मैडिसन स्क्वॉयर के बाद?
नई दिल्ली | विशेष संवाददाता: प्रधानमंत्री मोदी ने यूएन महासभा तथा मैडिसन स्क्वॉयर में भारत के झंडे गाड़ दिये हैं. सवाल अगले दो दिनों का है जब प्रधानमंत्री मोदी अमरीका राष्ट्रपति बराक ओबामा तथा वहां के नैगम घरानों के सीईओ से मिलेंगे. जाहिर है कि पिछले दो दिनों से प्रधानमंत्री मोदी जो कुछ कर रहें हैं उसमें उन्हे महारत हासिल है यह उन्होंने लोकसभा चुनाव के समय ही साबित कर दिया था.
26 तारीख को न्यूयार्क पहुंचने के बाद उन्होंने 27 तारीख को यूएन महासभा में पाक प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ द्वारा कश्मीर के मुद्दे पर जनमत संग्रह कराने की मांग की धज्जिया उड़ाकर रख दी. प्रधानमंत्री मोदी ने साफ कर दिया कि यह 21वीं सदी है तथा कश्मीर के मुद्दे को द्विपक्षीय वार्ता के तहत ही हल किया जा सकता है. जिसके लिये पाकिस्तान को अनुकूल वातावरण बनाना पड़ेगा. इस प्रकार से प्रधानमंत्री मोदी ने नवाज़ शरीफ़ की गेंद उन्हीं के पाले में डाल दी है.
उसी तरह से 28 तारीख को भी प्रधानमंत्री मोदी के मैडिसन स्क्वॉयर के भाषण को सुनने के लिये करीब 50 अमरीकी सांसद भी पहुंचे. प्रधानमंत्री मोदी ने जिस तरह से अपने सरकार के कामकाज की व्याखा की उससे साफ था कि उनकी योजना भारत को 21वीं सदी में एशिया तथा दुनिया का अग्रणी देश बनाना है. उल्लेखनीय है कि मोदी के भाषण को मैडिसन स्क्वॉयर के अलावा अमरीका के अन्य स्थानों तथा सारे भारत में टीवी के माध्यम से देखा, सुना तथा समझा गया.
प्रधानमंत्री मोदी की असल परीक्षा 29 तथा 30 सितंबर के अनके कार्यक्रम के दौरान होगी जब अमरीकी महाकाय कंपनियों के सीईओ तथा राष्ट्रपति बराक ओबामा सहित अमरीकी प्रसासन के दिग्गज उनसे मिलेंगें. जिस प्रकार से प्रधानमंत्री मोदी के पास अपना अमरीकी एजेंडा है कि जापान तथा चीन की तरह ही वहां से भी निवेश को आकर्षित किया जाये. उसी तरह से अमरीकी प्रशासन भी अपने हितों को भारत में बरकरार रखने के लिये कोई कसर नहीं छोड़ेगा.
अमरीका के हितों की सूची अत्यंत लंबी है तथा इसमें कृषि, सेवा, दवा, रक्षा, निवेश, सैन्य, व्यापार के मुद्दे शामिल हैं. इनमें से दवा का मुद्दा सीधे तौर पर भारत के अलावा करीब 60 विदेशी देशों को भी प्रभावित करेगा. आज भारत को विश्व की फार्मेसी कहा जाता है. भारत से निर्यात होने वाल सस्ते तथा उच्च गुणवत्ता वाले एड्स की दवाओं की बदौलत ही कई अफ्रीकी तथा स्वंय अमरीकी जनता जी पा रहीं हैं.
भारत से जब सिपला नामक दवा कंपनी ने अमरीका में एड्स की दवाओं को वहां से 10 गुने कम कीमत पर निर्यात करना शुरु किया तब जाकर अमरीकी कंपनियों को अपने एड्स के दवाओं के दाम कम करने पड़े थे. इसे अलावा भी करीब 159 छोटे-बड़े देशों को भारत से दवा का निर्यात किया जाता है. यह भारतीय दवाएं ही हैं जो अमरीकी दवा कंपनियों की आखों की किरकिरी बनी हुआ हैं. इन सब के नेपथ्य में भारतीय कानून हैं जो, भारतीय दवा कंपनियों को सस्ती दवा बनाने तथा बेचने की इजाजात देता हैं.
