लघु वनोपज के छत्तीसगढ़ मॉडल में आदिवासी कहां?
आलोक प्रकाश पुतुल
द ट्राइबल कोऑपरेटिव मार्केटिंग डेवलपमेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया (ट्राईफेड) द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार वर्तमान में देश में कुल संग्रहित लघु वनोपजों में से तीन चौथाई से अधिक अर्थात् 75.38 प्रतिशत लघु वनोजपों का संग्रहण छत्तीसगढ़ में हुआ है.
सरकार लगातार इस तरह के आंकड़े जारी करती है और दावा करती है कि इससे आदिवासियों की आर्थिक स्थिति सुधर रही है. हालांकि, इसी छत्तीसगढ़ के आदिवासियों को केंद्र में रख कर लघु वनोपज और आदिवासियों को लेकर किये जाने वाले इन्हीं दावों की पड़ताल करने पर कहानी कुछ और ही नजर आती है.
अपने लोक-लुभावन वादों के बावजूद सरकार इन मुद्दों को लेकर कितनी सचेत है- इसकी बानगी देखिए. तेंदूपत्ता की क़ीमत 2500 रुपये से 4000 रुपये प्रति बोरी की गई लेकिन पिछले बीस सालों में सबसे कम ख़रीदी 2020-21 में हुई. आदिवासियों के लिए वनोपज संग्रहण को आय का बड़ा स्रोत माना जाता है लेकिन 2020-21 में छत्तीसगढ़ में प्रत्येक संग्रहकर्ता परिवार को महज साल भर में 3976 रुपये मिले.
सामाजिक संगठन चाहते हैं कि वनोपज ख़रीदी की क़ीमत को महंगाई सूचकांक से जोड़ा जाए.
छत्तीसगढ़ के कोरबा ज़िले के पतुरियाडांड के सरपंच उमेश्वर सिंह आर्मो को उम्मीद नहीं है कि इस साल वनोपज संग्रहण का कोई लाभ गांव के लोगों को मिल पाएगा. इस साल जंगल में महुआ है नहीं और असमय होने वाली बारिश के कारण तेंदूपत्ता की तुड़ाई का काम भी प्रभावित हुआ है.
उमेश्वर कहते हैं, “कोरोना के कारण लगभग महीने भर से लॉकडाउन लगा हुआ है, इसलिए बाहर कमाने-खाने जैसी स्थिति भी नहीं है. रोजगार गारंटी के काम में भी भुगतान नहीं हुआ है. आदिवासी के लिए जंगल जीवन का बड़ा आधार माना जाता है लेकिन इस साल तो जंगल पर भी ग्रहण लगा हुआ है. पता नहीं तेंदूपत्ता की ख़रीदी कितने दिन चलेगी.”
उमेश्वर सिंह आर्मो छत्तीसगढ़ के उन लाखों आदिवासियों में शामिल हैं, जिनके बारे में सरकारी दावा है कि वनोपज के कारण उनकी आर्थिक स्थिति बेहतर हुई है. लेकिन उमेश्वर सिंह आर्मो को आशंका है कि पिछले साल की तरह इस साल भी तेंदूपत्ता की सरकारी ख़रीदी आनन-फानन में बंद न कर दी जाए.
यह छत्तीसगढ़ की कहानी है जहां वर्तमान में देश में कुल संग्रहित लघु वनोपजों में से तीन चौथाई से अधिक अर्थात् 75.38 प्रतिशत लघु वनोजपों का संग्रहण हुआ है.
लघु वनोपजों के संग्रहण को लेकर इस मॉडल स्टेट का अध्ययन किया जाए तो एक निराशाजनक तस्वीर उभरती है.
राज्य में सरकार द्वारा तेंदूपत्ता ख़रीदी आंकड़ों को देखें तो पिछले 20 सालों में पहली बार 2020-21 में सबसे कम तेंदूपत्ता की ख़रीदी हुई है.
मध्य-भारत के अधिकांश इलाकों में पाये जाने वाला तेंदू यानी डायोसपायरस मेलेनोक्ज़ायलोन के पत्तों का उपयोग बीड़ी बनाने के लिए किया जाता है. अपनी विशिष्टता के लिए देश भर में छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के तेंदूपत्ते के मांग रहती है. पिछले कई सालों से आदिवासी जंगलों से तेंदूपत्ता का संग्रहण करते हैं और फिर सरकार प्रति बोरे के हिसाब से उनकी ख़रीदी कर के ठेकेदारों को बेचती है.
