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लोक परिसम्पत्तियां बेचने को उतावली सरकार

संदीप पांडेय
16वीं लोक सभा की 2017-18 की संसदीय रक्षा समिति ने भारत में ही अभिकल्पित, विकसित व निर्मित की अवधारणा पर जोर दिया. समिति ने रक्षा अनुसंधान एवं विकास संस्थान, आर्डनेंस कारखाने व रक्षा विभाग से सम्बद्ध सार्वजनिक उपक्रमों में निर्मित एवं विकसित उपकरणों में आयात के अंश पर चिंता प्रकट की, जिसकी वजह से सेना के उपकरणों के लिए हमें विदेशी कम्पनियों पर निर्भर रहना पड़ता है.

2013-14 में आर्डनेंस कारखानों का आयात अंश 15.15 प्रतिशत था, जो 2016-17 में घट कर 11.79 प्रतिशत पर आ गया. रक्षा विभाग के अन्य बड़े सार्वजनिक उपक्रमों जैसे हिन्दुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड, भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड व भारत डायनामिक्स लिमिटेड की तुलना में आर्डनेंस कारखानों का आयात अंश कम है, जो दर्शाता है कि उसने प्रयासपूर्वक उपकरणों के निर्माण में लगने वाले पुर्जों को खुद विकसित किया है और यह स्थिति बरकरार रखी है.

आर्डनेंस कारखाने विभिन्न किस्म के टैंक, लड़ाकू वाहन, बंदूकें, रॉकेट लांचर, आदि चीजों का उत्पादन करते हैं. पाकिस्तान के साथ 1947, 1965, 1971 व 1999 के युद्धों में तथा चीन के साथ 1962 के युद्ध में आर्डनेंस कारखानों ने भारतीय सेना के लिए अच्छी सहयोगी भूमिका निभाई.

रक्षा मंत्रालय की सभी ईकाइयों में आर्डनेंस कारखानों का बजट 2019-20 में कुल रु. 2,01,901.76 करोड़ में से सिर्फ रु. 50.58 करोड़ था क्योंकि आर्डनेंस कारखाने अपने खर्च का बड़ा हिस्सा सामान बना कर उसे थल सेना, नौ सेना व वायु सेना को बेच कर पूरा कर लेते हैं. ये आर्डनेंस कारखानों की कार्यकुशलता का अच्छा प्रमाण है.

भूतपूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वी.पी. मलिक इस बात के लिए आर्डनेंस कारखानों की तारीफ कर चुके हैं कि कारगिल युद्ध में उन्होंने अपनी क्षमता से दोगुणा उत्पादन कर जरूरी हथियार व उपकरण उपलब्ध कराए जबकि निजी कम्पनियों से जो सामान मांगा गया था उसकी समय से आपूर्ति नहीं हुई.

नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार के मुताबिक दूसरी नरेन्द्र मोदी की सरकार में एक सौ दिनों का तेजी से आर्थिक सुधारों का कार्यक्रम लिया गया है जिसके तहत सार्वजनिक उपक्रमों का विनिवेश किया जाएगा व जिन विभागों को अभी तक नहीं छुआ गया है, जैसे आर्डनेंस काखाने को कम्पनी के रूप में तब्दील किया जाएगा.

वे इस बात को छुपाते नहीं कि विदेशी कम्पनियां इस बात से बहुत खुश होंगी कि सरकार के पास जो अतिरिक्त जमीनें हैं उन्हें वे खरीद सकती हैं क्योंकि इनमें उन्हें किसानों के विरोध का सामना नहीं करना पड़ेगा. आर्डनेंस कारखानों के पास ही सिर्फ 60,000 एकड़ जमीन है. इसी अवधि में 40 से ऊपर सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण हो जाएगा अथवा वे बंद हो जाएंगे. विदेशी पूंजी निवेश हेतु सीमा हटा ली जाएगी ताकि एअर इण्डिया जैसे ईकाइयों को बेचा जा सके जिसे पिछली सरकार के दौरान तमाम कोशिशों के बावजूद बेचा न जा सका.

आर्डनेंस कारखाने अपनी क्षमता से कम पर काम करते हैं ताकि युद्ध के समय जरूरत पड़ने पर उत्पादन तीन गुणा बढ़ाया जा सके. किंतु कोई निजी कम्पनी यह नहीं कर पाएगी. बल्कि ऐसे बाजार में जहां खरीदार सिर्फ सरकार है, सरकार को इन्हें चलाने के लिए इनसें अनावश्यक सामान बनवाने पड़ेंगे, या इन कम्पनियों को जिंदा रखने के लिए सीधे पैसा देना पड़ेगा अथवा एक कृत्रिम युद्ध की स्थिति का निर्माण करना पड़ेगा, जो तीनों ही स्थितियां देश हित में नहीं हैं.

कॉम्पट्रोलर व ऑडिटर जनरल की कारगिल युद्ध की आख्या बताती है कि रु. 2,150 करोड़ का सामान जो देशी-विदेशी कम्पनियों से मंगाया गया था, जुलाई 1999 में युद्ध खत्म होने के बाद आया, बल्कि इसमें से रु. 1,762.21 का सामान तो युद्ध खत्म होने के छह माह बाद आया.

