ईश्वरीकरण का यह दौर
डॉ. विक्रम सिंघल
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मोमबत्ती, दीया या टॉर्च लाइट जलाने की जब बात कही तो कई सवाल और ख़्याल मन में आये. पहला ख्याल तो यही कि क्या हमें यह स्वेच्छा से करना है ? क्योंकि बिजली सरकारें बंद भी कर सकती हैं, हालांकि उसके लिए सभी राज्य सरकारों को भी सहमत होना होगा, लेकिन इसमें तो रौशनी के अलावा भी तमाम बिजली के यन्त्र बंद हो जायेंगे. उनमें ऐसे भी यन्त्र होंगे, जिन्हें बंद नहीं किया जा सकता, जैसे वेंटिलेटर, जो आज की राष्ट्रीय पहचान या स्टेटस का परिचायक बन गया है. तमाम देश यह प्रदर्शित करने की कोशिश कर रहे हैं कि वो कितने वेंटिलेटर्स बनाने और प्रयोग करने की स्थिति में हैं.
मन में यह भी सवाल उठा कि यह जो बिजली बंद करना है, यह क्या उनके साथ एकजुटता नहीं है, जिनके घरों तक तमाम दावों के बाद भी बिजली का तार नहीं खींचा है और NFHS के अनुसार जिनकी संख्या ग्रामीण इलाकों में लगभग 15% है. यानी लगभग 3 करोड़ ग्रामीण घरों तक बिजली के तार नहीं खिंचे हैं. यूं भी 50% घरों को 12 घंटों से कम बिजली मिलती है तो उन्हें हर रात कुछ समय तो इन्हीं दीये, टॉर्च और मोमबत्ती की रोशनी के सहारे गुजारा करना पड़ता होगा.
खैर, इस गरीब मुल्क को छोड़िये. अभी एक सप्ताह पहले ही 28 मार्च को पूरी दुनिया ने “अर्थ ऑवर” मनाया है और एक घंटे के लिए रौशनी बंद किया था. वहां भी सवाल धरती और पर्यावरण के सवालों पर एकजुटता का ही था. लेकिन हमने उसमें भाग नहीं लिया.
हबीब जालिब की वह मशहूर नज़्म याद आती है, जो पिछले कुछ समय से हिंदुस्तान में बेहद लोकप्रिय हुई है- “दीप जिसका महल्लात ही में जले ….” यह नज़्म सच्चाई और कहानी के बीच का फ़ासला बयां करती है और उसी के साथ यह उद्घोष भी करती है कि नियम, सत्ता और आदेश यदि जनविरोधी हों तो अवैध होते हैं.
इस नज़्म को अक्षरशः चरितार्थ होते देखना एक विचित्र अनुभव है. इसमें हताशा के क्षणों का रोमांच उभरता है. जैसे कोई व्यक्ति बुरे भविष्यवाणी के सच होने पर अपने संकट से ज्यादा ज्योतिषी की कुशलता पर रोमांचित होता है.
मन में तकनीक से जुड़े सवाल भी मन में आये कि बिजली को तो कहीं जमा किया नहीं जा सकता. वह तो उत्पादन और उपभोग की सतत प्रक्रिया है. अगर लोगों ने स्वेच्छा से सिर्फ बत्तियां बुझाई तो लगभग 20 करोड़ परिवारों में लगभग 100 वाट की कमी का मतलब 20000 मेगावाट की बचत होगी. लेकिन सिर्फ 9 मिनट उत्पादन घटाना और उसके तुरंत बाद उसे फिर स्थापित करना न तो उत्पादन की दृष्टि से संभव लगता है और न ही उसके वितरण में लगे ग्रिड व्यवस्था के लिए।
हमें पता है कि सिर्फ उत्तरीय ग्रिड की खराबी से लगभग 5-6 घंटों के लिए पूरे उत्तर भारत में बिजली की आपूर्ति नहीं हो पाती और मुझे याद पड़ता है कि कुछ साल पहले ही ऐसी एक घटना के लिए तत्कालीन ऊर्जा मंत्री को इस्तीफा देना पड़ा था। यह रवायत अब नहीं है क्योंकि अब मंत्रियों के पास न तो अधिकार बचे हैं और न ही दायित्व, सारे अधिकार और दायित्व अब एक ही पद में समाहित हो गए हैं।
कुछ राज्य सरकारों ने निर्देश जारी किये हैं कि इसके लिए विस्तृत तैयारी की जाये और क्रमवार भागों से उत्पादन को घटाया जाए लेकिन तब भी इस प्रक्रिया का कोई अनुभव या स्मृति नहीं होगी. ऐसे में संस्थागत अनिश्चितता और उससे उपजने वाली जवाबदेही के संकट से निपटना भी एक बड़ा प्रश्न है, जिसके लिए हमारे पास प्रशासनिक क्षमता नहीं है. आनंद विहार में मेहनतकश और मज़दूरों की उमड़ी भीड़ से हम किस तरह निपटने में अक्षम रहे और किस तरह सरकार ने उच्च अदिकारियों को निलंबित कर दिया; यह वाकया अभी हाल ही का है.
इन त्वरित प्रश्नों के बाद जब लोगों की प्रतिक्रिया देखने का मौका मिला तो वह एक नया अनुभव था. हालाँकि पिछले कुछ वर्षों से यह विश्वास स्थापित हो चला है कि हम सामूहिक मूर्खता का उत्सव मानाने के दौर में हैं. लेकिन यह कुछ अलग था, जब 12 घंटों की जनता कर्फ्यू पर तर्क आये तो लगा कोई बात नहीं प्रेम और भक्ति लोगों से बहुत कुछ करवा लेती है. लेकिन जब एक डॉक्टर अग्रवाल को इसके प्रमाण, योगवशिष्ठ से देते देखा तो उस बौद्धिक अहंकार को गहरी चोट लगी जो हम डॉक्टर अपने भीतर पालते हैं. लेकिन अपनी पहचान की गहराइयों में बसी इस चेतना का त्याग, कोरी राजनैतिक भक्ति के लिए नहीं हो सकती. ऐसा तो केवल प्रपत्ति में ही संभव है और शायद हम प्रधानमंत्रीजी के ईश्वरीकरण के दौर से गुजर रहे हैं.