छत्तीसगढ़ में तेंदूपत्ता का संग्रहण छत्तीसगढ़ राज्य लघु वनोपज व्यापार एवं विकास सहकारी संघ, रायपुर द्वारा प्राथमिक वनोपज सहकारी समितियों के माध्यम से किया जाता है. तेंदूपत्ता के विक्रय से होने वाले लाभ का 80 प्रतिशत तेंदूपत्ता संग्राहकों को प्रोत्साहन पारिश्रमिक के रुप में दे दी जाती है. तेंदूपत्ता के विक्रय के पश्चात गणना के उपरांत लाभ वाली समितियों के संग्राहकों को प्रोत्साहन पारिश्रमिक प्रदान किया जाता है. छत्तीसगढ़ में 31 ज़िला युनियन, 901 प्राथमिक वनोपज सहकारी समिति, 10300 संग्रहण केंद्र और 13.76 लाख परिवार तेंदूपत्ता के संग्रहण का काम करते हैं.
लेकिन छत्तीसगढ़ में तेंदूपत्ते की क़ीमत बढ़ाये जाने के बाद से राज्य के अधिकांश इलाकों में ख़रीदी में भारी कमी आई है. 2020 में कई ज़िलों के संग्रहण केंद्रों में पूरे तेंदूपत्ता के मौसम में महज तीन-चार दिन ही इसकी ख़रीदी की गई.
तेंदूपत्ता की प्राथमिक वनोपज सहकारी समिति के प्रबंधक रहे मिहिर राय बताते हैं कि 2019 में जिस दंतेवाड़ा ज़िले से 22,353 बोरा का तेंदूपत्ता का संग्रहण किया गया था, 2020 में इस ज़िले से महज 3611 बोरा तेंदूपत्ता की ख़रीदी की गई.
असल में दिसंबर 2018 में छत्तीसगढ़ में सत्ता में आने के पखवाड़े भर के भीतर ही राज्य के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने तेंदूपत्ता की एक बोरी की क़ीमत 2500 रुपये से बढ़ा कर 4000 रुपये करने की घोषणा की और इस फ़ैसले को तत्काल लागू भी कर दिया गया.
क़ीमत बढ़ाई, ख़रीदी घटाई
तेंदूपत्ता की क़ीमत में यह बढ़ोत्तरी अप्रत्याशित थी. छत्तीसगढ़ जब वर्ष 2000 में अलग राज्य बना था, तब तेंदूपत्ता के एक बोरे की क़ीमत महज 400 रुपये थी. वर्ष 2020 में इसका 4000 रुपये किये जाने के फ़ैसले का भारी स्वागत हुआ.
तेंदूपत्ता के एक बोरा में 1000 सूखे पत्तों की एक गड्डी होती है और हर गड्डी में 50 पत्तियां होती हैं. तेंदूपत्ता संग्राहकों को 1989 में प्रति मानक बोरा का भुगतान 150 रुपये किया जाता था. साल दर साल तेंदूपत्ता की क़ीमत बढ़ती गई. चुनावी साल 2018 में क़ीमत 1,800 से बढ़ा कर 2,500 रुपये कर दी गई. नई सरकार के आने के बाद जनवरी 2019 में यह क़ीमत 4,000 रुपये प्रति बोरा हो गई.
लेकिन तेंदूपत्ता की क़ीमत में 60 फ़ीसदी की इस बढ़ोत्तरी के अगले ही साल तेंदू पत्ता की ख़रीदी लगभग आधी हो गई.
