प्रसंगवश

मथुरा में कंसलीला

मथुरा में सत्याग्रह की आड़ में कानून हाथ में लिया गया. ‘सत्याग्रहियों’ ने हिंसा का रास्ता अपनाया और बेगुनाह पुलिस अफसरों को पीटकर और गोलियों से भून डाला. क्या कसूर था उन पुलिस अफसरों का? क्यों की गई उनकी हत्या ? रामवृक्ष के बेतुकी और सनकी मांगों को दो सालों तक क्यों दिया गया संरक्षण?

रामवृक्ष के सत्याग्रह केंचुल ने कई सवाल पैदा किए हैं.

गाजीपुर के एक गांव से दो साल पूर्व पलायन कर मथुरा पहुंचने वाले रामवृक्ष का कुनबा और उसकी विचाराधारा इतनी अतिवादी और हिंसक हो जाएगी, यह किसी की कल्पना में नहीं था. आखिर यह कैसा सत्याग्रह था जिसका मकसद ही हिंसा और अतिवाद पर आधारित था. यह सत्याग्रह की मूल आत्मा को आघात पहुंचाने वाला है.

अतिवाद पर आधारित हिंसा ने सत्याग्रह को नए सिरे से परिभाषित करने की जरूरत पैदा की है. गांधीजी और विनोबा जी के सत्याग्रह और उसकी आत्मा को चोट पहुंचाई गई है. लोकतंत्र में विचारों का स्थान है, न कि विकारों और हिंसा का. देश में धर्म, जाति, संप्रदाय, विचाराधारा के नाम पर लाखों एकड़ सार्वजनिक जमीनों पर कब्जा जमाया गया है जहां सरकार, सफेदपोश और अधिकारी जाकर खुद माथा टेकते हैं. धर्म और संप्रदाय की आड़ में इस तरह की संस्थाएं फलती-फूलती हैं.

आशाराम और रामपाल, राधे मां और अन्य तमाम धर्मो में वैचारिक पाखंडियों ने इस तरह का विलासिता का साम्राज्य खड़ा किया है. इसका वास्तविक धर्म से कोई ताल्लुक नहीं है. इस तरह के लोग सिर्फ धर्म और उसकी आत्मा को बदनाम करते हैं और आघात पहुंचाते हैं. धर्म की आड़ में सार्वजनिक जमीनों पर कब्जा किया गया है. हरियाणा में संत रामपाल को सलाखों के पीछे भेजने के लिए पुलिस को हिंसक दौर से गुजरना पड़ा, यह किसी से छुपा नहीं है. इसके लिए आखिर कौन जिम्मेदार है? किसकी शह पर इन्हें सरकारी जमीनें उपलब्ध कराई जातीं हैं?

धर्म की आड़ में कानूनों, भू-कानूनों का दुरुपयोग जग जाहिर है. यह सब सरकारों के लचर रुख के कारण होता है. रामवृक्ष यादव और उसके अनुयायियों को जिस तरह राजनीतिक संरक्षण दिया गया, वह बिल्कुल गलत था.

लोकतंत्र में गलत परंपराओं की शुरुआत पूरी व्यवस्था का गला घोंट रही है. अभिव्यक्ति की आजादी का अतिवाद लोकतंत्र की जड़ों को खोखला कर रहा है. देश में बढ़ता आतंकवाद, नक्सलवाद और अलगाववाद अभिव्यक्ति की स्वच्छंदता का ही परिणाम है.

मथुरा हिंसा से पुलिस अपना पल्ला नहीं झाड़ सकती है. प्रशासनिक लापरवाही का नतीजा रहा कि भगवान कृष्ण की नगरी में रामवृक्ष सरीखे कंस ने खूनी खेल खेला. सत्याग्रह के नाम पर उसके सनकी विचारों को जिस तरह प्रशासनिक संरक्षण दिया गया, आज वही प्रशासन और सरकार की गले की फांस बन गया. दो साल में सत्याग्रह की आड़ में रामवृक्ष ने अपना पूरा साम्राज्य खड़ा कर लिया लेकिन पुलिस उसका कुछ नहीं कर पाई.

सत्याग्रह के लिए महज दो दिन का वक्त लेने वाले रामवृक्ष के संगठन को दो साल का समय कैसे मिल गया? पुलिस विभाग का खुफिया तंत्र क्या कर रहा था? निश्चित रूप से इस मामले में पुलिस विभाग ने जरूरत से अधिक लापरवाही बरती. मथुरा जिला प्रशासन और सरकार ने रामवृक्ष की बढ़ती अतिवादी मांगों पर गौर नहीं किया. खुफिया विभाग ने अगर उसकी तैयारियों और नक्सलवादी विचाराधारा के बारे में जानकारियां जुटाईं होतीं तो आज यह स्थिति नहीं आती. दो पुलिस अफसरों के साथ 28 लोग हिंसक सत्याग्रह की बलि नहीं चढ़ते.

