Columnistताज़ा खबर

मीडिया के एजेंडे पर अब कौन ? मजबूर सत्ता या मज़बूत जनता ?

श्रवण गर्ग
जनता का एक बड़ा वर्ग जानने को उत्सुक है कि अब जब कि चुनाव सम्पन्न हो गए हैं, तमाम अनुमानों को अंगूठा बताते हुए नरेंद्र मोदी ने तीसरी बार भी शपथ ले ली है, सरकार की सेवा में समर्पण भाव से दिन-रात जुटे रहे टी वी चैनलों और अख़बारों की ज़िंदगी में भी कुछ फ़र्क़ पड़ेगा या सब कुछ पहले जैसा ही चलने वाला है ?

किसी बड़े तूफ़ान के गुज़र जाने के बाद जैसे लोगों की समझ में नहीं आता कि सामान कहाँ से बटोरना शुरू करें, तूफ़ानी चुनाव के बाद मीडिया को लेकर भी पाठकों और दर्शकों की हालत वैसी ही है.

उन्नीस अप्रैल से 1 जून तक सात चरणों में सम्पन्न हुई मतदान की प्रक्रिया, उसके साथ-साथ और पहले चला धुआँधार चुनाव-प्रचार, उसके पहले हुए दलों के बीच गठबंधन, टिकटों के बँटवारों से नाराज़ उम्मीदवारों द्वारा दल-बदल की रस्म अदायगी, ‘चाचा’ नीतीश कुमार को लेकर बना नाटकीय घटनाक्रम सब कुछ किसी लम्बे टी वी सीरियल की तरह पाठकों-दर्शकों पर छाया रहा.

चुनावों के दौरान जनता टीवी-यूट्यूब चैनलों और अख़बारों के पन्नों के साथ वैसी ही चिपकी रही जैसा किसी समय ‘रामायण’, ‘महाभारत’ और ‘चाणक्य’ आदि धारावाहिकों के समय हुआ करता था. नौ जून की शाम राष्ट्रपति भवन परिसर में फ़िल्माए गए अंतिम दृश्य के बाद से लोगों को सूझ नहीं पड़ रही है कि अब अपना टाइम कैसे पास करेंगे ?

नागरिकों की बड़ी चिंताओं में इस बात का शुमार भी किया जा सकता है कि अपनी पहली दो पारियों में निरंकुश बहुमतका एकाधिकारवाद भोग लेने के बाद अगर किसी सरकार को तीसरी पारी में बैसाखियों पर साँसें गिनना पड़े तो उस दौरान मीडिया की भूमिका क्या होना चाहिए ?

कहा जा रहा है कि पिछली दो पारियों की तुलना में तीसरी पारी में भाजपा को मिले कमज़ोर समर्थन के पीछे भी असली ताक़त ‘गोदी मीडिया’ की ही रही है. ख़ास करके हिंदी पट्टी में. इनमें टी वी,अख़बार और सोशल मीडिया सभी शामिल है.मीडिया की भूमिका अगर निष्पक्ष रही होती तो नतीजे काफ़ी चौंकानेवाले होते.

मीडिया का बाजार और बाजारु मीडिया का हाल छत्तीसगढ़ मीडियाकर्मी सुरक्षा विधेयक
किसके साथ है मीडिया, एक कमज़ोर हुकूमत के या ताकतवर जनता के

आपातकाल(1975) के दौरान मीडिया की भूमिका के बारे में लालकृष्ण आडवाणी ने टिप्पणी की थी कि (इंदिरा गांधी) सरकार ने तो मीडिया से सिर्फ़ झुकने के लिए कहा था पर वह घुटनों के बल रैंगने लगा. मोदीजी के दस सालों के राज के दौरान आडवाणीजी ने न तो कभी मीडिया के रेंगने को लेकर कोई टिप्पणी की और न ही स्वयं की भूमिका को लेकर.

जिस तरह ‘घोषित आपातकाल’ के दौरान अधिकतर लड़ाई या तो जनता ने लड़ी थी या फिर मीडिया के उस छोटे से वर्ग ने जो सत्ता प्रतिष्ठान से नहीं डरा था वैसी ही स्थिति पिछले दस सालों के दौरान अघोषित आपातकाल में भी थी.

मीडिया के लिए अपनी नई भूमिका पर विचार करना इसलिए ज़रूरी हो गया है कि जिस एक ‘परिवार’ और उसके नेता को पूरे चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी द्वारा सबसे ज़्यादा निशाने पर लिया गया वह चार जून के नतीजों के बाद जनता के बीच सरकार से ज़्यादा ताकतवर बनकर उभरा है. पिछले चुनावों की तरह इस बार विपक्ष अपने हताहतों की गिनती में नहीं कर रहा है बल्कि सरकार पर नए हमले की तैयारी में जुटा है.

सवाल यह है कि चंद्राबाबू और नीतीश कुमार की कृपा से एन डी ए को जिस तरह का अस्थायी बहुमत मिल गया है वह अगर नहीं मिलता और विपक्षी दलों के इंडिया गठबंधन को सरकार बनाने का दावा पेश करने क़ाबिल सीटें मिल जातीं तब भी क्या मीडिया ‘हिंदू-मुस्लिम’दंगलों के ज़रिए ही टीआरपी बढ़ाने में जुटा रहता या सार्थक बहसों के लिए नये मुद्दों की तलाश करता ?

दुनिया के प्रतिष्ठित मीडिया प्रतिष्ठानों के बारे में यही कहा गया है कि सत्ता में चाहे जो व्यक्ति या पार्टी रहे, वे हमेशा एक ‘एडवर्सरी’ या ‘प्रतिपक्षी’ की भूमिका में रहते हैं और उस पर गर्व भी करते हैं.कोई ऐसी परिस्थिति जिसमें किसी एक दल को एकाधिकारपूर्ण बहुमत प्राप्त हो जाए तो विपक्ष से बड़ी चुनौती मीडिया के सामने खड़ी हो जाती है.

लोकसभा चुनाव का नशा जैसे-जैसे कम होगा बदली हुई जनता सरकार और मीडिया दोनों को ही कठघरों में खड़ा करने वाली है. पूछा भी जाने लगा है कि मीडिया अब क्या करने वाला है ?

एक बात अभी से नज़र आने लगी है कि राजनीतिक तौर पर कमज़ोर होकर उभरे मोदी, मीडिया पर नियंत्रण को और कसने की कोशिश कर सकते हैं. वे क़तई नहीं चाहेंगे कि मीडिया राहुल गांधी और उनके नेतृत्व वाले इंडिया गठबंधन के प्रति किसी भी तरह की उदारता दिखाए.तय मीडिया को करना है कि बदली हुई परिस्थितियों में भी वह किसके एजेंडे पर काम करने वाला है ? एक कमज़ोर हुकूमत के या ताकतवर जनता के ?

error: Content is protected !!