राष्ट्र

ऐसी थी गांधी की अंतिम यात्रा

मैलविल डी मैलो
बापू की अंतिम यात्रा के गवाह थे मैलविल. 2 अक्तूबर 1948 को अंगरेजी में ‘रेमिनिसेन्सस ऑफ गांधी:द लास्ट जर्नी’नाम से मैलविल डी मैलो ने एक संस्मरण लिखा था. इसे हम गांधी मार्ग से साभार प्रस्तुत कर रहे हैं.

किसी महात्मा के बारे में कोई कैसे लिख सकता है? महात्मा गांधी की मृत्यु के बाद मुझसे इस बारे में कुछ लिखने का आग्रह किया गया. तब मैंने अपने से यही प्रश्न पूछा था. मैं उन पर कुछ लिख कर देने का अपना वायदा पूरा करने बैठा हूं, पर अभी भी मुझे उस प्रश्न का उत्तर मालूम नहीं है.

मैं रेडियो पर प्रसारण का काम करता था. कुछ इस परिस्थिति के कारण और कुछ भाग्य के कारण मुझे एक ऐसी जगह मिल गयी थी, जहां से मैं बापू की अंतिम यात्रा के अंतिम दिन, अंतिम घंटे और अंतिम क्षणों का हृदय-विदारक दृश्य देख सका था. मेरे लिए वह रात लंबी थी, आंसुओं से भरी हुई. एक ऐसी त्रसदी थी, शोक की ऐसी धारा थी, जिसका वर्णन करने के लिए आज भी शब्द नहीं हैं मेरे पास. जैसे-जैसे समय बीत चला है, उन क्षणों का अपार दर्द कुछ कम हुआ है और मेरे मन में अब उस समय के कुछ दृश्य थोड़े ज्यादा साफ होकर उभरने लगे हैं.

ये दृश्य साधारण नहीं हैं शायद, लेकिन ये वे दृश्य हैं जिन्हें मैं कभी भुला नहीं पाऊंगा. उस दिन संस्कार होने वाला था. मैं सुबह जल्दी ही, कोई छह बजे बिड़ला हाउस पहुंच गया था, ताकि भीड़ के आने से पहले ही मैं उनके अंतिम दर्शन कर लूं. पर वहां मैंने देखी शोक में डूबे दर्शनार्थियों की एक लंबी टेढ़ी-मेढ़ी कतार. जहां उनका शरीर रखा गया था, उस कमरे की खिड़की से उन्हें प्रणाम कर यह कतार धीरे-धीरे आगे सरक रही थी.

मुझे बिड़ला-परिवार के एक सदस्य ने घर के एक अन्य रास्ते से उस कमरे तक पहुंचाया. चिरनिद्रा में लेटे महात्मा. खुली चौड़ी छाती. छाती पर गोलियों के काले निशान. किसी अनिष्ट, अपशकुन की तरह घृणा और उन्माद के निशान. मैं उन्हें देख सिहर उठा. फिर देखा मैंने उनका चेहरा. मृत्यु में भी एकदम शांत. कैसा अद्भुत चेहरा था उनका.

राजघाट पर भावनाओं का वह तूफान….

और शोक में डूबे दर्शनार्थियों के चेहरे तो जैसे एक किसी धुंध में बिलकुल एक शून्य-से बन गये थे. अगरबत्तियों की पावन सुगंध मानो किसी दूर के स्वर्ग से उस जगह नीचे उतर आयी थी. और जो शांति पाठ चल रहा था, लगता था वह उन देवदूतों द्वारा किया जा रहा था जब बापू की आत्मा स्वर्ग की ओर ऊपर उठ रही थी. चेहरे ने मुझे बांध-सा रखा था. श्रद्धांजलि अर्पित करने वाले लोग खिड़की से उनके पार्थिव शरीर के दर्शन करते और गुलाब की पंखुड़ियां अर्पित करते.