सरकार और जिला प्रशासन ने समय रहते कदम नहीं उठाया. जयगुरुदेव आश्रम में मारपीट करने के बाद उस और समर्थकों पर मुकदमा भी हुआ. उस पर इस दौरान 10 मुकदमे हुए. लेकिन, पुलिस ने यह जांच कभी नहीं कराई कि रामवृक्ष के आजाद हिंद विचाराधारा से कौन, कैसे और कहां के लोग जुड़ रहे हैं और क्यों जुड़ रहे हैं? वह लोगों को अपनी सनक और बेतुकी मांगों से कैसे प्रभावित कर रहा है? इसकी वजह क्या है? जवाहरबाग में जमा ढाई हजार से अधिक लोग और युवा कहां से हैं? संगठन में शामिल इन लोगों की पृष्ठभूमि क्या है? समय रहते पुलिस ने अगर इस तरह की पड़ताल और आवश्यक खुफिया जानकारी जुटाई होती तो आज उसे अपने ही जाबांज पुलिस अफसरों को न खोना पड़ता. लेकिन, दुर्भाग्य से यह नहीं हुआ.

रामवृक्ष किसी विचारधारा का पोषक नहीं था. वह विचाराधारा की आड़ में जयगुरुदेव का उत्तराधिकारी बन अकूत संपत्ति पर कब्जा करना चाहता था. उसकी तरफ से यह बेतुकी अफवाह फैलाई गई थी कि जयगुरुदेव नेताजी सुभाषचंद्र बोस के नए अवतार हैं. वह अपने अनुयायियों की एक फौज खड़ी करना चाहता था जिसके लिए उसने नेताजी के विचारों को आगे लाकर गरीब युवाओं को अपना शिकार बनाया.

मथुरा जिला प्रशासन ने वन विभाग की शिकायत पर उसे कई बार जवाहरबाग से बेदखल करने की कोशिश की लेकिन कोशिश नाकाम रही. उसके समर्थक इतने उग्र थे कि अधिकारियों को बंधक बना लेते और हिंसा पर उतर आते. पुलिस पीछे हट जाती. उसी का नतीजा है कि उसने बाग की 270 एकड़ जमीन पर कब्जा जमा लिया था. इसे खाली कराने के लिए पुलिस को अपने दो जांबाज अफसरों एसपी सिटी मुकुल द्विवेदी और एसएचओ फरह संतोष यादव को खोना पड़ा.

सरकार प्रतिपक्ष के निशाने पर है क्योंकि अगले साल राजनीतिक लिहाज से सबसे बड़े राज्य में आम चुनाव होने हैं. लिहाजा भाजपा, बसपा और कांग्रेस जैसे दल चुप कहां बैठने वाले हैं. भाजपा के लिए यह किसी संजीवनी से कम नहीं है. उसे सरकार को घेरने का अच्छा मौका मिल गया है. हलांकि, यह वक्त राजनीति का नहीं है. सत्ता किसी के भी हाथ में हो, होनी को नहीं रोका जा सकता है. लेकिन, आवश्यक कदम उठा कर इसकी भयावहता कम की जा सकती थी.

रामवृक्ष यादव को प्रदेश सरकार की तरफ से 15 हजार पेंशन भी दी जाती रही.

इस आंदोलन के पीछे किसी राष्ट्रविरोधी संगठन की साठ-गांठ हो सकती है. कथित सत्याग्रहियों की पूरी कार्यप्रणाली नक्सलियों के तरीकों पर आधारित रही. नक्सलवाद, आतंकवाद आज इसी तरह की संस्थाओं और संगठनों का अतिवाद है. इसकी पीड़ा देश को अलग-अलग हिस्सों में झेलनी पड़ रही है.

लोकतंत्र में अपने अधिकारों के लिए सभी को समान अवसर उपलब्ध हैं. लेकिन, अधिकारों की आड़ में संबंधित आंदोलन की दिशा क्या है, इस पर भी विचार होना चाहिए. इस तरह के संगठन, संस्थाओं और संप्रदायों पर प्रतिबंध लगना चाहिए जो विचाराधारा और धर्म की आड़ में कानून को हाथ में लेकर खूनी खेल खेलते हैं. सरकारों को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए जिससे मथुरा जैसी कंसलीला पर प्रतिबंध लगाया जा सके. यह समय की मांग है.

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