राज्य में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सचिव संजय पराते ने मोंगाबे-हिंदी से कहा, “आदिवासियों को असल में पैसा न देना पड़े, इसलिए सरकार ने क़ीमत तो बढ़ा दी लेकिन उसकी ख़रीदी घटा दी. राज्य के जिन आदिवासियों को लगा था कि तेंदूपत्ता की क़ीमत बढ़ने से उन्हें लाभ होगा, उन्हें निराशा ही हाथ लगी. ”
राज्य सरकार के आंकड़े बताते हैं कि जब नवंबर 2000 में छत्तीसगढ़ अलग राज्य बना था, उसके अगले साल 2001 में 16.67 लाख बोरा तेंदूपत्ता ख़रीदा गया था. लगभग यही स्थिति चलती रही. 2020-21 में जब राज्य में और अधिक तेंदूपत्ता ख़रीदी का अनुमान था, तब पिछले 20 सालों में सबसे कम केवल 9.73 लाख बोरा तेंदूपत्ता की ख़रीदी की गई. (ग्राफ देखें)
2019 में जिस तेंदूपत्ता के संग्रहण के एवज में तेंदूपत्ता संग्राहकों को 602.14 करोड़ का भुगतान किया गया था, 2020 में यह घट कर महज 389.15 करोड़ रुपये रह गया.
कैसे सुधरेगी आर्थिक स्थिति!
2011 की जनगणना के अनुसार छत्तीसगढ़ की 255.45 लाख आबादी में से आदिवासियों की जनसंख्या 78.23 लाख है, जो कुल आबादी का 30.6 फ़ीसदी है. पूर्वोत्तर और केंद्र शासित प्रदेशों को छोड़ दिया जाये तो कुल आबादी में सर्वाधिक आदिवासी आबादी, देश में छत्तीसगढ़ में ही बसती है.
जनजातीय कार्य मंत्रालय ने पिछले साल 1 मई को 46 लघु वन उत्पादों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि की थी. इसके अलावा पिछले साल 26 मई को एक अधिसूचना जारी कर 23 नए लघु वन उत्पाद और 11 नवंबर को अधिसूचना जारी कर 14 नए लघु वन उत्पाद को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ख़रीदी की मंजूरी दी गई. इस तरह पिछले साल भर में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर 37 नए लघु वन उत्पाद शामिल किए गये. इसके साथ ही न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ख़रीदे जाने वाले लघु वन उत्पादों की संख्या बढ़ कर 87 हो गई. इनमें से 64 ऐसे उत्पाद हैं, जिनकी ख़रीदी किये जाने वाले राज्यों की सूची में छत्तीसगढ़ भी शामिल है.
छत्तीसगढ़ राज्य लघु वनोपज सहकारी संघ का दावा है कि राज्य में लगभग 14 लाख परिवार लघु वनोपज के संग्रहण से आय प्राप्त करते हैं, जिसमें से अधिकांश ग़रीब एवं आदिवासी हैं. राज्य के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल मानते हैं कि आदिवासी अंचलों में वनोपज का कारोबार सिर उठाकर जीने का अवसर देता है.
2004 में पेश भूरिया कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार अलग-अलग संस्थाओं का अनुमान है कि लघु वनोपज पर आदिवासी परिवारों की निर्भरता 80 फ़ीसदी तक है. कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में माना था कि जंगल में या जंगल के आसपास रहने वाले लगभग 40 करोड़ लोग कम या ज़्यादा, जंगल पर निर्भर हैं. लेकिन अधिकांश आदिवासियों के लिए भोजन, औषधि, आश्रय और अर्थव्यवस्था का स्रोत यही जंगल है.
2009 में आई मुंगेकर कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार अधिकांश मामलों में आदिवासी परिवारों की आय का 70 फ़ीसदी तक लघु वनोपज से ही प्राप्त होता है.
राज्य के मुख्यमंत्री का दावा है कि चालू सीजन के दौरान न्यूनतम समर्थन मूल्य पर 4 लाख 74 हजार क्विंटल लघु वनोपज का संग्रहण किया गया है. ट्राईफेड नई दिल्ली द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार न्यूनतम समर्थन मूल्य पर लघु वनोपज क्रय करने वाले राज्यों में छत्तीसगढ़ का प्रथम स्थान है.
छत्तीसगढ़ राज्य लघु वनोपज सहकारी संघ के प्रबंध निदेशक संजय शुक्ला का कहना है कि 2020-21 में तेंदूपत्ता से 389.15 करोड़ और दूसरे लघुवनोपज से 165 करोड़ रुपये और ख़रीदी गई. इमली के प्रसंस्करण के लिए 2.69 करोड़ रुपये संग्राहकों को मिला है. भविष्य में संभावित बोनस भुगतान से इतर देखें तो राज्य के 14 लाख से अधिक संग्राहक परिवारों को लगभग 556.69 करोड़ रुपये की रक़म मिली है.
