सूखती फसलों की चिंगारी
मुकेश भूषण
बाढ़ में किसान जीता है लेकिन सूखे में मर जाता है. यह कहावत देश के अन्य इलाकों के साथ-साथ मध्यप्रदेश में भी चरितार्थ होती नजर आ रही है. मध्यप्रदेश लगातार दूसरे साल, कुछ हिस्सों में तीसरे साल, सूखे की चपेट में है. इस प्राकृतिक आपदा से राहत पहुंचाने के सरकारी प्रयास ज्यादातर किसानों के जख्मों पर मरहम की बजाय मिर्च लगानेवाले साबित हो रहे हैं. बावजूद इसके राज्य के किसानों की पीड़ा मुखर नहीं हो रही है. छिटपुट आवाज उठ जरूर रही है जो नक्कारखाने में तूती साबित हो रही है. वजह साफ है कि सालों से दो दलीय राजनीति के बीच झूल रहे किसानों को कोई विकल्प नजर नहीं आ रहा.
राजनीतिक दल भी इस विकल्पहीनता को समझ रहे हैं, इसीलिए किसानों को केंद्र में रखकर लंबी लड़ाई लड़ने के मूड में नहीं हैं. राज्य का प्रमुख विपक्ष कांग्रेस तो वैसे भी सड़क से सत्ता को चुनौती देने की न तो स्थिति में है और न ही इसमें उसका विश्वास प्रतीत होता है. विधानसभा या ऐसे अन्य फोरम पर किसानों के पक्ष में खड़े होने के प्रयास जरूर होते हैं पर उनका उद्देश्य प्रभावकारी दबाव बनाने के बदले मीडिया में हेडलाइन बनने तक सीमित हैं. पर आगे भी ऐसा ही होता रहेगा, यह नहीं कहा जा सकता. किसान गोलबंद होने लगे हैं और रास्ता तलाश रहे हैं. युवा किसान इसके लिए परंपरागत राजनीतिक प्रतिबद्धता तोड़ने के लिए भी तैयार दिखते हैं. यानी ताप बढ़ता जा रहा है. थोड़ी-सी चिंगारी और हवा कभी भी आग लगा सकती है. लगातार तीसरे कार्यकाल से गुजर रही मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की सरकार क्या इसके प्रति सजग है? इसका जवाब है- नहीं.
राज्य के कृषिमंत्री गोरीशंकर बिसेन सूखे में किसानों को दी जा रही सरकारी मदद से इस असमर्थता के साथ संतुष्ट दिखते हैं कि ‘शत-प्रतिशत नुकसान की भरपाई असंभव है’. सरकार हरसंभव मदद कर रही है. अल्पावधि ऋण को मध्यवधि में बदल दिया गया है. बिजली बिल की वसूली रोक दी गई है. किसानों को इंश्योरेश का क्लेम मिल जाएगा. किसानों की लागत राशि निकल जाएगी. किसान फिर खड़ा हो जाएगा. वे आगे कहते हैं- ‘ हम यह क्यों माने कि अगले साल भी ऐसा ही होगा? हो सकता है आगे अच्छी बारिश हो.’ दरअसल सरकार ही नहीं किसान भी इसी ‘उम्मीद की फसल’ के सहारे हैं. रीवा जिले के ग्राम पंचायत बरहा के किसान मुन्ना सिंह कहते हैं, किसान का सीना काफी चौड़ा होता है. आमतौर पर वह अपनी नाराजगी जाहिर नहीं करता. हक के लिए भी धरना-प्रदर्शन और आंदोलनों से बचता है. इसी उम्मीद में कि अगली फसल में सब ठीक हो जाएगा. लेकिन, जलवायु परिवर्तन के कारण अब साल-दर-साल किसानों की स्थिति खराब होती जा रही है. ‘देखिये… कोई रास्ता नहीं बचेगा तो किसान आंदोलन की राह भी पकड़ेंगे ही.’
आखिर गड़बड़ी कहां हो रही है? इसे समझने के लिए सरकार और खेतों के बीच की दूरी नापना जरूरी है. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सूखे के मद्देनजर बुलाए गए एक दिवसीय सत्र में पांच नवंबर को विधानसभा में दावा किया कि 2003 से पहले राज्य में किसानों की आत्महत्या की घटनाएं करीब दो-गुनी थीं. तब हर साल करीब दो हजार किसान आत्महत्या करते थे जो अब घटकर 1108 पर आ गए हैं. उन्होंने यह वादा किया है कि सूखा प्रभावित किसानों की स्थिति सुधरने तक एक रुपये किलो चावल, गेहूं और नमक दिया जाएगा. इसी सत्र में राहत के लिए 8000 करोड़ रुपये का अनुपूरक बजट पास किया गया.