आपातकाल जैसी स्थिति में नियमों को शिथिल करने से सरकार को रु. 44.21 करोड़ का नुकसान हुआ, रु. 260.55 करोड़ का सामान गुणवत्ता के मानकों को पूरा नहीं कर रहा था, रु. 91.86 करोड़ का गोली-बारूद पुराना हो चुका था, रु. 107.97 करोड़ की खरीद अनुमति से ऊपर हुई थी और रु. 342.47 करोड़ का गोली-बारूद जो आयात किया गया था, वह आर्डनेंस कारखानों के भण्डार में था. इससे निजी कम्पनियों के बारे में गुणवत्ता व कार्यकुशलता को लेकर जो छवि बनी हुई है उसकी पोल खुलती है.

उपर्युक्त से यह भी संकेत मिलता है कि निजीकरण से भ्रष्टाचार की नई सम्भावनाएं खुल जाती हैं. केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो ने इंग्लैण्ड की कम्पनी रोल्स-रायस के खिलाफ हिन्दुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड से सौ सौदों में निदेशक अशोक पटनी के माध्यम से सिंगापुर की आशमोर कम्पनी, जो वाणिज्यिक सलाहकार नियुक्त की गई थी, को रु. 18.87 करोड़ घूस देने का मुकदमा दर्ज किया है. जबकि रोल्स-रायस व हिन्दुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड के बीच ईमानदारी से व्यापार करने का एक करार हुआ था.

सरकार के निवेश एवं लोक परिसम्पत्ति प्रबंधन विभाग, जिसका नाम भ्रमित करने वाला है, का काम है सार्वजनिक परिसम्पत्तियां बेचना. जब परिसम्पत्तियां बिक ही जाएंगी तो प्रबंधन किस चीज का होगा? किसान से जो जमीन बहुत पहले किसी सार्वजनिक उद्देश्य के लिए ली गई थी, कई बार बिना कोई मुआवजा दिए सिवाए खेत में खड़ी फसल का, वह अब विनिवेश के नाम पर निजी कम्पनियों को कौड़ियों के दाम बेची जाएगी.

इस वर्ष के शुरू में हिन्दुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड से सरकार ने कुल रु. 2,423 के दो भुगतान कराए, जिससे अपने इतिहास में पहली दफा इस उपक्रम को अपने कर्मचारियों को वेतन देने के लिए कर्ज लेना पड़ा.

जीवन बीमा निगम, जिसके पास भारत में जीवन बीमा का दो तिहाई हिस्सा है और जिसे अब सार्वजनिक कम्पनी बनाया जा रहा है, को 2014-18 के दौरान केन्द्र सरकार द्वारा अपना विनिवेश का लक्ष्य पूरा करने के लिए रु. 48,000 करोड़ खर्च करने के लिए मजबूर किया गया. 2018-19 में अपने लक्ष्य रु. 80,000 के सापेक्ष सरकार ने रु. 84,972.16 करोड़ एकत्र किया. 2018-19 में सरकार द्वारा रु. 90,000 का विनिवेश लक्ष्य तय किया गया है.

जीवन बीमा निगम को सरकार द्वारा घाटे में चल रहे समूचे बैंक इण्डस्ट्रियल डेवलेपमेण्ट बैंक ऑफ इण्डिया को खरीदने के लिए मजबूर किया गया जिसके पास 28 प्रतिशत ऐसा ऋण था, जो माफ किया जा चुका था. अतः स्पष्ट है कि जब सरकार को कोई विदेशी पूंजी निवेश आता दिखाई नहीं पड़ता तो वह सरकारी कम्पनियों को ही विभिन्न उपक्रमों में निवेश करने के लिए कहती है.

नरेन्द्र मोदी ने एक से ज्यादा बार यह कहा है कि वे एक गुजराती होने के नाते पैसे का प्रबंधन कैसे करना है, उसे बखूबी जानते हैं. जब वे गुजरात के मुख्य मंत्री थे तो सरकारी बैंक से रु. 20,000 करोड़ ऋण लेकर गुजरात राज्य पेट्रोलियम कार्पोरेशन नामक कम्पनी का गठन हुआ. जब वे प्रघान मंत्री बने तो इस कम्पनी का ऋण भुगतान करने के लिए उसे आयल एण्ड नैचुरल गैस कमीशन से रु. 8,000 करोड़ में क्रय करवाया और अब ऋण भुगतान की जिम्मेदारी ओ.एन.जी.सी. की हो गई.

सरकार एक ऐसी स्वायत्त कम्पनी बनाने की सोच रही है जिसके अंतर्गत सभी सार्वजनिक उपक्रम आ जाएंगे और परिसम्पत्तियां बेचने के मामले में वह नौकरशाही के प्रति जवाबदेह नहीं रहेगी. तब सरकार पूरी निर्लज्जता से लोक परिसम्पत्तियां बेचने के लिए स्वतंत्र हो जाएगी.

अब जबकि प्रसिद्ध अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज ने प्रधान मंत्री की यह बात झूठी साबित कर दी है कि जम्मू व कश्मीर से अनुच्छेद 370 व 35ए हटाने से वहां विकास होगा, क्योंकि मानव विकास मानदण्डों में जम्मू-कश्मीर भारत के कई राज्यों, जिनमें गुजरात भी शामिल है, से कहीं आगे है. ऐसा प्रतीत होता है कि जम्मू व कश्मीर का दर्जा राज्य से कम कर केन्द्र शासित क्षेत्र बना देने के पीछे दो गुजराती दिमागों में यह बात जरूर रही होगी कि उनके कदम से जम्मू-कश्मीर की 2.2 करोड़ हेक्टेयर जमीन उनके गुजराती व अन्य पूंजीपति मित्रों के खरीदने के लिए खुली हो जाएगी.

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