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न्यूनतम समर्थन मूल्य की ढ़ाल

देविंदर शर्मा
न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी जामा पहनाने वाली किसानों की मांग के संदर्भ में एक सवाल बार-बार उठाया जाता है कि क्या ऐसा कोई कदम विश्व व्यापार संगठन के प्रावधानों का उल्लंघन करेगा? इससे यह विषय काफी महत्वपूर्ण बन जाता है, क्योंकि अमरीका, यूरोपियन संघ और कनाडा जैसे चंद अमीर मुल्क, भारत पर सब्सिडी सीमा को लांघने का इल्जाम लगाते हैं.

जबकि भारत का पक्ष है कि खाद्य सुरक्षा एवं आजीविका सुनिश्चित करने को न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था विश्व व्यापार संगठन के प्रावधानों के अनुरूप है, किंतु यह बात चंद सदस्य देशों को इस विवादित बिंदु को बारम्बार उठाने से नहीं रोक पा रही.

चूंकि विकसित मुल्क की नज़र भारत के विशाल बाज़ार के बड़े हिस्से से लाभ उठाने पर गढ़ी है, जहां पहले ही लगभग 80 करोड़ से ज्यादा कुपोषित लोग राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के अंतर्गत सरकारी राशन पर निर्भर हैं.

खुद के सब्सिडी प्राप्त खाद्यान्नों को अन्य देशों में आयात की मंजूरी मिल सके, इस मंतव्य से उनके सरकारी खाद्यान्न भंडारण सीमा को घटवाना सदा उनका एजेंडा रहा है.

हालांकि जेनेवा में 20 नवम्बर से 3 दिसम्बर तक निर्धारित 12वीं अंतर-मंत्रालय बैठक को स्विट्ज़रलैंड द्वारा कोविड के ओमिक्रॉन रूपांतर के मद्देनजर लगाए प्रतिबंधों की वजह से स्थगित करना पड़ा है, लेकिन इससे पहले समझौते के अंतिम मसौदे की बाबत गर्मागर्म बहस चली थी.

बेशक कुछ देशों की इस बात को अंतिम मसौदे में जगह नहीं मिली, जब वे यह कहने तक चले गए कि ‘रिवायती आम खुराक’ हेतु आवश्यक खरीद सीमा को कुल कृषि उत्पाद के 15 प्रतिशत तक सीमित किया जाए.

यदि इस प्रस्ताव को मंजूरी मिल जाती और इस बात के मद्देनजर कि विश्व भूख सूचकांक-2021 में 116 देशों में भारत 101वां शोचनीय स्थान रखता है, तब उक्त फैसले का खाद्य एवं पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करने पर चिंताजनक असर होना अवश्यांभी था.

यह वर्ष 2013 में बाली में विश्व व्यापार संगठन का अंतर-मंत्रालय सम्मेलन था, जिसमें भारत जैसे विकासशील देश जद्दोजहद के बाद अंतरिम ‘शांति धारा’ रूपी सुरक्षा पाने में सफल हुए थे.

जहां एक ओर विकासशील देशों से उम्मीद की जाती है कि वे प्रशासित मूल्य के जरिए सब्सिडी को उत्पाद-विशेष की कीमत की 10 फीसदी (इसे डी-मिनिमिस स्पोर्ट कहते हैं) से कम रखेंगे, वहीं अमीर देशों के लिए यह ऊपरी सीमा 5 प्रतिशत निर्धारित है.

अमरीका, यूरोपियन यूनियन और केयर्न्स ग्रुप (निर्यातक देशों का एक समूह) के अन्य सदस्य मुल्क भारत द्वारा गेहूं और चावल पर तयशुदा सीमा से ज्यादा दी जाने वाली सब्सिडी को ‘व्यापारिक विकृति’ ठहराकर लगातार आवाज़ उठाते आते आए हैं.

दूसरी ओर जी-33 समूह (47 विकासशील देशों का समूह) अपने गरीब एवं कुपोषित तबके और छोटे किसान की खाद्यान्न, आजीविका और पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करने की साझी समस्या का स्थाई हल निकालने को कह रहे हैं. वर्ष 2018-19 में भारत ने विश्व व्यापार संगठन की ‘शांति धारा’ का प्रयोग करते हुए सूचित किया कि डी मिनिमिस कीमत पार कर चावल पर सब्सिडी दी गई है.

यह धारा विकासशील देशों को किसी व्यापारिक विवाद से सुरक्षित करती है, फिर भले ही सब्सिडी की ऊपरी सीमा का उल्लंघन क्यों न हो. यही वह युक्ति है, जिसको लेकर केयर्न्स समूह समेत विकसित देश खफा हैं और उनकी कोशिश इस ‘सुरक्षा छतरी’ को छीनने की रही है.

विकसित मुल्कों का एक एतराज़ ये भी है कि सब्सिडी प्राप्त खाद्यान्नों का असर वैश्विक व्यापार पर पड़ता है. जबकि जी-33 समूह इस प्रावधान के तहत खरीदे गए खाद्यान्न की किसी भी मात्रा को निर्यात न करने पर सहमत हैं, इसलिए ऐसी खरीद से ‘व्यापारिक विसंगति’ बनती है, यह कहना बंद हो.