इन पंखुड़ियों की बौछार के बीच उस चेहरे को देखते हुए कुछ शब्द मेरे मन में उठने लगे. स्तब्ध से हो चले मेरे शरीर में ये शब्द धीरे-धीरे कहीं गहरे उतर चले थे. ये वे शब्द थे, जिन्हें मैंने अपने बचपन में सुना, सीखा था. ये वे शब्द थे जिन्हें ईसा मसीह ने सूली को उठाते हुए कहा था : परम पिता, उन्हें आप क्षमा कर देना; वे जानते नहीं कि वे क्या कर रहे हैं. तब मुझे लगा कि बापू के होंठ कुछ हिले-से हैं और वे यही तो कह रहे थे. क्षमाभाव का मूर्तरूप था उनका वह चेहरा.

मैं मौन, स्तब्ध खड़ा था. मेरे पीछे कोई थे जो किसी तरह अपनी सिसकियां रोकने की असफल कोशिश कर रहे थे. मैंने सीधे मुड़ कर देखा. घोर संताप से ग्रस्त देश के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का चेहरा था वह. मैं धीमे से पीछे हटा, हमारे इस युग की उस महान विभूति को आंसुओं से और गुलाब की पंखुड़ियों से भरे कमरे में छोड़ कर.

राजकीय शोक यात्रा में रेडियो की मेरी गाड़ी धीरे-धीरे रेंगती चल रही थी. क्वीन्सवे, किंग्जवे, हार्डिग एवेन्यू और बेला रोड, होते हुए राजघाट की ओर. हमारी रेडियो गाड़ी के ठीक पीछे था वह विशेष वाहन, जिस पर महात्मा गांधी का पार्थिव शरीर आम जनता के दर्शन के लिए रखा हुआ था. उनके शरीर के आसपास पंडित नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल, देवदास गांधी, सरदार बलदेव सिंह, आचार्य कृपलानी और राजेंद्र प्रसाद कुछ ऐसे स्थिर से खड़े थे मानो संगमरमर की मूर्ति हों. और खड़े थे रास्ते में दोनों तरफ लाखों लोग. लाखों कंठ बापू के प्रिय भजनों को गा रहे थे. लाखों उनकी अमरता, उनकी जय-जयकार कर रहे थे. और सब रो रहे थे. लोगों के इस समुद्र में मुझे एक भी आंख ऐसी नहीं दिखी जो सूखी हो.

हम जिला जेल के पास से गुजर रहे थे. कोई दो माह पहले ही बापू यहां के कैदियों को संबोधित करने आये थे. इसी के आगे अकेली अलग-थलग पड़ी वह उदास सड़क थी जो हमें चिता तक ले जाने वाली थी. यहीं मुझे साक्षी बनना था, उस अद्भुत दृश्य का जो प्यार और स्नेह का एक बहुत बड़ा दर्शन था.

डकोटा हवाई जहाज कतार में उड़ रहे थे. वे ऊपर से अर्थी वाली गाड़ी पर गुलाब की पंखुड़ियों की वर्षा करते, फिर अपने डैने जरा झुकाते, मानो वे नमन कर रहे हों और फिर कहीं घूम जाते, लौट आने के लिए. आसपास के पेड़ों से, घरों की छतों से भी इसी तरह पुष्प वर्षा होती जा रही थी. यहां लाखों लोग भोर सुबह से दर्शन के लिए खड़े थे. उनके सूखे कंठों से ‘महात्मा गांधी की जय’ के नारे चारों तरफ फैल जाते थे.

यहां आकर गाड़ियां थम गयी थीं. यात्रा का अंतिम पड़ाव आने वाला था. लोगों को अंतिम दर्शन मिल सके शायद इसलिए गाड़ियां रुक गयी थीं. मैं वेदना में डूबे लोगों के चेहरों को टकटकी लगाये देख रहा था. तभी मुझे एक स्त्री की हल्की-सी आवाज सुनायी पड़ी : ऐसा तो हो नहीं सकता. मुझे तो लगता है कि वे कल की प्रार्थना सभा में वापस आ जायेंगे और हमें भरोसा दिलायेंगे कि वह तो बस एक गलती थी.

