Columnist

यह मीडिया ही तो है

अनिल चमड़िया
आर्थिक नीतियों के लागू होने के साथ ही भ्रष्टाचार के खिलाफ और पारदर्शी सरकारी कार्यशैली की अपेक्षा बढ़ी है. भूमंडलीकरण के दौर में भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान में सबसे ज्यादा निगाह संसदीय राजनीतिक चुनाव, उसकी पार्टयिों, प्रतिनिधियों और उसकी तमाम तरह की संस्थाओं पर आकर टिकी है. इसमें समाचार मीडिया की बड़ी भूमिका दिखाई देती है. मीडिया के तकनीकी स्तर पर विस्तार और उसके इस्तेमाल ने और भी ज्यादा उम्मीदें बढ़ा दीं.

अन्ना हजारे का जब जन लोकपाल बिल के लिए आंदोलन चल रहा था तब तो यह भी कहा जाने लगा कि दिल्ली में होने वाले उनके आंदोलनात्मक कार्यक्रमों को फैलाने में मीडिया की ही भूमिका रही.

मीडिया को जन चेतना के माध्यम के रूप में देखें तो उसकी यह सकारात्मक भूमिका लग सकती है. लेकिन मीडिया को जिस तरह कॉरपोरेट वर्चस्व की स्थिति में देखा जा रहा है यदि उस तथ्य को ध्यान में रखकर देखें तो वह नई आर्थिक नीतियों का सफल वाहक बनने के उदाहरण के रूप में भी सामने आया है.

मीडिया को किसी भी विषय के लिए एक मत तैयार करने का औजार समझा जाता है. लिहाजा भ्रष्टाचार और राजनीतिक शुद्धता के प्रति एक मत बनाने के अभियान का भी विश्लेषण एक तरफा नहीं किया जा सकता है. भ्रष्टाचार की संस्कृति का मीडिया के जरिये घटनाओं में तब्दील हो जाना, मीडिया की एक सीमा भी है.

मीडिया ने राजनीतिक नेतृत्व को निशाने पर लिया है. यह एक हद तक वाजिब भी हो सकता है. लेकिन राजनीतिक नेतृत्व व संस्थाओं पर ही दबाव संपूर्ण संसदीय लोकतंत्र के सुधार का कार्यक्रम नहीं हो सकता है. मीडिया मौजूदा दौर में संसदीय लोकतंत्र की सबसे ताकतवर गैर संवैधानिक संस्था के रूप में उभर कर सामने आया है. वह न केवल संसद, सरकार बल्कि न्यायापालिका और कार्यपालिका पर भी कई मायने में दबाव बनाने में कामयाब होता दिखता है. लेकिन मीडिया के संपूर्ण ढांचे में वह एक छोटा सा हिस्सा है जो सबसे ज्यादा ताकतवर है और वह पूरे मीडिया ढांचे का नेतृत्व करता भी दिख रहा है.

संसदीय लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका की अहमियत से किसी को इनकार नहीं है बशर्ते वह एक संस्था के रूप में सक्रिय दिखे. भूमंडलीकरण के दौर में एक शब्द बहुत प्रचलित हुआ है, वह है- पैकेजिंग.

बड़े कारोबारी मीडिया ने भ्रष्टाचार की घटनाओं व राजनीतिक नेतृत्व को अपने पाठकों व दशर्कों के बीच विश्वसनीयता व लोकप्रियता के लिए अपनी पैकेजिंग का हिस्सा बनाया है और उसमें वह कामयाब है.

मीडिया के बारे में यह स्थापित तथ्य है कि यह मध्यवर्गीय समाज का उपक्रम है. समाज पर दबदबा रखने वाले मध्यवर्ग की अपेक्षाओं, भावनाओं व आकांक्षाओं को मीडिया बड़ी गहराई से परखता है. इसीलिए वह अन्ना हजारे के आंदोलन का हिस्सा भी दिखने लगता है और सबसे बड़ी पंचायत को डांटने-डपटने की स्थिति में खुद को खड़ा कर लेता है.

भारतीय मीडिया का ताकतवर हिस्सा ही आज भ्रष्टाचार और राजनीतिक शुद्धता का चैंपियन बना हुआ है. लोगों की उम्मीदें अपने राजनीतिक नेतृत्व से ज्यादा मीडिया से हो गई हैं. समाज में यह सोच विकसित हो गई है कि मीडिया में उनकी बात आ जाए तो वे सरकार, संसद और सत्ता के दूसरे प्रतिष्ठानों पर दबाव बनाने में कामयाब हो सकते हैं. मीडिया राजनीतिक नेतृत्त्व में एक भय और लाचारी की भी संरचना करने में कामयाब हुआ है.

दरअसल मीडिया के भ्रष्टाचार विरोधी और राजनीतिक शुद्धता के लिए भूमिका में एक बात यह बड़ी शिद्दत के साथ उभर कर सामने आती है कि उसकी खुद की पहल करने की स्थिति नहीं रही है. यदि उसकी पहल दिखती भी है तो उसके कुछ अपने कारण भी होते हैं. उसकी भूमिका इस तरह के मामलों में पहल लेने वालों की सक्रियता और उनके सामाजिक- राजनीतिक आधार के मद्देनजर तय होती है.

राजनीतिक शुद्धता और भ्रष्टाचार विरोधी अभियान में उसके ढांचे का समाजशास्र भी अपने पूर्वाग्रहों के साथ सक्रिय रहता है. लिहाजा मीडिया की भूमिका का विश्लेषण बहुत सीधा-साधा इस रूप में नहीं किया जा सकता है कि उसने राजनीतिक शुद्धता के लिए और भ्रष्टाचार विरोधी अभियान में बहुत अच्छी भूमिका ही निभाई है. उसकी भूमिका ने संसदीय लोकतंत्र के प्रति उम्मीदों को बुझने से रोकने में सफलता हासिल की है, मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है.

मीडिया की भूमिका का विश्लेषण बहुत सीधा-साधा इस रूप में नहीं किया जा सकता है कि उसने राजनीतिक शुद्धता के लिए और भ्रष्टाचार विरोधी अभियान में बहुत अच्छी भूमिका ही निभाई है. उसकी भूमिका ने संसदीय लोकतंत्र के प्रति उम्मीदों को बुझने से रोकने में सफलता हासिल की है, मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है.

error: Content is protected !!