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एनडीटीवी जैसे आलोचकों का मुंह कैसे बंद करें

एनडीटीवी जैसे आलोचनात्मक आवाजों को निशाने पर लेकर सरकार एक गलत संदेश दे रही है. हर शासक चाहते हैं कि उसकी हां में हां मिलाने वाले दरबारी रहें. इससे शासन का काम बेहद आसान हो जाता है. क्योंकि ऐसे में शासक जो निर्णय लेता है बाकी सब उसका गुणगान करने लगते हैं.

सिर्फ बेवकूफ लोग ही सवाल पूछ सकते हैं या आलोचना कर सकते हैं. क्योंकि ऐसा करने पर क्या होगा, यह उन्हें मालूम है. यह कोई कल्पना भले ही लग रही हो लेकिन सच्चाई यह है कि भारतीय लोकतंत्र इसी ओर बढ़ रहा है. नरेंद्र मोदी सरकार के सत्ता में आने के तीन सालों के अंदर टेलीविजन समाचार चैनलों की स्थिति यह हो गई कि वे सरकार का गुणगान करते रहें और जो थोड़ा-बहुत विपक्ष बचा है, उसे खत्म करने की कोशिश करते रहें.

एनडीटीवी यहीं कम पड़ गया. वह दूसरों से अलग खड़ा रहा. इस बारे में बहुत चर्चा चल रही है कि 5 जून को एनडीटीवी के संस्थापक और मालिक प्रणव रॉय और राधिका रॉय के ठिकानों पर की गई छापेमारी प्रेस की आजादी पर हमला है. हालांकि, 2009 से ही एनडीटीवी के आर्थिक मामलों की जांच चल रही है लेकिन इसके बावजूद यह बड़ा अजीब है कि एक प्राइवेट व्यक्ति की शिकायत पर एक प्राइवेट बैंक से जुड़े मामले में सीबीआई सीधे छापेमारी पर उतर जाती है. छापेमारी के लिए चुना गया वक्त और जिन लोगों के खिलाफ यह कार्रवाई की गई, वह कई तरह के सवाल खड़े करता है.

यह सही है कि पिछली सरकारों ने सीबीआई का इस्तेमाल किया है. मीडिया समूहों के खिलाफ भी ऐसा हुआ है. लेकिन यह सरकार जो कर रही है, उसमें एक पैटर्न है. सरकार ऐसा करके एक तरफ अपने विरोधियों को दागदार बना रही है तो दूसरी तरफ जो आवाज उठा रहे हैं और ऐसा करने की सोच रहे हैं, उन्हें डराने की कोशिश भी कर रही है.

निशाने पर विपक्ष के नेता, मानवाधिकार कार्यकर्ता, गैर सरकारी संगठन और मीडिया समेत हर वैसा व्यक्ति है जो सरकार की आलोचना करता हो. मीडिया की आजादी की पैरोकारी के पक्ष में बोलते हुए सरकार थकती नहीं है. लेकिन हमला करने से भी बाज नहीं आ रही. बचाव में वित्तीय विश्वसनीयता का तर्क ले आती है.

इस झांसे में वैसे लोग आ भी जाते हैं जिन्हें यह बताया गया है कि सरकार की आलोचना करने वाली मीडिया अविश्वसनीय है, झूठ फैलाने वाली है या फिर उसका एक खास एजेंडा है. छापेमारी से कुछ दिनों पहले एनडीटीवी पर भारतीय जनता पार्टी के एक प्रवक्ता ने इस चैनल पर यह आरोप भी लगाया था कि उसका एक एजेंडा है.

मीडिया मालिकों पर दबाव डालने के अलावा इस सरकार ने पत्रकारों में भी भय पैदा करना शुरू कर दिया है. एनडीटीवी इंडिया के रविश कुमार ने छापेमारी के एक दिन बाद अपने एक बेहतरीन कार्यक्रम में यह बताया कि कैसे राष्ट्रीय राजधानी और दूसरे जगह के पत्रकारों को यह मालूम है कि उन पर नजर रखी जा रही है और वे डरे हुए हैं.

