विदेशी कंपनियों की दादागिरी शुरु
जेके कर
कॉरोनरी स्टेंट के दाम के मामले में विदेशी कंपनियां दादागिरी पर उतर आई है. केन्द्र सरकार द्वारा हृदय की वाहिनियों में लगाये जाने वाले साधारण स्टेंट तथा दवा की कोटिंग वाले स्टेंट वाले स्टेंट पर मची लूट को खत्म करने के लिये उसका अधिकतम मूल्य तय कर दिया गया है. उसके बाद इन्हें बनाने वाली कंपनियों ने दवा की कोटिंग वाले स्टेंट तथा घुलनशील स्टेंट को बाजार से उठा लिया है. तर्क दिया जा रहा है कि उनके दाम की फिर से लेबलिंग करने के लिये उन्हें बाजार से वापस मंगा लिया गया है. उल्लेखनीय है कि 13 फरवरी, 2017 को गजट नोटिफिकेशन के द्वारा केन्द्र सरकार के औषध विभाग ने बेयर मेटल से बने कॉरोनरी स्टेंट का अधिकतम मूल्य 7,260 रुपये तथा ड्रग कोटिंग एवं बाद में घुल जाने वाले कॉरोनरी स्टेंट का अधिकतम मूल्य 29,600 रुपये तय कर दिया है.
गौरतलब है कि जब भी दवा के दाम कम होते हैं या बढ़ाये जाते हैं तो सप्लायर्स तथा थोक विक्रेताओं के यहां ही नया लेबल भेजकर चिपका दिया जाता है. जाहिर है कि दवा को वापस मंगाना महंगा पड़ता है. लेकिन स्टेंट बनाने वाली कंपनियों ने इन्हें बाजार से ही वापस मंगाना शुरु कर दिया है. जाहिर है कि जिस स्टेंट को 1.5 से 2 लाख रुपयों में बेचा जाता था उसका मूल्य 29 हजार 600 सौ रुपये तय कर दिये जाने के खिलाफ विरोध स्वरूप इसे किया जा रहा है.
खबरों के अनुसार मुंबई के लीलावती अस्पताल से घुलनशील स्टेंट वापस मंगा लिये गये हैं. वहां के डॉक्टरों का कहना है कि अब हमें मरीजों को सिंगापुर या दुबई भेजना पड़ेगा. कमोबेश यही स्थिति देश के अन्य अस्पतालों में भी उत्पन्न कर दी गई है.
साफ समझ में आ रहा है कि स्टेंट बनाने वाली विदेशी कंपनियां भारत में इन जीवनरक्षक दवाओं की नकली कमी की स्थिति निर्मित करके सरकार पर दबाव बना रही है. हालांकि, कंपनियों ने साधारण स्टेंट को वापस नहीं मंगाया है जिससे जाहिर होता है कि वे सरकार को जतलाना चाहते हैं कि सस्ता इलाज चाहिये तो पुरानी बेयर मेटल की बनी स्टेंट का उपयोग करें. इस तरह से विदेशी कंपनियां तय करेंगी कि भारतीय मरीज का इलाज कैसे हो.
दरअसल, हृदय की वाहिनियों में अवरोध उत्पन्न होने पर वहां पर एक मेटल का बना स्टेंट लगा दिया जाता था. बाद में देखा गया कि सालभर बाद इसी स्टेंट के कारण हृदय की रक्त वाहिनियां क्षतिग्रस्त हो जाती हैं. इसलिये उन पर दवा की कोटिंग वाले तथा कुछ समय बाद घुल जाने वाले कॉरोनरी स्टेंट बनाया जाने लगा.
अब सरकारी तंत्र को इऩ स्टेंट बनाने वाली कंपनियों से जूझना पड़ेगा. वैसे जब केन्द्र सरकार ने कॉरोनरी स्टेंट का दाम तय किया तभी यह शर्त लगी दी कि वर्तमान में जो इन स्टेंट का उत्पादन कर रहें हैं या विदेशों से आयात कर रहें हैं वे बिना 6 माह की नोटिस दिये बिना इसे बंद या रोक नहीं सकते हैं. इसके बावजूद कॉरोनरी स्टेंट बनाने वाली कंपनियां वही काम कर रही है.