साल भर की आय केवल 3,976 रुपये
राज्य सरकार के इन आंकड़ों को देखें तो पूरे साल भर में प्रत्येक संग्राहक परिवार को औसतन लगभग 3,976 रुपये मिले हैं.
हालांकि संजय शुक्ला का कहना है कि समर्थन मूल्य पर ख़रीदी का व्यापक लाभ आदिवासियों को मिला है. संजय शुक्ला ने मोंगाबे-हिंदी से कहा, “इसका एक बड़ा प्रभाव इस रुप में देखने की ज़रुरत है कि राज्य में जो लघु वनोपज संग्रह का कारोबार है, वह लगभग 1200 करोड़ रुपये का है. पहले आदिवासियों से औने-पौने भाव पर व्यापारी वनोपज ख़रीद कर ले जाते थे. लेकिन राज्य सरकार द्वारा समर्थन मूल्य पर ख़रीदी के कारण आदिवासियों को ठीक-ठीक क़ीमत मिलने लगी है.”
लेकिन राज्य में छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के संयोजक आलोक शुक्ला का कहना है कि राज्य सरकार के अलावा खुले में जो व्यापार होता है, उसका ठीक-ठीक आंकड़ा ही सरकार के पास नहीं है. आलोक शुक्ला का कहना है कि अगर राज्य सरकार सच में आदिवासियों का हित चाहती है तो पूरे वनोपज की ख़रीदी की व्यवस्था क्यों नहीं करती?
वे वनोपज की ख़रीद बिक्री को लेकर इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन के दस राज्यों में किए गये लघु वनोपज संग्राहकों के सर्वेक्षण का हवाला देते हुए कहते हैं कि अगर सरकार के इस आंकड़े पर भरोसा करें तो वनोपज का अधिकांश हिस्सा तो सरकार ही ख़रीदती है.
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन के 2019-20 का सर्वेक्षण बताता है कि छत्तीसगढ़ में वनोपज का संग्रहण करने वाले 89.4 प्रतिशत लघु वनोपज की बिक्री सरकार के लघु वनोपज केंद्र में करते हैं, जबकि 9.6 प्रतिशत वनोपज व्यापारियों को और 1 फीसदी कमिशन एजेंट को करते हैं. लगभग 92.6 प्रतिशत संग्रहणकर्ता लघु वनोपज की बिक्री करते हैं, जबकि 7.4 प्रतिशत ऐसे हैं, जो बिक्री भी करते हैं और उसका खुद भी उपयोग करते हैं.
वहीं वनोपज का संग्रह करने वाले तीन से कम सदस्यों वाले परिवार केवल 15.8 फ़ीसदी हैं, वहीं 3 से 5 सदस्यों वाले परिवार 41.5 और 6 से 10 सदस्यों वाले परिवारों की संख्या 40.5 फ़ीसदी है. इसी तरह 10 से अधिक सदस्यों वाले परिवारों की संख्या 2.1 प्रतिशत है.
आलोक शुक्ला ने मोंगाबे-हिंदी से कहा, “यह सही है कि आदिवासियों की घरेलू ज़रुरतें इन्हीं जंगलों से पूरी होती हैं लेकिन इसमें सरकार की भूमिका बहुत कम है. एक परिवार के औसतन तीन सदस्य महीनों तक लघु वनोपज का संग्रह करते हैं और इसके बदले उन्हें महज 3976 रुपये मिलता है, जो न्यूनतम मज़दूरी से भी कम है. रही बात बोनस की तो बोनस इतना अनिश्चित है कि अभी पिछले तीन सालों के बोनस ही आदिवासियों को नहीं मिले हैं. अगर राज्य सरकार आदिवासियों का भला चाहती है तो वनोपज के प्रसंस्करण और बाज़ार की व्यवस्था सरकार करे और उसमें सीधे-सीधे आदिवासियों की सहभागिता सुनिश्चित हो. इसके अलावा वनोपज ख़रीदी की क़ीमत को भी महंगाई सूचकांक से जोड़ा जाना चाहिए. इससे ही आदिवासियों की आर्थिक दशा में सुधार संभव है.”
मोंगाबे हिंदी से साभार