अगर लगता है कि वे आलोचना कर सकते हैं तक खबर के स्रोतों तक वे नहीं पहुंच पाएं, इसका बंदोबस्त किया जा रहा है. दिल्ली और कुछ राज्यों के सत्ता के गलियारों में भी इस बारे में डर बना हुआ है. मीडिया को चुप कराने का यह तरीका भी उतना ही प्रभावी है जितना प्रत्यक्ष सेंसरशिप.

इन वजहों से ऐसा लग रहा था कि एनडीटीवी को निशाना बनाने का बहुत मजबूती से विरोध होगा. इसके बावजूद इस सरकार के एजेंडे को समझने वालों में भी एकजुटता का अभाव स्पष्ट तौर पर दिख रहा है. कुछ अपवादों को छोड़ दें तो मीडिया समूह एनडीटीवी का साथ इस डर से नहीं दे रहे हैं कि उन पर भी कार्रवाई हो सकती है.

EPW
economic and political weekly

एडीटर्स गिल्ड ने चैनल का समर्थन किया है. मीडिया के बाहर के वैसे लोग भी इसका साथ नहीं दे रहे हैं जो यह समझते हैं कि छापेमारी एक खास एजेंडे के तहत की गई है. क्योंकि ये मानते हैं कि जब पहले दूसरे मीडिया समूहों पर हमले हुए तो एनडीटीवी ने उनका साथ नहीं दिया.

यह बात भी सामने आ रही है कि बड़े शहर का चैनल होने की वजह से एनडीटीवी के मामले पर तो सबका ध्यान गया लेकिन जम्मू कश्मीर और पूर्वोत्तर में जब सरकारें किसी मीडिया समूह के खिलाफ कार्रवाई करती हैं या किसी पत्रकार के खिलाफ कार्रवाई करती है तो हर ओर खामोशी बरती जाती है.

भारतीय मीडिया पूरी तरह से बंटा हुआ है. इसी वजह से सत्ता में बैठे लोगों को यह छूट मिलती है कि वे मीडिया का इस्तेमाल अपने लिए प्रोपगैंडा करने में करें. हम यह सब होता हुआ एक बार फिर से देख रहे हैं.

एनडीटीवी पर सीबीआई छापेमारी के बाद कई लोगों ने इसकी तुलना 1975 में इंदिरा गांधी द्वारा प्रेस पर थोपी गई सेंसरशिप से की. हालांकि, अभी की स्थिति अलग है लेकिन भाजपा को उस दौर से कुछ सीखना चाहिए. इंदिरा गांधी को सेंसरशिप थोपने की राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ी. उन्होंने सेंसरशिप के तहत काम करने वाली मीडिया पर भरोसा किया और उनकी नीतियों की वजह से गरीबों पर क्या असर पड़ रहा है, इसका उन्हें पता तक नहीं चला.

उन्होंने खुफिया एजेंसी पर भी काफी भरोसा किया. इन एजेंसियों ने उन्हें आश्वस्त करा दिया था कि उनकी नीतियों से जनता खुश है और 1977 का चुनाव आप जीत रही हैं. इन सबके बावजूद 1977 में इंदिरा गांधी हारीं. गरीबों ने उनके खिलाफ मतदान किया. यह विडंबना ही है कि उनकी हार ने भाजपा को जनता पार्टी के एक हिस्से के तौर पर केंद्र की राजनीति में एक जगह दी.

इतिहास कभी-कभार खुद को दोहराता है. इंदिरा गांधी की तरह भाजपा भी ‘पालतू’ मीडिया पर यकीन कर रही है और जो उसका विरोध कर रहे हैं उन्हें चुप कराने में लगी है.

इतिहास बताता है कि ऐसे काम की एक राजनीतिक कीमत होती है. कुछ लोगों को यह लग सकता है कि जिस तरह से भाजपा शासित राज्यों में किसानों का आंदोलन उग्र रूप ले रहा है, वह मनमाफिक मीडिया द्वारा शासकों में पैदा की गई दृष्टिहीनता का ही नतीजा तो नहीं है.
1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक के संपादकीय का अनुवाद

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