किसी को यदि दवा कंपनियों के ताकत का अंदाजा नहीं है तो जान ले कि पेटेंट कानूनों के जरिये विश्व के दवा बाजार में कब्जा बनाये रखने के लिये डंकल प्रस्ताव के माध्यम से पेंटेंट कानूनों का जो वैश्वीकरण किया गया, जिसके तहत हमारे देश में भी 1970 में बने पेटेंट कानून को 1995 में बदलना पड़ा था, उसे लागू करवाने के पीछे दो अमरीकी कंपनियों फायजर तथा मोनसांटों का ही हाथ था. आरोप है कि चिली के राष्ट्रपति अलेंदे की जब हत्या की गई थी तो उसके लिये एक अमरीकी दवा कंपनी ने ही धन मुहैय्या करवाया था.
आपको जानकर हैरत होगी कि दूसरे विश्व युद्ध के समय हिटलर के गैस चेंबर में जिस गैस का उपयोग लोगों को मारने के लिये किया जाता था, उस Zyklon B को नामक दवा एवं कीटनाशक बनाने वाली कंपनी IG Farben बनाकर हिटलर को सप्लाई किया करती थी. दूसरे विश्व युद्ध के बाद इस कंपनी के 12 निदेशकों को न्यूरेमबर्ग की अंतर्राष्ट्रीय अदालत ने 29 जुलाई 1948 को सजा दी थी. इसके बाद इस IG Farben कंपनी को तोड़कर Bayer, Hoechst तथा BASF बना दिया गया. माना जा रहा था कि यदि इस कंपनी को बने रहने दिया गया तो यह तीसरा विश्व युद्ध छेड़वा देगा. सजा काटने के बाद उनमें से फिर कुछ Bayer में निदेशक बन गये थे.
यहां पर इस बात का उल्लेख अवश्य किया जाना चाहिये कि जब डोनाल्ड रम्शफील्ड अमरीका के रक्षा मंत्री बने तो उनकी कंपनी ‘गिलेड लाइफ साइंसेस’ के पौ बारह हो गये थे. यह कंपनी बर्ड फ्लू की दवा टेमीफ्लू बनाती है. जिसे रोश नामक मल्टीनेशनल दवा कंपनी बेचती है. रम्शफील्ड के अमरीका के रक्षा मंत्री बनने के बाद पूरी दुनिया में बर्ड फ्लू का हौवा खड़ा कर दिया गया. करीब 60 देशों की सरकारों ने बर्ड फ्लू की दवा टैमिफ्लू का भारी ऑर्डर दिया. जिससे रम्शफील्ड ने शेयर बेचकर ही 5 मिलियन अमरीकी डॉलर कमा लिये. जबकि दुनियाभर के वायरोलाजिस्ट चीख-चीखकर ऐलान कर रहे थे कि बर्ड फ्लू, बर्डो की बीमारी है. इसके मानवों में महामारी बनने की कोई संभावना नहीं है.
उपरोक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि दवा कंपनियों के लिये मुनाफा ही सब कुछ है. यही उनका अंतिम लक्ष्य है. वे हरगिज भी भारत के हृदय रोगियों को राहत नहीं पहुंचाना चाहते हैं. वे तो आते हैं अपना माल बेचने. जब दाम कर करने की बारी आई तो पीछे हट गये. टैक्स या ब्याज बढ़ाओ तो वापस जाने लगते हैं. इनके मुंह में मुनाफे का खून लग चुका है जिससे निजात पाना सहज नहीं होगा.
आज यदि हमारे देश में ऐसी सरकारी कंपनी होती जो सभी प्रकार के कॉरोनरी स्टेंट बनाती तो विदेशी कंपनियां हमें ब्लैकमेल नहीं कर सकती थी. जब हम अंतरिक्ष में एक साथ 104 उपग्रह भेजकर दुनिया के सरताज बन सकते हैं तो क्यों नहीं कॉरोनरी स्टेंट का देश की जनता के लिये निर्माण कर सकते हैं. यहां पर सवाल सरकार की प्राथमिकता का है. सरकार की प्राथमिकता में जनस्वास्थ्य पहले है या नहीं?