वह अपने आपसे ही बात कर रही थी क्योंकि उसके पास खड़ा था एक बूढ़ा, जजर्र हो चुका भिखारी. उसकी आंखें रो-रोकर सूज चुकी थीं. होंठ नीले पड़ गये थे और कुछ घाव थे जो न जाने कब से साफ नहीं हो पाये थे. चिथड़ों में लिपटा उसका शरीर गरीबी के एक अंतहीन जीवन में बिना किसी आशा के भटक रहा था. भिखारी रोये चला जा रहा था. पास खड़ी यह संभ्रांत महिला भी रो रही थी. ये दो छोर थे जिन्हें इस घटना ने एक दूसरे के साथ ऐसा खड़ा कर दिया था जैसा और कोई घटना शायद ही कभी कर पाती. गांधीजी उस भारत के मूर्तरूप बन गये थे, जिस भारत ने इतना कुछ सहा था और इतना परिश्रम किया था. उनकी सादगी ने लाखों का मन जीत लिया था, उन्हें अपनी तरफ खींच लिया था.

रेडियो की हमारी गाड़ी थोड़ी और आगे बढ़ी थी. हमने सुना एक बच्चा अपनी मां से बहुत भोलेपन से पूछ रहा था कि क्या ये बापू हमेशा के लिए चले गये हैं? वे अब वापस नहीं आने वाले क्या? मां ने कुछ उत्तर तो दिया था, पर वह उत्तर घोड़ों की टापों की आवाज में, लोगों की सिसकियों की आवाज में कहीं खो चुका था.

पार्थिव शरीर को लेकर आ रही गाड़ी से कुछ पहले ही हम राजघाट पहुंच गये थे. रेडियो की एक और गाड़ी भी थी जो हमसे भी पहले चिता की जगह के पास जा खड़ी हुई थी. भीड़ से थोड़ा ऊपर उठ कर देखने के लिए मैं अपनी गाड़ी की छत पर चढ़ गया था. जो पहली बात ऊपर चढ़ने पर समझ आयी, वह थी चिता के आसपास की व्यवस्था. आरआइएएफ और पुलिस के असंख्य जवान एकदम कंधे से कंधा सटा कर चिता के स्थान को घेरे खड़े थे. इसी बीच पार्थिव शरीर लिये गाड़ी वहां आ पहुंची थी. बहुत कुछ तश्तरी जैसी जमीन के इस बड़े से टुकड़े पर इंतजार कर रहे लाखों लोग अब फिर अपने को रोक नहीं पाये और सुबक-सुबह कर रोने लगे थे.

चंदन की लकड़ियों की चिता से पहली लपट आकाश की ओर उठी और उधर सूरज डूब गया था. लहरों की तरह लोग आगे बढ़ रहे थे. और इन लहरों से उठ रही थी सिसकियों की आवाजें. लगता था मानो राजघाट पर कोई तूफान उतर आया हो. यह भावनाओं का तूफान था. अब तक की व्यवस्था इसने तोड़ दी थी. स्त्री-पुरुष सब ने बाड़ तोड़ दी, रस्से, खंबे, तार, गार्ड, पुलिस सब कुछ उस तूफान का अब एक हिस्सा बन चुके थे. अब सब धीरे-धीरे उस चंदन की चिता की परिक्रमा में लगे थे. चंदन की लपटें भी ऊपर-ऊपर उठ चली थीं और उसकी सुगंध अब पूरी सांझ के प्रकाश में फैल गयी थी. राज्यपाल, राजदूत, केंद्रीय मंत्री और सर्वसाधारण, सब लोग यमुना के किनारे के इस छोटे से टुकड़े में समा गये थे आज. मानवता की अटूट इस श्रृंखला में उठती लहरों के बीच मैंने अपने को पत्ती पर, तिनके पर सवार उस लाचार चींटी की तरह पाया था जो एक भंवर के बीच फंस गयी हो.

