सेल्फी का मनोविश्लेषण
सुनील कुमार
मोबाइल फोन के कैमरे से अपनी तस्वीरें लेने के शौक ने अंग्रेजी जुबान को एक नया शब्द, सेल्फी, दिया है. लेकिन अपनी तस्वीरें लेने का काम तो शायद दुनिया के शुरुआती कैमरों के साथ ही शुरू हो गया होगा, और सौ बरस पहले भी ऐसे कैमरे आते थे जिनमें सेल्फटाईमर का फीचर रहता था, और लोग किसी स्टैंड पर लगाकर, या दीवार पर रखकर खुद बटन दबाकर, दौड़कर सामने जाकर खड़े होते थे, और अपनी सेल्फी लेते थे. लेकिन जैसे-जैसे यह शौक दीवानगी की तरफ बढऩे लगा, लोगों को इसके लिए अलग से एक शब्द की जरूरत पड़ी, और सेल्फी गढ़ा गया.
अभी कई किस्म की सेल्फी को लेकर यह विवाद चल रहा है कि किसी हादसे के मौके के सामने खड़े होकर अपनी तस्वीर खींचना एक बीमार मानसिकता की बात है, या उसे असामान्य न माना जाए? अभी जब ट्यूनीशिया के समुद्र तट पर पश्चिमी सैलानियों पर अंधाधुंध गोली-बारी करके एक मुस्लिम आतंकी ने दर्जनों लोगों को मार डाला, तो उसके बाद वहां ब्रिटिश लेबर पार्टी का एक संसदीय-चुनाव उम्मीदवार अपनी सेल्फी लेते एक दूसरे कैमरे पर कैद हुआ. दर्जनों ब्रिटिश सैलानियों के कत्ल के मौके पर ऐसा शौक इस नेता को खासी आलोचना दिला गया.
और दुनिया में जगह-जगह सड़क हादसों के सामने, आगजनी के सामने लोग अपनी सेल्फी लेते दिखते हैं. अभी फ्रांस से एक सेल्फी सामने आई है जिसमें एक इस्लामी आतंकी ने अपनी फैक्ट्री-बॉस का कत्ल करके उसके सिर को तार से टांगकर उसके सामने खड़े होकर अपनी सेल्फी ली. यह तस्वीर धुंधली किए बिना छापना भी मुमकिन नहीं था.
जिंदगी के अच्छे से अच्छे, और बुरे से बुरे मौकों पर अपनी सेल्फी लेने की सोच अगर इस शब्द से परे देखें, तो न तो नई है, और न ही इसमें कुछ अटपटी बात है. लोग तो हमेशा से ही सबसे अच्छे और सबसे बुरे वक्त की अपने किस्म की नाटकीयता को दर्ज करके रखना, उसकी चर्चा करना, उसके बारे में लिखना, यह सब करते ही आए हैं. दरअसल जिंदगी में यह एक बड़ी सामान्य और आम बात है कि लोग सबसे अच्छी और सबसे बुरी बातों को ही अधिक याद रख पाते हैं, इनके बीच की आम बातें तो याद रखने लायक होती भी नहीं हैं, क्योंकि वे रोजाना ही होती हैं. लोगों को अपने ऑपरेशन तो याद रहते हैं, बच्चों का पैदा होना तो याद रहता है, शादी और बुजुर्गों का गुजरना भी याद रहता है, लेकिन लोगों को क्या यह याद रह सकता है कि उन्हें सर्दी-खांसी कब हुई थी?
फिर यह भी याद रखना चाहिए कि हिंसा करने वाले लोगों का भरोसा अपनी हिंसक हरकत पर रहता ही है. वह चाहे किसी धर्म की वजह से हो, राजनीतिक या सामाजिक विचारधारा की वजह से हो, या किसी आपसी रंजिश की वजह से हो, लोग हिंसा तभी करते हैं, जब उस हिंसा पर उनका भरोसा होता है. एक मुजरिम कत्ल करके किसी को तभी लूटता है, जब उसे लगता है कि उसे ऐसा करने का हक है, या ऐसी उसकी एक जायज जरूरत है. इसलिए ऐसी हिंसा के बाद जो लोग अपनी तस्वीरें लेते हैं, वे तस्वीरें लेने के लिए किसी बीमार मानसिकता के शिकार नहीं हैं, वे अपनी हिंसा के लिए एक बीमार मानसिकता के हो सकते हैं, लेकिन इसके बाद कटे हुए सिर के साथ अपनी सेल्फी लेना तो उसी हिंसा का एक अगली कड़ी है, वह अलग से हिंसा नहीं है. अगर कटे सिर के साथ अपनी तस्वीर लेना किसी को बुरा लगना चाहिए तो वैसा कोई इंसान किसी का सिर काटेगा ही क्यों?
