जनता के मनमोहन-प्रेम में सत्ता से नाराज़गी भी शामिल है ?
श्रवण गर्ग
डॉ मनमोहन सिंह ने जीते-जी कभी सोचा भी नहीं होगा कि जब वे नहीं रहेंगे उनका अंतिम संस्कार इस तरह से होगा, इतने सम्मान से होगा या उनके पार्थिव शरीर के अंतिम दर्शन के लिए राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से लगाकर विदेशी शासनाध्यक्ष और राजनयिकों सहित वे तमाम लोग भी उपस्थित रहेंगे, जो उन्हें एक रबर स्टैंप या ‘एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ करार देते हुए जीवन भर आलोचना करते रहे !
डॉ सिंह भाग्य के धनी थे. जन्म भी सही स्थान और सही समय पर हुआ होगा क्योंकि जिस भी क्षेत्र में प्रवेश किया नाम ही कमाया. उच्च शिक्षण संस्थानों में पढ़ाई की और प्रतिष्ठित संस्थानों में पढ़ाया और सेवाएँ दीं. राजनीति में प्रवेश किया और मंत्री बने तो पद की गरिमा को बनाए रखा. सोनिया गांधी ने जब प्रधानमंत्री पद की पेशकश को ठुकरा कर उनका नाम प्रस्तावित किया तो उसे भी विनम्रता के साथ स्वीकार कर लिया. कभी कोई शिकायत नहीं की कि दिल्ली में सत्ता के दो केंद्र बन गए हैं.
साल 2014 के चुनावों में जब झूठे आरोपों के चलते यूपीए हार गई और सत्ता छोड़नी पड़ी तब भी कोई कष्ट नहीं महसूस किया. फिर से एक सामान्य सांसद बन गए. गांधी परिवार को लेकर न कभी कोई किताब लिखी और न किसी संघ या संगत के समागम में हाज़िरी दर्ज कराई. देश की राजनीति से एक सज्जन आदमी हमेशा के लिए अनुपस्थित हो गया.
डॉ मनमोहन सिंह को चाहने वाले अपने पूर्व प्रधानमंत्री को दुनिया भर से मिल रहे सम्मान से अभिभूत हैं. वे लोग जो हुकूमत में हैं संभवतः सकते में होंगे कि उनकी बड़ी-बड़ी एजेंसियाँ या निजी जासूस भी डॉ सिंह की जनता के बीच लोकप्रियता को लेकर किसी तरह का अनुमान नहीं लगा पाए ?
सही पूछा जाए तो राहुल गांधी को भी दूर-दूर तक आभास नहीं रहा होगा कि उनकी ही पार्टी के जिस प्रधानमंत्री की कैबिनेट द्वारा पारित अध्यादेश को उन्होंने सार्वजनिक रूप से बकवास बताते हुए फाड़कर उसका अपमान किया था वह अंत में इतना चमत्कारी और सिद्ध पुरुष साबित होगा. डॉ सिंह की अंत्येष्टि के दौरान राहुल गांधी अगर आंखें पोंछते हुए नज़र आए हैं तो उसे उनका पश्चाताप भी माना जा सकता है.
राजनीति, ग्लैमर, धर्म,आदि के इलाक़ों की वे तमाम हस्तियां जो अपनी लोकप्रियता को लेकर आत्ममुग्धता के दलदल में पाताल तक धंसी जा रही हैं उन्हें किन्हीं निष्पक्ष विदेशी एजेंसियों की मदद से पता करना चाहिए कि एक दिन जब वे नहीं रहेंगीं तब जनता उनके बारे में क्या बातें करेगी, किस तरह की श्रद्धांजलियाँ व्यक्त करेगी !
पुराने ज़माने के राजाओं की तरह वर्तमान की राजनीति के सिद्ध पुरुष वेश बदलकर जनता के बीच इसलिए नहीं जा सकते हैं कि उनके आसपास चौबीसों घंटे मंडराते रहने वाली चापलूसों की जमात किसी नई जनता को पेमेंट देकर ‘पॉजिटिव’ फीडबैक देने के लिए रातों-रात बस्तियों में तैनात कर देगी.
डॉ सिंह के प्रति उमड़ रही श्रद्धा को अप्रत्यक्ष तरीक़ों से वर्तमान व्यवस्था के प्रति जनता की नाराज़गी का भी प्रकटीकरण इस लिहाज़ से माना जा सकता है कि यूपीए सरकार के दस सालों की उपलब्धियों की तुलना एनडीए हुकूमत के दो दशकों के कामकाज से की जा रही है और मोदी उसमें कमज़ोर दिखाई पड़ रहे हैं.
डॉ मनमोहन सिंह को लेकर जो जनता इस समय वाहवाही कर रही है उसने उनके दूसरे कार्यकाल के दौरान बिलकुल नहीं की. वह उनकी सरकार के ख़िलाफ़ मोदी के नेतृत्व में लगाए गए फ़र्ज़ी आरोपों के बहकावों में आ गई.जनता ने अगर वाहवाही की होती तो वह 2014 में तीसरी बार भी डॉ सिंह को सत्ता सौंप देती.
अटलजी के प्रति जो सम्मान उनके निधन के बाद व्यक्त हुआ वह जनता के बीच उनकी उदारवादी नेहरू छवि का परिणाम था. डॉ सिंह के पहले पाँच सालों के कामकाज की तुलना अटलजी के पाँच साल के कार्यकाल से कभी नहीं की गई. साथ ही यह भी कि 2004 के विपरीत चुनाव परिणामों ने अटल जी को निराशा में डाल दिया था जबकि 2014 की पराजय के बाद भी डॉ सिंह 92 साल की उम्र तक सक्रिय बने रहे.
डॉ मनमोहन सिंह अपने निधन में भी देश की एक बड़ी सेवा यह कर गए कि हुकूमत में क़ाबिज़ लोगों को सफल होने का ताबीज़ बाँट गए. ताबीज़ यह कि वोटों के ज़रिये सिर्फ़ सत्ता को जीता जा सकता है, जनता को नहीं. जनता को जीतने के लिए बिना अहंकार प्रदर्शित किए काम करके दिखाना होगा.
देखना यह है कि सत्ता के वे प्रतिनिधि जो डॉ मनमोहन सिंह के पार्थिव शरीर के सामने सिर झुकाए खड़े फ़ोटुओं में नज़र आते हैं उस ताबीज़ का इस्तेमाल किस तरह से करने वाले हैं !