दूसरी तरफ, सरकार के दावों और वादों से भारतीय किसान संघ के अध्यक्ष शिवकुमार शर्मा बेहद नाराज हैं. ‘ पिछले 12 सालों से शिवराज चौहान झूठ और फरेब की सरकार चला रहे हैं. यह शब्दों और जुमलों की सरकार है. यह किसानों को बर्बाद करने पर तुली है. हमारी जानकारी में एक अप्रैल से एक नवंबर 2015 के बीच राज्य में 2213 किसानों ने आत्महत्या कर ली है. लेकिन, सरकार इसे मानने को तैयार नहीं है. अब तो हमारे पास यही रास्ता बचा है कि इन दिवंगत किसान परिवारों को राजधानी भोपाल बुलाकर सीएम के सामने खड़ा करके पूछूं कि ये कौन है?’ वे आगे कहते हैं कि जब राज्य का मुखिया विधानसभा में झूठ बोलता हो तो उससे आगे क्या उम्मीद की जा सकती है. जब 2013 में सूखा पड़ा था तो चौहान ने विधानसभा में कहा कि किसानों के बकाया बिजली बिल आधे मांफ कर दिए गए हैं. बाद में पता चला कि वह बेवकूफ बना रहे थे. दरअसल बकाया बिल को दस किश्तों में बांटकर उसपर पांच फीसदी ब्याज जोड़ दिया गया था. किसानों को दी जा रही इंश्योरेंस पॉलिसी भी बेकार है.
ऐसे मामले सामने आए हैं जब बैंक प्रीमियम राशि किसानों से वसूलकर इंश्योरेंस कंपनी को जमा नहीं करती. जरूरत पर किसानों को क्लेम नहीं मिल पाता. वैसे भी यह कहने को किसानों का बीमा है पर हकीकत में यह बैंक लोन का बीमा होता है जो किसानों के पैसे पर किया जाता है. फसल बीमा तो अभी लागू ही नहीं है. जबकि इंश्योरेंस का ऐसा प्रचार हो रहा जैसे इससे किसानों के नुकसान की भरपाई हो जाएगी. भ्रष्टाचार चरम पर है. बिना रिश्वत लिए पटवारी फसल की वाजिब नुकसानी नहीं दिखाता जिससे, सरकार से मिलनेवाली फौरी राहत भी जरूरतमंद को नसीब नहीं होती. नकली बीज और बेअसर खाद की आपूर्ति भी किसानों से धोखा ही है. ऊपर से ऋण की अदायगी के लिए बैंकों से नोटिस पर नोटिस. भाकिसं के इस नेता का दावा है कि 2003 के मुकाबले अब किसान 10-15 गुना ज्यादा कर्जदार हो चुका है. वे पूछते हैं- ‘ऐसे में किसान आत्महत्या न करे तो क्या करें?’
पूर्वी मध्यप्रदेश में इसबार 29 फीसदी कम बारिश हुई है. पूरे राज्य में करीब 12 फीसदी कम वर्षा रिकार्ड की गई है. पूरे देश में दक्षिण-पश्चिम मॉनसून में करीब 14 फीसदी कम बारिश हुई है. पिछले साल भी करीब 12 फीसदी कम बारिश हुई थी. राज्य सरकार का अनुमान है कि इस साल करीब एक चौथाई खरीफ की फसल बर्बाद हो गई है. यह करीब 5.7 मीट्रिक टन होता है जिसका अनुमानित मूल्य 13, 846 करोड़ रुपये है. राज्य सरकार ने केंद्र को सौंपे ज्ञापन में अनुमान जताया है कि सूखे से करीब 33, 283 गांवों के 48 लाख किसान प्रभावित हुए हैं. उनकी करीब 44 लाख हेक्टेयर की खेती नष्ट हुई है. राज्य की कुल 364 में 228 तहसीलें इससे प्रभावित हैं.
