मणिपुर का संदेश
मणिपुर फर्जी मुठभेड़ मामले में सर्वोच्च न्यायालय का आदेश नागरिकों के अधिकारों को फिर से स्थापित करने वाला है
मणिपुर में हुए फर्जी मुठभेड़ पर सर्वोच्च न्यायालय ने जुलाई, 2016 में अंतरिम फैसला सुनाया था. केंद्र सरकार ने इसे चुनौती देने के लिए एक याचिका दायर की. लेकिन यह खारिज हो गया. एक ऐसे समय में जब सरकार राष्ट्र हित के नाम पर असीमित अधिकार पाने की कोशिश कर रही है, सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने वाला है. मुख्य न्यायाधीश जेएस केहर की अध्यक्षता वाली पांच जजों की बेंच ने स्पष्ट तौर पर कहा कि आंतरिक संघर्ष को युद्ध जैसी स्थिति नहीं कहा जा सकता और सरकार मणिपुर की स्थिति को युद्ध की स्थिति बताकर नहीं आगे बढ़ सकती. बेंच ने कहा कि संविधान में जिस आंतरिक संघर्ष का जिक्र किया गया है, मणिपुर में वही स्थिति है, न उससे अधिक और न उससे कम.
जिस मामले में अदालत ने 2016 में अंतरिम फैसला दिया था, उसे 2012 में मणिपुर के एक गैर सरकारी संगठन ईईवीएफएएम ने दायर किया था. इस संगठन ने 2000 से 2012 के बीच 1,582 मौतों को दर्ज किया था. इसके आधार पर अदालत में दायर याचिका में संगठन ने अदालत ने स्वतंत्र जांच की मांग की थी. इसने कहा था कि सैन्य बलों को आफ्सपा के तहत जो विशेष अधिकार मिले हुए हैं, उनका दुरुपयोग करके लोगों को प्रताड़ित किया जा रहा है और मारा जा रहा है. इस याचिका पर सबसे पहले अदालत ने न्यायमूर्ति संतोष हेगड़े की अध्यक्षता में छह मामलों की जांच के लिए एक समिति बनाई. इसने पाया कि ये सभी मामले में गैरन्यायिक हत्या के हैं.
याचिकाकर्ता के अपील पर अदालत ने मणिपुर के बाहर के पुलिस अधिकारियों की एक विशेष जांच दल का गठन किया है. इनका काम है याचिका में दर्ज मामलों की जांच करना. मणिपुर के लोगों द्वारा और इरोम शर्मिला द्वारा अनशन करके आफ्सपा हटाने की मांग के बीच 2014 में केंद्र सरकार ने न्यायमूर्ति बीपी जीवन रेड्डी की अध्यक्षता में मणिपुर की स्थिति का अध्ययन करने के लिए एक समिति का गठन किया था. समिति ने यह कहा कि मणिपुर की स्थिति एक गंभीर बीमारी का लक्षण मात्र है.
समिति ने यह सिफारिश की कि आफ्सपा हटाया जाए और 1967 के गैरकानूनी गतिविधि कानून में भी संशोधन किया जाए. लेकिन ये सुझाव अब तक नहीं माने गए.
अब अदालत ने केंद्र की उस कोशिश को नाकाम कर दिया है जिसके जरिए 2016 के अदालती फैसले की मूल भावना को चोट करने की कोशिश हुई थी. अब इसमें कोई अस्पष्टता नहीं है कि सुरक्षा बलों को गैरन्यायिक हत्याओं के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है. मणिपुर का यह मामला दूसरे हिस्सों के लिए भी प्रासंगिक है.
अदालत ने यह भी कहा है कि सेना का इस्तेमाल सिविल प्रशासन की मदद के लिए किया जा सकता है लेकिन यह अनिश्चित काल तक नहीं चल सकता. अदालत ने यह भी कहा कि किसी अशांत क्षेत्र में लागू किसी नियम का उल्लंघन करते हुए अगर कोई व्यक्ति हथियार लेकर जा रहा हो तो उसे आतंकवादी या उग्रवादी नहीं करार दिया जा सकता.
सबसे महत्वपूर्ण अदालत की यह बात है, ‘अगर हमारे सैन्य बलों को सिर्फ संदेह या आरोप के आधार पर अपने देश के नागरिकों को मारने के लिए तैनात किया गया है और भर्ती किया गया है तो न सिर्फ कानून का राज बल्कि लोकतंत्र खतरे में है.’ यही कश्मीर और छत्तीसगढ़ में हो रहा है. न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर और न्यायमूर्ति उदय ललित के इस फैसले का व्यापक प्रसार होना चाहिए.
अदालत ने सरकार के उस तर्क को नहीं माना जिसमें कहा गया कि अगर सुरक्षा बलों को फर्जी मुठभेड़ों के लिए जिम्मेदार ठहराया गया तो यह ऐसा होगा जैसे उनका एक हाथ पीछे बांधकर उन्हें संघर्ष में उतार दिया गया हो. सरकार अपने ही नागरिकों के साथ लड़ी जा रही हर आंतरिक लड़ाई में यही तर्क देती है. यह तर्क देते वक्त वह भूल जाती है उन इलाकों में रहने वाले लोगों के दोनों हाथ बंधे हुए हैं.
मणिपुर में 23 लाख लोगों को सैन्य बलों के कब्जे में रहना पड़ रहा है. वह भी इसलिए कि सिर्फ 5,000 आतंकवादियों से निपटने के नाम पर. ऐसे में आफ्सपा और गैरकानूनी गतिविधि प्रतिबंध कानून को बरकरार रखने का क्या तर्क है? हमें यह याद रखना चाहिए कि कश्मीर में भले ही लोगों ने सरकार की नीतियों को खारिज कर दिया हो लेकिन मणिपुर के लोग अभी भी इसे मान रहे हैं.
चुनावों में भारी संख्या में मतदान इसकी गवाही दे रहा है. लेकिन फिर भी भारत सरकार यह नहीं समझ पा रही है कि आम मणिपुरी नौजवान शांति से अपना जीवन गुजारना चाहता है. बल्कि लोगों को यह संदेश दिया जा रहा है कि आपका मतदान आपको नागरिकता देता है लेकिन हम अपनी ताकत से आपको नागरिक नहीं मानेंगे. इससे देश के सभी लोगों को चिंतित होना चाहिए, चाहे वे संघर्ष क्षेत्र में रह रहे हों या नहीं.
1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक के संपादकीय का अनुवाद