उल्लेखनीय है कि भारत में रक्त कैंसर की दवा ग्लीवेक को स्विस कंपनी नोवार्टिस महंगे दामों पर बेचती रही है. एक प्रकार के रक्त कैंसर क्रॉनिक मेलायड ल्यूकेमिया की दवा है इमानिटिब मीसिइलेट है जिसे ग्लीवेक के ब्रांड नाम से बेचा जाता था. इस दवा के एक माह के खुराक की कीमत 1लाख 20हजार रुपये पड़ती थी. जिसे भारतीय दवा कंपनी नेटको ने 10हजार रुपयों में बेचना शुरु कर दिया था. इस भारतीय दवा कंपनी के खिलाफ स्विस दवा कंपनी ने लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी तथा अंत में जाकर 1 अप्रैल को सर्वोच्य न्यायालय ने रक्त कैंसर की दवा का पेटेंट अधिकार देने से स्विस कंपनी को इंकार कर दिया.
अब हमारे देश में रक्त कैंसर की दवा विदेशी कंपनी की तुलना में सस्ते में मिल जाया करती हैं. बाद में कुछ और भारतीय कंपनियों ने इसे और सस्ते में बेचना शुरु कर दिया.
इसी प्रकार से मामला जर्मन महाकाय दवा कंपनी बायर का है. 12 मार्च 2012 को भारतीय पेटेंट कार्यालय ने किडनी एवं लीवर कैंसर की दवा सोराफेनिब टोसायलेट को बेचने का अधिकार हैदराबाद की भारतीय दवा कंपनी नेटको को भी दे दिया. इससे पहले इस दवा की बिक्री पर जर्मन महाकाय दवा कंपनी बायर का एकाधिकार था. बायर कंपनी किडनी एवं लीवर कैंसर की इस दवा को भारत में नेक्सावार के ब्रांड नेम से बेचती रही थी. किसी मरीज के लिये इसके एक माह की खुराक की कीमत थी- दो लाख अस्सी हजार चार सौ अट्ठाइस रुपये.
अब इसे भारतीय कंपनी नेटको 8800 रूपये में उपलब्ध करवा रही है. भारतीय पेटेंट कार्यालय ने बौद्धिक संपदा कानून का विश्व व्यापार संगठन के माध्यम से अंर्तराष्ट्रीयकरण होने के पश्चात पहली बार अनिवार्य लायसेंसिंग अधिकार का उपयोग किया. इससे पहले यह काम केवल थाईलैंड ने ही किया था.
इस प्रकार से भारतीय पेंटेट कानून विदेशी तथा अमरीकी दवा कंपनियों के मुनाफे के राह का कांटा बना हुआ है. अमरीका चाहता है कि भारत इस कानून में बदलाव करे जिससे अमरीकी कंपनियों को अपनी महंगी दवाओं के लिये भारत जैसे विशाल बाजार में पैठ बनाने का मौका मिल जाये. इसी कारण से अमरीकी व्यापार प्रतिनिधी ने मई 2014 में भारत को उन देशों की सूची में डाल दिया जिसके पेटेंट कानून से अमरीकी हितों को नुकसान पहुंचता है. गौरतलब रहे कि यूएस ट्रेड रिप्रेजेंटेटिव को व्यापार के मामलों में अमरीकी राष्ट्रपति से भी ज्यादा अधिकार हासिल है.
जाहिर सी बात है कि प्रधानमंत्री मोदी के सामने इस सवाल को उठाया जा सकता है. ऐसे में विदेशी निवेश के लिये रेड कॉर्पेट बिछाने की बात करने वाले भारतीय प्रधानमंत्री का इस पर क्या रुख होता है इस पर भारत के अलावा उन देशों तथा उनके मरीजों की नजर है जो भारत के सस्ते दवाओँ के भरोसे जी रहें हैं.
उल्लेखनीय है कि अमरीकी दवा कंपनियों का अमरीकी प्रशासन पर अच्छी पकड़ है. यह इस बात से भी साबित हो जाता है कि अमरीकी दवा कंपनी फायजर तथा केमिकल कंपनी मोनसांटो ने बैद्धिक संपदा या पेटेंट कानून, कृषि एवं सेवा के क्षेत्र को डंकल प्रस्ताव के माध्यम से विश्व व्यापार संगठन में शामिल करवाया था.