लपटें और ऊंची उठती गयीं. लाखों लोग के कदमों से उठी धूल अब राजघाट के आकाश में छा-सी गयी थी. इन लोगों को लग रहा था कि उनका भविष्य स्वतंत्रता और प्रेम के इस पिता के बिना कितना शून्य जैसा होगा. इन लपटों में, चिनगारियों में वे अपनी आशाओं को भी जलते देख रहे थे. उनकी वह आशा कि बापू फिर से मुस्करायेंगे और बोल पड़ेंगे : भाइयो और बहनो! चेहरों के इस उदास समुद्र को देखते-देखते मुझे अचानक लगा कि मेरा गला रुंध गया है.

यह भाव तो सुबह से था, पर अब तो कुछ ज्यादा ही था. मैं इसे गुटक जाना चाहता था, पर वह हो नहीं पा रहा था. मैंने रेडियो कमेंट्री रोक-सी दी थी. दो चार ऊट-पटांग वाक्य जरूर मुंह से निकल गये थे. फिर मैंने अपना माइक हटा दिया. सारी ताकत बटोर कर मैंने अपनी नाक, मुंह में कुछ किया. गले की वह रुकावट अब दूर हो गयी थी. और फिर मुझे लगा कि मैं उदास मन वाले उस विशाल जन समूह का एक अभिन्न अंग बन गया हूं. अब मैं भंवर में फंसी चींटी नहीं हूं.

मुझे ऐसा लगा कि ये लाखों उदास मन अब सुनहरे-चमकीले तारों से, उसमें कहीं दूर छिपी अज्ञात शक्ति से अपने ज्ञात की, अपने प्रियजन की, अपने भरोसे की, अपने सत्य की वापसी मांग रहे हैं, पूरी विनम्रता के साथ. रेडियो कमेंट्री खत्म हो गयी थी. बचा भी क्या था बताने के लिए? मैं अपनी रेडियो-गाड़ी की छत पर चुपचाप बैठा था, इस इंतजार में कि यह भीड़ कुछ छंटे तो मैं भी वापस लौटूं. पर अब इस जरा-सी जगह में मेरे साथ कुछ विचित्र साथी जुड़ गये थे. एक महिला लगभग बेहोश हो गयी थी, उसे भी इसी गाड़ी की छत पर सुरक्षा और हवा के कारण लिटा दिया गया था. छोटे-छोटे दो बच्चे भीड़ में कुचल गये थे, उन्हें भी इसी पर बिठा कर संभाला जा रहा था.

और तभी मैंने देखा एक हाथ जो छत की पट्टी को पकड़ने की कोशिश में था. अरे ये तो प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू थे. मैंने उनका हाथ पकड़ा और खींच कर उन्हें ऊपर उठा कर मोटरगाड़ी की इस छोटी-सी छत पर बिठाया. आते ही उन्होंने पूछा कि क्या तुमने गवर्नर-जनरल को देखा है? हां, वे कोई आधे घंटे पहले लौट चुके हैं. और सरदार पटेल कहीं दिखे? मैंने फिर उत्तर दिया कि वे भी गवर्नर जनरल के पीछे कुछ समय बाद चले गये थे. भीड़ थी. भीड़ में मित्र, नेता सब गुम गये थे.

मोटर की छत पर खड़े नेहरूजी पहचान में आ गये थे अब तक. भीड़ गाड़ी के आसपास जमा हो गयी थी. लोगों को उम्मीद थी कि मोटर की छत से नेहरूजी लोगों को कुछ कहेंगे, सांत्वना देंगे. वे खड़े थे. मैं झुक गया था. साथ छोड़ गये पिता, बापू के शरीर को अब आग की लपटों ने पूरी तरह लपेट लिया था और इधर खड़ा था बेटा, उनका अनुयायी, जिसके हाथ में थी उनके विचारों की मशाल.

अंतिम यात्रा….

