तुम ग़ालिब हो फक्कड़ गांधी
कनक तिवारी | फेसबुक
27 दिसम्बर को ग़ालिब अपने जन्मदिन में फिर प्रवेश कर रहे हैं. इंसानी सरोकारों से सराबोर शायरी के लगभग सबसे अप्रतिम हस्ताक्षर की याद करने का यह दिन है. नज़्मुद्दौला, दबीरुल मुल्क असदुल्ला खान बहादुर निज़ाम-ए-जंग केवल भारतीय वांड्मय नहीं विश्व साहित्य के अमरतम उन अक्षर साधको में एक हैं जिनके लेखे इंसानी संवेदनाओं से बढ़कर कोई स्वर्ग नहीं है.
ग़ालिब ने उन्नीसवीं सदी की भोर के पहले जन्म लिया था. तब टूटती सरहदों वाली भूगोल और सिमटती यादों वाले इतिहास का जखीरा अपनी चेतना के कंधों पर उन्होंने पाया था. मिर्ज़ा बेलौस होकर अक्षरों और अभिव्यक्ति के बियाबान में घूमते रहे. मूल्यहीनता, अनिर्णय और घना कुहासा उर्दू शायरी का उन दिनों लिहाफ था.
यह बात भी उतनी ही सच है कि उनके कुछ समकालीन बड़े हस्ताक्षर ज़ौक, मोमिन, मीर आदि इस अंधकार के खिलाफ बाकायदा मशालें हाथ में लेकर लड़ भी रहे थे. इन सबके साथ और इनके बीच ग़ालिब एक ऐसा अनोखापन लिए हुए आए, जो बेमिसाल है. उनका सूफियाना अंदाज, निष्कपट बल्कि सपाट अभिव्यक्ति, गहरे द्वन्द्वात्मक अर्थ, मौलिक बिंब संयोजन, नैसर्गिक मुहावरों का प्रजनन और पृष्ठभूमि में किसी महामानव की बाहों जैसी विस्तृत इंसानी संवेदनाएं कुल मिलाकर स्वप्नलोक का सृजन करती रहीं. उसमें पीड़ा और आनंद, कल्पना और भावना, चित्रण और अनुभूति का गहरा सामंजस्य था. कलम का प्रत्येक सिपाही अपनी विशिष्टता लिए ही आता है. ग़ालिब इनमें भी बेजोड़ और लाजवाब थे.
उनकी गज़लों और नज़्मों में जैसे एक साथ रूमानी छेड़छाड़, गुदगुदी और मृत्युंजय ताकतों का फलसफाई अंदाज दूध और पानी की तरह घुल मिल गया है. समकालीन कविता में गुण हो न हो, ग़ालिब सर्वकालिक, सर्वजमीन और सर्वसुलभ शायर हैं. ग़़ालिब अद्वितीय गद्यकार भी थे. उनकी प्रज्ञा, करुणा और संवेदनशीलता के दायरे में पूरी मनुष्यता का एक एक तेवर आ जाता है.
गांधी को ग़ालिब की एक ग़ज़ल रेहाना तैयबजी ने भेजी थी. वह गांधी को समझ नहीं आई. उन्होंने रेहाना तैयबजी को 16 अगस्त 1932 को पत्र लिखा कि उन्हें ग़ालिब की ग़ज़ल पत्र लिखकर समझा दें. गांधी ने कहा कि वे ग़ज़लें क्या होती हैं-समझते हैं, भले ही हर शब्द समझ नहीं आए. 22 अगस्त 1992 को फिर लिखा कि उन्हें रेहाना द्वारा भेजी द़ाग की ग़ज़ल बहुत पसंद आई लेकिन रेहाना ने ग़ालिब की ग़ज़ल को समझाने के लिए अपनी मां को तकलीफ क्यों दी!
पूरे गांधी साहित्य में व्यापक उर्दू शायरी को लेकर ऐसा कोई आधिकारिक उल्लेख नहीं मिलता जिस पर टिप्पणी करने की ज़रूरत हो. इसके बावजूद ग़ालिब की धर्मनिरपेक्षता, सूफी दार्शनिक दृष्टि और आम आदमी की जिजीविषा को अपने साहित्य सृजन का प्रमुख मुद्दा बना लिए जाने की पूरी शैली अंततः गांधी की भी तो शैली है. ये दोनों हस्ताक्षर खुद को छोड़कर औरों के लिए ही जीते रहे. अपने व्यक्तित्व को दूसरों के लिए क्षतिग्रस्त कर देने की हद तक दोनों अकृपण बने रहे. ऐसे व्यक्तित्व टूटते थोड़े ही हैं. वे तो इतिहास का निर्माण करते हैं.
ग़ालिब भारतीय काव्य जगत के माध्यम से इस महान देश की वैश्विक चेतना को समृद्ध करने के लिए जीवन भर फक्कड़ बने रहे. गांधी ने भी हमारी थकी बूढ़ी हड्डियों को प्रांजल मांसलता से अभिषिक्त किया और हमें महान योद्धाओं की शक्ल में तैयार किया. दोनों की सोच में नफरत का कोई स्थान नहीं था. दोनों महान प्रेम के अनुगायक थे. दोनों जाति, भाषा और धर्म के नकली रिवा़जों को मानने से इंकार करते थे. दोनों इस बात को जानते थे कि खुद को मिटाने से ऐसी अग्नि प्रज्जवलित होती है जो मिटने मिटाने के संघर्ष सूत्र को ही मिटाती है. आज हम उनके अतिरिक्त इतिहास के इस महत्वपूर्ण दिन गांधी की समझ से गालिब के भी संरक्षण में हैं.
ग़ालिब ने ऐसे वक्त उर्दू शायरी को नये प्रतिमान और अर्थ दिए तथा उसको उसके सही सम्मान पर पहुंचाया जो भारतीय परिवेश में उस समय एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक आवश्यकता के रूप में उपस्थित हुआ था. ग़ालिब ने वक्त की चुनौतियों को कबूल किया और वक्त ने उसे इसी वजह से अमर बना दिया. महात्मा गांधी भी राजनीति में दर्शन और धर्म तथा आध्यात्म के तत्वों को लेकर भारतीय इतिहास में महापुरुष के रूप में अवतरित हुए थे. साहित्य और राजनीति के अलग अलग क्षेत्रों में अलग अलग सदियों में उत्पन्न ये दोनों महापुरुष इंसानी प्रेम के सबसे बड़े अनुगायकों के रूप में सदैव अमर रहेंगे.