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मप्र में रियासतों का रसूख कायम

भोपाल | एजेंसी: मध्य प्रदेश की सियासत में रियासतों का दखल अब भी कायम है. ऐसा कहा जा सकता है कि यहां रियासतों के वारिसों के बगैर किसी दल की सियासत नहीं चलती. सत्ता में कोई आए, मगर उन्हें नकारना किसी के लिए आसान नहीं है. राज्य के गठन के बाद के 57 वर्षो का राजनीतिक इतिहास कुछ ऐसा ही बताता है.

देश की आजादी के बाद रियासतों का अस्तित्व मिट गया. उसके बाद सभी पूर्व रियासतों के मुखियाओं ने राजनीतिक दलों से नाता जोड़ा, क्योंकि वे सत्ता का हिस्सेदार बने रहना चाहते थे. आगे चलकर 1956 में मध्य प्रदेश का गठन हुआ तो रियासत से जुड़े यही लोग राज्य की राजनीति की मुख्यधारा का हिस्सा बन गए. राज्य में दर्जनों रियासतें और जागीरें थीं, जिनका अपने क्षेत्र में प्रभाव था और वे वहां के राजनीतिक मुखिया बन गए.

राज्य गठन के बाद से रियासतों व राज परिवारों के वारिसों की राजनीतिक हैसियत व रसूख पर नजर दौड़ाएं तो पता चलता है कि राज्य के 57 वर्षो में से 18 वर्षो तक रियासतों से जुड़े प्रतिनिधि मुख्यमंत्री रहे हैं.

सबसे ज्यादा समय तक राघौगढ़ रियासत के प्रतिनिधि दिग्विजय सिंह 10 वर्ष राज्य के मुखिया रहे, वहीं चुरहट रियासत के स्वर्गीय अर्जुन सिंह लगभग छह वर्ष तक मुख्यमंत्री रहे. इसके अलावा गोविंद नारायण सिंह व राजा नरेशचंद्र सिंह भी मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे. इन सभी का कांग्रेस से नाता रहा है.

वहीं, राज्य में जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी की जड़ें मजबूत करने में सिंधिया राजघराने की विजयाराजे सिंधिया का अहम योगदान रहा है.

राज्य की सियासत में रियासतों के दखल पर गौर किया जाए तो सिंधिया राजघराने की विजयाराजे सिंधिया, उनके पुत्र माधवराव सिंधिया व पुत्री यशोधरा राजे और माधव राव के पुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया की राजनीतिक हैसियत किसी से छुपी नहीं है. इसी तरह रीवा राजघराने के मरतड सिंह व उनकी पत्नी प्रवीण कुमारी और अब पुष्पराज सिंह राजनीति में सक्रिय हैं.

आगे बढ़े तो पता चलता है कि देवास राजघराने के तुकोजीराव पंवार, मकड़ई राजघराने के विजय शाह भाजपा सरकार में मंत्री हैं. पूर्व मुख्यमंत्री गोविंद नारायण सिंह के बेटे ध्रुव नारायण सिंह विधायक हैं. चुरहट रियासत के अजय सिंह विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष हैं, छतरपुर राजघराने के विक्रम सिंह, अलीपुरा सियासत के मानवेंद्र सिंह, कालूखेड़ा राजघराने के महेंद्र सिंह कालूखेड़ा से विधायक हैं.

वरिष्ठ पत्रकार गिरजाशंकर का कहना है कि देश की आजादी के बाद राजनीतिक दलों का कोई वोट बैंक नहीं था, इसलिए उन्हें रियासतों के विलीनीकरण के बाद चुनाव में उनका सहयोग लेना पड़ा. आज राज परिवारों का अस्तित्व कम भले हो गया, मगर उनका वोट बैंक आज भी है, लिहाजा कांग्रेस और भाजपा के लिए उन्हें साथ लेकर चलना मजबूरी है. वहीं दूसरी ओर, राजपरिवारों को भी राजनीतिक पार्टियों के संरक्षण की जरूरत है. इस तरह दोनों एक-दूसरे की जरूरत है.

राज्य में होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव में एक बार फिर राजघरानों से नाता रखने वाले वारिसों ने टिकट हासिल करने की कोशिशें शुरू कर दी हैं. राजघरानों के कुछ वारिस भाजपा का तो कुछ कांग्रेस का टिकट पाना चाह रहे हैं. दोनों दल एक दर्जन से ज्यादा स्थानों पर इन वारिसों को मैदान में उतारने की तैयारी में हैं.

विधानसभा चुनाव के बाद राज्य की सत्ता चाहे किसी भी के हाथ आए, मगर इतना तो तय है कि पुरानी रियासतों से नाता रखने वालों का असर नई सरकार में भी बरकरार रहेगा.

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