नई दिल्ली : फरवरी ग्यारह. समय है साढ़े चार बजे भोर सुबह. मैं उस हरे रंग की विशेष रेल के उस डिब्बे के आगे खड़ा हूं, जिसमें गांधीजी की अस्थियों का कलश रखा हुआ है. यह डिब्बा रेलगाड़ी के बीच में लगाया गया है. पूरी विशेष गाड़ी तीसरे दरजे के डिब्बों की है. गांधीजी हमेशा तीसरे दरजे में ही यात्रा करते थे. बीच का वह विशेष डिब्बा. प्रदीप्त रंगों से रंगा हुआ. एक आयताकार मेज पर एक पालकी में अस्थिकलश रखा था. मेज पर बिछी थी फूलों और हरी पत्तियों से बनी चादर. कलश ढंका था हाथ से बुने और हाथकते तिरंगे झंडे से. डिब्बे के चारों कोनों पर सुंदर पताकाएं टंगी थीं. डिब्बे के भीतर पूरी छत भी तिरंगे से ढंकी थी. कलश पर पड़ती विशेष रोशनी सारे वातावरण को एक अजीब-सी पवित्रता में स्नान करा रही थी.

प्लेटफार्म पर हजारों लोग अस्थिकलश की इस रेलगाड़ी को विदा देने खड़े थे. छह बज कर तीस मिनट पर इंजिन ने सीटी बजायी. रेल धीरे-धीरे सरकने लगी. लोग रोते हुए उस गाड़ी को देख रहे थे जो बापू के पाथिर्व शरीर के अंतिम अवशेषों को लेकर अब उनसे दूर जा रही थी. कुछ हाथ बंधे थे, कुछ हाथ फूलों की पंखुड़ियां अर्पित कर रहे थे चलती रेल पर, तो कुछ बस चुपचाप सिर झुकाये खड़े थे, उस व्यक्ति को विदा देने, जिसने उन्हें सिखाया था सिर उठा कर जीना.

यह हरी रेलगाड़ी दिल्ली से निकल धीरे-धीरे आगे बढ़ ही रही थी कि ठंडी सुबह की लालिमा उस पर पूरी तरह से बिखर गयी थी. हमारा डिब्बा अस्थिकलश वाले डिब्बे के बाद वाला था. रास्ते में सब शोकमग्न लोग पटरी के दोनों तरफ कलश वाली गाड़ी को अंतिम प्रणाम करने सिर झुकाये खड़े थे. दोनों तरफ खेतों में सरसों की पीली चादर बिछी पड़ी थी. हवा चलती, यह बड़ी चादर यहां से वहां लहरों में बदल जाती. बीच में कहीं-कहीं पगडंडियां थीं. मुझे न जाने क्यों इन पगडंडियों में उस विभूति के पगचिह्न् दिखते. वह पूरा हिंदुस्तान घूमा था, उन सबसे मिला था जो आज रेल की पटरी के दोनों ओर सिर झुका कर उसे विदा कर रहे थे.

गाड़ी चलती रही. दिल्ली से निकल कर गाजियाबाद, खुर्जा, अलीगढ़, हाथरस, टुंडला, फिरोजाबाद, इटावा, फफूंद, कानपुर, फतेहपुर और रसीलाबाद स्टेशनों पर जमा हुई भीड़ का वर्णन ही नहीं किया जा सकता. टुंडला में तो हमारा डिब्बा अस्पताल में बदल गया था. इस भीड़ में कुछ महिलाएं बेहोश हो गयी थीं, कुछ बच्चे कुचल गये थे और उन्हें बचाने में कुछ सिपाही भी घायल हुए थे. इन सबको हमारे ही डिब्बे में लाकर इनका प्राथमिक उपचार किया गया था. हर जगह हजारों की संख्या में लोग अंतिम दर्शन के लिए आये थे और इनमें से हरेक कलश पर फूल अर्पित किये बिना वापस नहीं लौटा था. डिब्बे के नीचे लोहे के पहिये का तालबद्घ संगीत, तो डिब्बे में भजनों का उतना ही लय में बंधा गान. और दोनों तरफ अभी भी सरसों के सुंदर पीले-पीले खेत.

संतरा लीजिए. आवाज सुन कर मुझे एकदम याद आया कि मैंने तो रात से अभी तक कुछ भी नहीं खाया है. मैंने अपनी बगल की सीट पर अभी-अभी आकर बैठे उस व्यक्ति को देखा. हम थोड़ी ही देर में मित्र बन गये. वे मुझे धीरे-धीरे बापू के प्रेरणादायी किस्से सुनाते गये. उनका नाम था श्री वीके सुंदरम्. वे पिछले बत्तीस बरस से बापू के साथ थे.

