बंदर मांस तस्करी में लीपापोती
राजनांदगांव | संवाददाता: छत्तीसगढ़ में बंदर मांस की तस्करी के मामले में लीपापोती जारी है. राज्य के मुख्यमंत्री रमन सिंह के गृह ज़िले राजनांदगांव में भारी मात्रा में बंदरों के मांस के व्यापार का मामला सामने आने के बाद पांच जमीनी कर्मचारियों को सस्पेंड करके और एक कथित शिकारी की गिरफ्तारी के बाद वन विभाग जल्दी ही फाइल बंद कर सकता है.
वनजीव संरक्षक रामप्रकाश के कार्यकाल में ऐसे मामलों की लंबी फेहरिश्त है, जिसमें वनजीवों के शिकार के मामले या तो दबा दिये गये या उसमें महज कागजी खानापूर्ति करके उन्हें रफा दफा कर दिया गया. रामप्रकाश के कार्यकाल में जितनी वनजीवों की मौत की घटनाएं हुई हैं, वह देश में अनूठी हैं. जाहिर है, कागजी खानापूर्ति के कारण ही राज्य में वन जीव मारे जा रहे हैं और शिकारियों के हौसले बुलंद हैं.
गौरतलब है कि अंबागढ़ चौकी के पर्रेमेटा से लगे हुये जंगल में लगभग दो दर्ज़न शिकारियों द्वारा बंदरों के मांस के निर्यात की बात सामने आने के बाद वन विभाग ने अपने पांच कर्मचारियों को निलंबित कर दिया था.
इलाके के मुख्य वन संरक्षक वी श्रीनिवास राव ने दावा किया था कि आरंभिक तौर पर बंदरों के शिकार का मामला सामने आने के बाद कर्मचारियों के निलंबन की कार्रवाई की गई है. फिलहाल जांच चल रही है और उम्मीद है कि इस पूरे मामले को जल्दी ही सुलझा लिया जाएगा. लेकिन इसके बाद वन विभाग के अमले ने इस मामले में एक कथित शिकारी को एक स्थानीय बाजार से गिरफ्तार करके पूरे मामले को निपटा लेने के दावे पर काम करना शुरु कर दिया है. जबकि कथित शिकारी के पास से न तो पुलिस ने कोई सामान बरामद किया है और ना ही इस मामले में कोई गवाह सामने हैं. ऐसे में यह मामला जाहिर तौर पर अदालत में टांय-टांय फिस्स हो सकता है और फिर वन विभाग के पास हाथ पर हाथ धर कर बैठने के अलावा कोई चारा नहीं होगा.
देश में अपनी तरह के इस अनूठे मामले में बंदरों की मांस की तस्करी में किसी बड़े गिरोह की आशंका से इंकार नहीं किया जा रहा है. भारत के वन्यजीव अपराध नियंत्रण ब्यूरो ने भी इस मामले को गंभीरता से लिया है और उसके अधिकारी भी मौके पर पहुंचे थे.
ब्यूरो के अतिरिक्त निदेशक श्यामभगत नेगी के अनुसार “यह पूरा मामला हमारी जानकारी में है. राज्य के प्रधान मुख्य वन संरक्षक, वन्यजीव के साथ इस मुद्दे पर चर्चा हुई है और फिलहाल राज्य सरकार इस मामले की जांच कर रही है.”
मध्यभारत में काम कर रही कंजरवेशन कोर सोसायटी की मीतू गुप्ता फिलहाल पूरे मामले में शिकारियों की गिरफ्तारी को ज़रुरी मान रही हैं.
वन जीव विशेषज्ञ मीतू गुप्ता कहती हैं- “शिकारियों की गिरफ्तारी के बाद ही यह स्पष्ट हो पाएगा कि बंदरों के मांस का क्या उपयोग हो रहा था. आम तौर पर बंदरों के मांस खाने की परंपरा छत्तीसगढ़ में नहीं है. ऐसे में मांस का इस्तेमाल राज्य में ही कहीं हो रहा था या फिर उन्हें कहीं और भेजा जा रहा था, यह जानना जरुरी है.”
हालांकि बंदरों पर शोध करने वाले डॉक्टर प्रबल सरकार इसमें किसी अंतर्राष्ट्रीय गिरोह की आशंका से इंकार नहीं करते. शिकार वाले इलाके से नेपाल की सीमा से सटे हुये नवतनवा शहर तक सीधी ट्रेन सुविधा है. उनकी आशंका है कि बंदरों के मांस का निर्यात नेपाल और चीन में भी हो सकता है.
शिकार
छत्तीसगढ़ में आम तौर पर बंदरों की दो प्रजाति पाई जाती है. वन विभाग के अधिकारियों का कहना है कि जिस इलाके में शिकार और मांस निर्यात का मामला सामने आया है, वहां लंगूर या वानर पाये जाते हैं.
बंदरों का शिकार और उनके मांस के निर्यात के मामले की जानकारी आसपास के ग्रामीणों को पहले से ही थी. जंगल के बीच सिंचाईं विभाग द्वारा बनाए जा रहे पुल के कुछ मज़दूरों ने रोज़ शिकारियों को मरे हुये बंदरों के साथ देख कर इसकी जानकारी एक स्थानीय पत्रकार को दी.