अब सेल्फी की कुल मिलाकर बात की जाए, तो इंसान तो हमेशा से ही आत्ममुग्धता के शिकार रहते आए हैं. यह अलग-अलग लोगों में अलग-अलग दर्जे की जरूर हो सकती है, लेकिन कमोबेश हर किसी में रहती ही है. ऐसा अगर नहीं होता, तो दुनिया में आईने का आविष्कार हुआ ही क्यों रहता? पहली सेल्फी तो पानी में अपनी खुद की शक्ल देखने की रही होगी, और चूंकि उस वक्त कैमरा या मोबाइल फोन नहीं रहे होंगे, इसलिए लोगों ने अपने चेहरे को अपने ही दिमाग में कैद कर लिया होगा. पुराने वक्त में जो लोग खर्च उठा सकते थे, वे अपनी तस्वीरें बनवाते थे, अपनी तस्वीरें खिंचवाते थे, और उन्हें टांगकर भी रखते थे. इसलिए अपने चेहरे पर फिदा होने में नया कुछ भी नहीं है, सेल्फी में नया कुछ है, तो मुफ्त की यह तकनीक नई है, जिसके चलते बिना किसी खर्च के लोग अपने फोन के कैमरे से ही अपनी तस्वीर खींच लेते हैं.
बहुत से लोग बार-बार अपने चेहरे को आईने में देखने वाले रहते हैं, महिलाओं पर यह तोहमत कुछ अलग लगती है कि वे अपना चेहरा देखे बिना रह नहीं सकतीं, लेकिन आदमियों का भी यही हाल रहता है कि जहां आईना दिखे वे अपने बाल ठीक करने लगते हैं, कपड़ों की बटन या टाई सम्हालने लगते हैं. यह इंसानी मिजाज अब बिना किसी आईने के भी अपने मोबाइल फोन से काम चला लेता है, और अब चेहरे से परे, मौके को भी साथ-साथ दर्ज कर लेता है. पहले भी यही होता था, साधारण कैमरे लेकर चलने वाले लोग ताजमहल या कुतुबमीनार के सामने खड़े होकर किसी और से अनुरोध करते थे कि उनके कैमरे की बटन दबाकर उनकी तस्वीर खींच दें.
अब यह देखें कि सेल्फी के नफा-नुकसान क्या हैं? एक तो यह कि लोग अपने खुद के चेहरे, अपने कपड़ों, और अपने हाव-भाव को बेहतर रखने लगेंगे, अगर उनके खुद के हाथ में अपनी तस्वीर लेने के लिए कैमरे का बटन रहेगा. कोई दूसरा तस्वीर ले तो हो सकता है कि अपना चेहरा मुस्कुराता न रहे, लेकिन सेल्फी लेने वाले लोग तो अपनी मर्जी का चेहरा बनने तक राह देख ही सकते हैं. दूसरी बात यह कि लोगों के अपने मन की आत्ममुग्धता इससे बहुत हद तक संतुष्ट होती है, और लोग अपनी खुद की तस्वीरें खींचकर, उन्हें सोशल वेबसाईटों पर पोस्ट करके खुश हो लेते हैं, और ऐसी खुशी पाने के लिए वे अब दूसरों के मुंह से अपनी वाहवाही के मोहताज नहीं रहते, उसका इंतजार करते हुए बेचैन नहीं रहते.
ऐसा भी नहीं लगता कि सेल्फी लेने वाले लोग अपनी जिंदगी के बाकी कामकाज को छोड़कर सिर्फ अपनी तस्वीरें लेते बैठे रहते हैं. डिजिटल टेक्नालॉजी इतनी आसान हो गई है कि लोग दिन भर में अपनी दर्जन भर तस्वीरें आधा दर्जन मिनट में ही ले सकते हैं, और अपनी खुशी खुद पा सकते हैं. फिर यही एक टेक्नालॉजी ऐसी है जो कि गरीबों को भी मामूली मोबाइल फोन से भी कामचलाऊ अच्छी तस्वीरें लेने का मौका देते हैं, और कुछ बरस पहले तक यह सहूलियत सिर्फ कैमरे वाले लोगों को हासिल थी.
एक और बात जिसके खतरे भी हैं, और जिसे बहुत से लोग पसंद नहीं करते, वह है बहुत ही अंतरंग और निजी तस्वीरों की. लोग अपने जीवन साथी के लिए, या अपने प्रेम संबंधों के लिए, अपनी दोस्ती के लिए बहुत ही निजी सेल्फी लेकर भेज सकते हैं, और अपने जोड़ीदार को एक खुशी या संतुष्टि दे सकते हैं. इसके अपने खतरे भी हैं, लेकिन इसके अपने मजे भी हैं.
एक ग्रीक राजकुमार नार्सिसस से अंग्रेजी जुबान में नार्सिसिज्म शब्द आया, जिसका हिन्दी में मतलब आत्ममुग्धता है. आत्ममुग्धता कोई बहुत बुरी बात भी नहीं है, अगर यह उस व्यक्ति की सोच का एक छोटा हिस्सा हो. जो लोग चारों तरफ से आत्ममुग्धता से घिरकर उसके कैदी हो जाते हैं, उनके लिए वह प्रतिउत्पादक (काउंटर प्रोडक्टिव) हो जाती है. लेकिन जो लोग ऐसी दिमागी दिक्कत के शिकार नहीं होते, उनके लिए सेल्फी एक आत्मसंतुष्टि का आसान जरिया है, और यह उनके, उनके जोड़ीदार के, और उनके दोस्तों के खुशी का एक मुफ्त का तरीका भी है. दूसरी तरफ जो लोग सेल्फी से कतराते हैं, उनके बारे में यह भी सोचने की जरूरत है, कि क्या उनकी जिंदगी में कुछ ऐसी वजहें हैं जिनसे वे अपने ही चेहरे से कतराने लगे हैं 🙂
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