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मई दिवस की याद

जेनरिक दवाओं की सलाह

डॉक्टरों को जेनरिक दवाएं लिखने की सलाह देने का काम पूरी तैयारी के साथ नहीं किया गया है
-एस श्रीनिवासन
प्रधानमंत्री की इस घोषणा ने हलचल मचा दी है कि डॉक्टरों द्वारा जेनरिक दवाएं लिखना अनिवार्य किया जाएगा. एक सोच-समझकर उठाया गया कदम नहीं है. बल्कि यह जन स्वास्थ्य के जरूरी मुद्दों जैसे गुणवत्ता, किफायती दवाएं आदि मुद्दों से ध्यान हटाने की कोशिश लगती है.

भारत में दवाओं का तकरीबन एक लाख करोड़ रुपये का बाजार है. इनमें से 90 फीसदी पर ब्रांडेड दवाओं का कब्जा है. इनमें से बहुत सारी ऐसी दवाएं जिनका जेनरिक संस्करण उपलब्ध नहीं हैं. तकरीबन 50,000 करोड़ का कारोबार फिक्सड डोज कॉम्बिनेशंस का है. कई एफडीसी ऐसे हैं जिनमें आठ या नौ दवाएं मिली होती हैं. ऐसे में में एफडीसी के सभी घटकों का नाम याद करना अव्यावहारिक है. वो भी तब जब एफडीसी के हजारों ब्रांड हैं.

अगर किसी तरह डॉक्टर एक घटक वाली जेनरिक दवा लिख भी देता है तो दवा बेचने वाले उसी ब्रांड की जेनरिक दवा बेचेंगे जिस पर उन्हें सबसे अधिक मुनाफा मिलता है. न कि वह जेनरिक दवा जो सबसे अधिक कारगर हो. इससे दवाओं को किफायती बनाने की पूरी योजना धराशाई होती दिखती है.

जेनरिक नामों के साथ दवा लिखने से होगा यह कि डॉक्टरों के बजाए दवा दुकानों को गलत ढंग से प्रभावित करने की कोशिश दवा कंपनियां करेंगी और उनका काम यथावत चलता रहेगा. इलाज के कुल खर्च का 50 से 80 फीसदी दवाओं पर खर्च होता रहेगा.

सरकार जन औषधी केंद्र खोल रही है. यहां सिर्फ जेनरिक दवाएं बेची जाएंगी. इनमें भी सरकारी कंपनियों द्वारा बनाई जाने वाली दवाओं को प्राथमिकता दी जाएगी. लेकिन इनकी संख्या काफी कम है. 3,000 जन औषधी केंद्र देश के आठ लाख दवा दुकानों के मुकाबले काफी कम हैं. इनमें भी ग्रामीण क्षेत्रों में इनकी संख्या नगण्य है.economic and political weekly जन औषधी को प्रोत्साहित करने के लिए ड्रग्स टेक्निकल एडवाइजरी बोर्ड यानी डीटीएबी ने मई, 2016 में ड्रग्स ऐंड कॉस्मोटिक कानून, 1940 के नियम 65.11ए में बदलाव पर विचार किया था ताकि ब्रांड वाली दवाएं लिखे होने के बावजूद इन केंद्रों से जेनरिक दवाएं दी जा सकें. डीटीएबी ने इस प्रस्ताव को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि प्रभाव के मामले में ब्रांडेड दवाओं के मुकाबले जेनरिक दवाएं उतनी अच्छी नहीं भी हो सकती हैं. इसका मतलब यह हुआ कि दवाओं के मामले में सरकार की सर्वोच्च संस्था को सरकारी कंपनियों द्वारा बनाई जा रही दवाओं पर भरोसा नहीं है.

तमिलनाडु और राजस्थान सरकार जेनरिक दवाएं प्रतिस्पर्धी कीमतों पर हर साल जेनरिक दवाएं खरीदती हैं. इन राज्यों में इनका इस्तेमाल भी खूब हो रहा है. यहां गुणवत्ता निर्धारण की बाकायदा व्यवस्था की गई है. इन दो राज्यों की सफलता उस सोच के प्रति करारा जवाब है जो ये कहते हैं कि जेनरिक दवाएं कभी भी अच्छी नहीं हो सकतीं.

हालांकि, गुणवत्तापूर्ण जेनरिक दवाएं पूरे देश में उपलब्ध करना एक बड़ी चुनौती है. जेनरिक दवाओं और ब्रांडेड दवाओं के प्रभाव के अंतर को लेकर गलत सूचनाएं सामने रखी जा रही हैं.

मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया ने अक्टूबर 2016 में डॉक्टरों के कोड ऑफ कंडक्ट में संशोधन करते हुए यह सिफारिश की थी कि हर डॉक्टर को जेनरिक दवाएं लिखनी चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इनका उचित इस्तेमाल हो. अब कोई तय नियमों के बगैर उचित इस्तेमाल मेडिकल काउंसिल कैसे सुनिश्चित करेगी, यह लोग सिर्फ अंदाज ही लगा सकते हैं.

उचित इस्तेमाल और दवा लिखा जाना डॉक्टरों, दवा बेचने वालों, दवा नियामक और उपभोक्ताओं पर निर्भर करता है. कुछ चीजें की जा सकती हैं- सिर्फ डॉक्टरी पुर्जे पर उपलब्ध होने वाली दवाएं हर दवा काउंटर पर आसानी से उपलब्ध नहीं हों, डॉक्टरों और उनके पेशेवर संगठनों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि एंटीबायोटिक और क्रिटिकल दवाओं का दुरुपयोग नहीं हो और गैरजरूरी/नुकसानदेह सभी अवैज्ञानिक दवाओं का इस्तेमाल बंद हो.

दवाओं के उचित इस्तेमाल और डॉक्टरों के पुर्जे के ऑडिट की व्यावहारिक व्यवस्था की जानी चाहिए. जिन दवाओं पर पेटेंट खत्म हो गया है, उनकी ब्रांडिंग को हतोत्साहित किया जाए. ऐसा अच्छे नियमन वाले देशों में भी होता है. 1975 के हथी समिति की रिपोर्ट में भी ऐसी सिफारिश की गई थी.

जरूरी और जीवन रक्षक दवाओं की विस्तृत सूची बनाकर उनका मूल्य नियंत्रण किया जाना चाहिए. सर्वोच्च न्यायालय ने भी 2003 में ऐसी सलाह दी थी. मौजूदा दवा मूल्य नियंत्रण नियम, 2013 अपर्याप्त है. इसमें कई दवाओं पर 2,000 से लेकर 10,000 प्रतिशत तक मुनाफा कमाया जा रहा है. इसकी जगह पर लागत आधारित मूल्य निर्धारण नियम आना चाहिए. ऐसा नियम 1995 में आया था.

सबसे पहला काम यह होना चाहिए कि हर राज्य में तमिलनाडु और राजस्थान मॉडल को अपनाया जाना चाहिए. सरकार द्वारा सरकारी दवा कंपनियों का विनिवेश करने के बजाए उनमें नई ऊर्जा फूंकने की कोशिश की जानी चाहिए.

1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक के संपादकीय का अनुवाद

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