसिंह की जब्तशुदा ज़मींदारी को कुछ मालगुजारों ने खरीदा था. उनके वंशज शायद मलाईदार राजनीतिक पदों पर गजेटियर की जानकारी के अनुसार रहे हों?
छत्तीसगढ़ सरकार जमाखोरी, मुनाफाखोरी और कालाबाज़ारी के खिलाफ नारायणसिंह की कुर्बानी की याद में सख्त कानून और अमल का इरादा लागू करने की वार्षिक रपट का श्वेतपत्र उनके शहादत दिवस पर प्रकाशित कर दिया करे! पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुनसिंह ने नारायण सिंह के नाम बस्तर में विश्वविद्यालय स्थापित करने ऐलान किया, लेकिन! जाबांज जननेता शंकर गुहा नियोगी ने नारायण सिंह को प्रतीक बनाकर छत्तीसगढ़िया मजदूर किसानों में पौरुष का संचार किया.
मेरी नज़र में यह है इस नारे का असली मतलब सबले बढ़िया छत्तीसगढ़िया. हमें गुणगान करके समाज में फैली विषमता और शोषण की वृत्तियों को बढ़ावा नहीं देना चाहिए. चाहे वे सरकार में हों, कॉरपोरेट्स में हो या दलालों में हों या गोदी मीडिया में हों.
हमारे नेता नारायण सिंह जैसे वीरों के नाम जपते, विधायक, सांसद और मंत्री बनते हैं. जनप्रतिनिधियों का जीवन लेकिन ऐशोआराम का होता है. छत्तीसगढ़ के आदिवासियों को नक्सली बनते या उनकी गिरफ्त में जाते देखना नेताओं के भी कारण है. वे मतदाताओं से दूध गर्म करने का फरमान सुनाते हैं लेकिन मलाई खुद चाटते जाते हैं.
हमारे बहादुर पुरखे के रूप में वीर नारायण सिंह के शिष्य बस एक विज्ञापन छपाने तक सीमित हैं. सरकारों में हिम्मत नहीं है कि व्यापारियों की गर्दन में हाथ डाले.