वर्ष 2018 में भारत और चीन ने विश्व व्यापार संगठन को संयुक्त प्रस्ताव में कहा था कि जिस तरह अमीर देश खुद एग्रीगेट मेसर ऑफ स्पोर्ट (एएमएस) प्रावधान का इस्तेमाल करके 160 बिलियन डॉलर मूल्य की ‘व्यापार विकृति’ सब्सिडी दे रहे हैं, उसे बंद करवाया जाए. भारत ने सितम्बर, 2021 के अपने नवीनतम पत्र में वैश्विक कृषि व्यापार में ऐसी विसंगति हटाने की अपील की है.

इसमें खासतौर पर उन विषम व्यापारिक नियमों का उल्लेख किया गया है, जिससे संतुलन विकासशील मुल्कों के खिलाफ रहता है. भारत ने बाकायदा जोर देकर कहा है- ‘संगठन के सात सदस्य -यूरोपियन यूनियन, जापान, अमरीका, रूसी संघ, स्विट्ज़रलैंड, कनाडा और नॉर्वे- ऐसे हैं, जिनके पाले में फाइनल बाउंड एग्रीगेट मेजर ऑफ स्पोर्ट (एफबीएएमएस) ग्लोबल एनटाइटलमेंट का 96 फीसदी हिस्सा बन रहा है, जबकि शेष सदस्यों के हिस्से यह मात्रा 4 प्रतिशत से भी कम है.’

सरल शब्दों में, इसका मतलब है सबसे बड़े खिलाड़ी ही कृषि सब्सिडी ऊपरी सीमा के खुद सबसे बड़े उल्लंघनकर्ता हैं, फिर भी विकासशील देशों पर अंगुली उठाने में कोर-कसर नहीं छोड़ते.

अमरीका और कनाडा में, केवल डेयरी सेक्टर को ही उत्पाद-विशेष सब्सिडी सहायता मद में 50 फीसदी से ज्यादा राहत सालों तक मिली है. बड़ी चतुराई से इस ‘उत्पाद-विशेष मदद’ को अब ‘गैर-उत्पाद सहायता’ में बांटकर दूसरों को बताया जा रहा है कि सवालिया सब्सिडी को अन्य महत्वपूर्ण व्यावासायिक व्यापारिक गतिविधियों के जरिए इस तरह नीचे रखा जा सकता है.

उदाहरणार्थ वर्ष 1995 में अमरीका में उत्पाद-विशेष सहायता मद में डेयरी एवं चीनी का सम्मिलित हिस्सा 91 प्रतिशत था, जो वर्ष 2001 में 37 फीसदी तो साल 2014 में और घटकर 18 फीसदी रह गया. लेकिन जहां डेयरी और चीनी का अंश लगातार घट रहा था वहीं कपास और मक्का पर दी जाने वाली सहायता 1995 में 2 प्रतिशत से उठकर 2001 में 28 फीसदी तो 2014 में 40 प्रतिशत तक आ गई.

इसी तरह यूरोपियन यूनियन में, मक्खन, स्किम्ड मिल्क पाउडर और गेहूं का हिस्सा, जो 1995 में 17 प्रतिशत था, वह 2001 में 78 फीसदी हो गया.

जहां विकसित देश भारत पर गेहूं, चावल, चीनी और कपास पर सब्सिडी सीमा का उल्लंघन करने का आरोप लगाते हैं, उनका अपना सब्सिडी बहीखाता बांचने पर खुलासा होता है कि वैश्विक व्यापारिक निज़ाम कितना पक्षपाती है.

जहां भारत ने अब कहीं जाकर चावल पर तयशुदा 10 फीसदी सीमा से ऊपर सब्सिडी दी है, वहीं अमरीका उत्पाद-विशेष मद के तहत चावल पर 82 प्रतिशत सब्सिडी देता है तो यूरोपियन यूनियन में यह 66 फीसदी है, जो कि विश्व व्यापार संगठन द्वारा निर्धारित नियमों का कहीं बड़ा उल्लंघन है.

इसी तरह चीनी पर अमरीका की सब्सिडी सहायता 66 प्रतिशत है तो यूरोपियन यूनियन इससे दुगुनी यानी 120 फीसदी दे रहा है! अमीर मुल्कों द्वारा दी जाने वाली ‘व्यापार विकृति’ सब्सिडी की संपूर्ण रेंज की सावधानीपूर्वक विवेचना से पता चलता है कि कैसे व्यावसायिक महत्व वाली वस्तुओं (प्रसंस्कृत पर भी) दी गई बहुत भारी मदद के परिणाम में उनकी अंतर्राष्ट्रीय कीमतें कम ही रहती हैं. तो यह प्रतिस्पर्धा नहीं बल्कि सब्सिडी है जो अंतर्राष्ट्रीय कीमतें निर्धारित करती है.

यदि ‘शांति धारा’ वह सुरक्षा छतरी है, जिसकी दरकार भारत को अपनी खाद्यान्न एवं पोषण सुरक्षा बनाने के लिए है. वहीं न्यूनतम समर्थन मूल्य वह ढाल है, जिसकी जरूरत भारतीय किसान को अपनी आजीविका बचाने की खातिर है.

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