पत्रकार एनिशपुरी गोस्वामी कहते हैं-“जब मैं जंगल के भीतर मौके पर पहुंचा तो मेरी आंखें फटी रह गईं. वहां चट्टानों पर सब तरफ बंदरों का मांस सुखाया जा रहा था. बर्तनों में बंदरों का मांस उबाला जा रहा था. इस काम में लगे बुजुर्ग ने बताया कि शिकार करने वाले दल के अधिकांश लोग जंगल की ओर चले गये हैं.”
एनिशपुरी बताते हैं कि राजनांदगांव के जंगलों में बंदरो का शिकार पिछले कई सालों से चल रहा है. कुछ गांवों में तो शिकारियों को भगाया भी गया है लेकिन गरमी के दिनों में शिकारी जंगल के भीतर सक्रिय रहते हैं.
एनिशपुरी का दावा है कि उन्होंने ताज़ा मामले की जानकारी ज़िला प्रशासन और वन विभाग के आला अधिकारियों को दी.
लेकिन जांच के लिये पहुंचे वन विभाग के कर्मचारियों ने आला अधिकारियों को जानकारी दी की उन्हें मौके पर कुछ मिला ही नहीं.
दावा
मांस सूखाने वाले जंगल से लगे हुये पर्रेमेटा गांव के लोग एक स्वर में दावा करते हैं कि वन विभाग के कर्मचारियों ने शिकारियों से रिश्वत ली और फिर उन्हें भगा दिया.
इसकी शिकायत गांव वालों ने स्थानीय थाने में भी की.
गांव के रामलाल यादव कहते हैं- “मुझे वन विभाग के कर्मचारी अपने साथ रास्ता दिखाने के नाम पर जंगल के भीतर उस जगह ले गये, जहां बंदरों का शिकार करने के बाद मांस सुखाया जा रहा था. वहां वन विभाग के पांच कर्मचारियों ने मौके पर मौजूद दो दर्जन से अधिक शिकारियों को धमकाया और उनसे 10 हज़ार रुपये की रिश्वत लेकर उन्हें मांस समेट कर जल्दी से वहां से भागने का आदेश दिया. “
गांव के पटेल के घर उपस्थित दर्जनों लोगों के बीच आदिवासी सुमेर सिंह ने कहा-“मैंने खुद वन विभाग के कर्मचारियों को रिश्वत लेते देखा है. इसमें छुपाने जैसी कोई बात नहीं है. महुआ बीनने के लिये वहां पहुंचे दूसरे लोगों ने भी यह सब देखा है. वन विभाग के कर्मचारियों ने सभी शिकारियों के नाम पते भी नोट किये और उनकी तस्वीरें भी अपने मोबाइल पर ली थी.”
वन विभाग ने अपने पांच कर्मचारियों को इस मामले में निलंबित कर दिया लेकिन वन्यजीव प्रेमी इसे महज खानापूर्ति मान रहे हैं. वन कर्मचारियों ने पूरी बात घटना के अगले ही दिन रेंजर और एसडीओ को दी थी. लेकिन दोनों अधिकारियों ने मामले को दबाने की कोशिश की. यहां तक कि मामले को उजागर करने वाले रिपोर्टर एनिशपुरी को ही वन अधिकारी द्वारा उल्टे धमकी दी गई.
असल में राज्य में अभी तक वन जीवों के शिकार या उनकी मौत के अधिकांश बड़े मामले अनसुलझे रहे हैं.
राज्य में तीन बाघों के शिकार का मामला हो या बिलासपुर के चिड़ियाघर में 22 हिरणों की संदिग्ध मौत, अब तक किसी मामले में न तो अपराधी की गिरफ्तारी हो सकी है और ना ही किसी को इन शिकार या मौतों के लिये जिम्मेवार ठहराया गया है.
वन संरक्षण के लिये काम करने वाली नेहा सेमुअल का कहना है कि पूरा मामला बेहद संदिग्ध है और इसमें वन विभाग के कर्मचारियों की लापरवाही साफ समझ में आती है. बीबीसी से बातचीत में नेहा सेमुअल ने कहा था कि भारत में बंदरों के मांस के व्यापार का यह बड़ा मामला है. इस मामले में जो भी दोषी हो, उसके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए.
लेकिन वन विभाग को भला इसकी कहां फिक्र है. फिलहाल तो पूरे राज्य भर से लगभग हर दिन जानवरों के शिकार या संदिग्ध मौत की खबरें आ रही हैं. वन विभाग दावे करता है और फिर कागजों में सब कुछ हो जाता है. फर्जी तरीके से दस्तावेज़ बनाने की बेशर्म कोशिश करने वाले वन विभाग के अफसर शिकारों को लेकर कब गंभीर होंगे, यह तो कोई नहीं जानता लेकिन मुख्यमंत्री रमन सिंह, जिनके हिस्से वन विभाग भी है; उनके हिस्से तो बदनामी दर्ज हो ही रही है.