फतेहपुर शहर छूट चला था. गाड़ी धीरे-धीरे बढ़ रही थी. लोग और बच्चे गाड़ी के साथ-साथ भाग रहे थे. हाथों को फैलाये हुए, कलश पर चढ़े फूलों का प्रसाद पाने. कुछ बच्चे अपनी कमीज को झोली की तरह फैलाये खड़े थे कि गुजरती यह विशेष गाड़ी उनकी इस झोली में प्रसाद डाल कर आगे जाए. अब गाड़ी ने गति पकड़ ली थी. महात्मा गांधी की जय-जयकार की आवाजें धीमी पड़ती जा रही थीं. बगल में बैठे हमारे साथी एक सूख चुके फूल को हाथ में लिये बस देखते ही चले जा रहे थे. फिर उनकी आंखों से आंसू टपकने लगे.

मैं कुछ पूछता उसके पहले ही उन्होंने बहुत ही भावुक और धीमी आवाज में उत्तर दे दिया, इसी फूल को मैंने उनकी छाती पर गोली से बने घाव पर रख दिया था. इसके बाद हम दोनों के बीच फिर कोई बातचीत नहीं हुई. हमारी गाड़ी किसी छोटे स्टेशन को पार कर आगे बढ़ रही थी. पटरी के किनारे पर बने एक मकान की छत पर एक सिपाही खड़ा था. अपनी पूरी वर्दी में. कलश का डिब्बा जब उसके सामने से गुजरा, तो उसने पूरे आदर के साथ सिर झुका कर सलामी दी. एक शहीद को एक सिपाही की सलामी थी यह.

लाखों इस रेलगाड़ी के दोनों तरफ खड़े होकर पूरे रास्ते रोते रहे. लाखों इस गाड़ी के सामने प्लेटफार्म पर खड़े रोते रहे. और ये सब तरह के लोग थे. समाज के हर अंग से, हर कोने से आये ये लोग थे. ये पूरे देश की भावनाओं की झलक थी. और यह भावना धरती से होते हुए अब नदी में भी उतर आयी थी.

हम प्रयाग में त्रिवेणी पर थे. यहां फूल प्रवाहित किये जा रहे थे. अनंत काल से, अनंत युगों से जो स्थान पवित्रमय माना गया है, आज उसमें अपने इस युग के पवित्रतम व्यक्ति के फूल विसजिर्त किये जा रहे थे. प्रवाहित कर रहे थे श्री रामदास गांधी. हमारी यह नाव किनारे से कोई चालीस गज दूरी पर थी. हजारों लोग ऐसे थे जो भूमि समाप्त होने पर वहीं रुक नहीं गये थे. वे अब नाव के पीछे-पीछे जहां-तक हो सकता, घुटने-घुटने, कमर-कमर तक पानी में आ खड़े थे. कलश पूरा गंगा में उड़ेला जा चुका था. साथ ही दूध भी. नदी सफेद हो चमक उठी थी. यात्रा का अंत था. दिव्य प्रवाह के माध्यम से बापू अनंत में जा मिले थे.

प्रयाग पर अंधेरा छाने लगा था. दीये जलने लगे थे. हम सब भी वापस लौटने की तैयारी में थे. जाते-जाते हमने एक बार फिर संगम की तरफ देखा. गंगा में धीरे-धीरे दीये तैरते हुए टिमटिमा रहे थे, तो ऊपर आकाश में उतने ही तारे स्थिर से खड़े थे. टिमटिमाते तारे और टिमटिमाते दीये. बापू उन तारों में जा मिले थे, नीचे छूट गयी उनकी स्मृतियां उन दीयों की तरह थीं जो अंधेरे में भी कुछ आशा बिखेर रहे थे. ये दीये जलते रहेंगे, चमकते रहेंगे, तब तक जब तक हमारी यह सभ्यता रहेगी.

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