राज्य सरकार ने केंद्र से करीब 2400 करोड़ की सहायता राशि मांगी है. यदि इसमें राज्य सरकार द्वारा किए गए बजटीय प्रावधान को जोड़ दें तो यह 10400 करोड़ रुपये हो जाता है. फिर भी बर्बाद फसलों के मूल्य में 3846 करोड़ रुपये की कमी रह जाती है. कृषि मंत्री कहते हैं कि केंद्र से विभिन्न मदों जैसे बैंकों की कर्ज मांफी के लिए 750 करोड़ और पेयजल के लिए 300 करोड़ रुपये अतिरिक्त रकम मांगी गई है. यानी केंद्र से उक्त सहायता मिल जाने के बाद किसानों की नुकसानी काफी हदतक दूर की जा सकती है. पर वाकई ऐसा होने की उम्मीद किसी को नहीं है. कारण सरकार की नीति व नीयत पर संदेह और गहराई तक जड़ें जमा चुका भ्रष्टाचार. ऐसा नहीं कि सरकार इससे अनभिज्ञ है, पर राजधानी स्थित सचिवालय और खेतों के बीच बढ़ती दूरी को कम करने के सार्थक प्रयास नहीं दिखते.
बिहरा के किसान राजेंद्र सिंह अपने मामले को सामने रखकर विस्तार से बताते हैं कि सरकार के राहत प्रयास का क्या अर्थ है. उनके परिवार ने सात एकड़ में सोयाबीन और डेढ़ एकड़ में टमाटर की खेती की थी जो शत-प्रतिशत बर्बाद हो गई है. जबकि सरकारी सर्वे में 75 फीसदी नुकसान दिखाया गया. राहत के नाम पर सोयाबीन के लिए नौ हजार रुपये और टमाटर के लिए 12 हजार 780 रुपये मिलने की अभी सूचना दी गई है (कब मिलेगा पता नहीं) जबकि, सोयाबीन की फसल की लागत राशि करीब 25 हजार रुपये और टमाटर की करीब 10 हजार रुपये है. अगर बर्बाद न हुई होती तो टमाटर से ही उन्हें एक लाख रुपये से ज्यादा का लाभ हो सकता था. पिछले साल चने की फसल बर्बाद हो गई थी जिसका मुआवजा अबतक नहीं मिला है.
तमाम तरह की तकनीकी सहूलियतों के बावजूद फसलों की क्षतिपूर्ति के लिए पटवारी की रिपोर्ट पर भरोसा करना किसानों के लिए जानलेवा होता जा रहा है. सरकार द्वारा किसी नए भरोसेमंद तरीके को अपनाने से गुरेज करना उसकी नीयत पर शक पैदा करता है क्योंकि, सूखे पर सालाना होनेवाले बंदरबांट की पहली कड़ी पटवारी ही होते हैं. मुन्ना सिंह बताते हैं कि उन्होंने पांच एकड़ में धान की रोपाई की थी जिसका 90 प्रतिशत असामान्य बारिश के कारण खराब गया और दस फीसदी मवेशी खा गए. ‘ मवेशियों को भी तो चारा चाहिए. सूखे के कारण चारा न मिलने से इलाके के मवेशी फसल खा रहे हैं. इन्हें रोकना संभव नहीं है.’ यदि फसल ठीक-ठीक होती तो 150 क्विंटल तक उत्पादन हो सकता था. जिससे उन्हें कम से कम दो से सवा दो लाख रुपये तक मिलते.’ आपको राहत कितनी मिलेगी? ‘पटवारी एक दिन के लिए आया था. सभी के खेत पर तो जा ही नहीं सका. पेंसिल से लिखकर ले गया है. आप जानते हैं पेंसिल को मिटाना आसान होता है. पता नहीं आगे क्या करेंगे. कितनी सहायता मिलेगी यह 25-26 नवंबर को ग्राम पंचायत मे चस्पा किया जाना है.’
जवा तहसील के गांव पटिहन पूर्वा के बुजुर्ग किसान राजमणि दुबे का भी कुछ ऐसा ही अनुभव है. कहते हैं- पटवारी आया था. लिखकर ले गया है. पांच एकड़ में धान, जौ, अरहर की फसल पूरी तरह खत्म हो गई है. पता नहीं कितनी राहत मिलेगी. कह रहा था कि खेत जुत गए हैं, कैसे पता चलेगा कि धान रोपा गया था. गांव के लोगों की गवाही भी मानने को तैयार नहीं था. पिछले साल भी ओलावृष्टि से फसल खत्म हो गई थी, कोई मुआवजा नहीं मिला. पटवारी ने पूरे गांव में 45 फीसदी नुकसानी दिखाई पर मेरे खेत में 25 फीसदी. कलेक्टर को शिकायत की थी पर कोई सुननेवाला नहीं है. सीएम हेल्पलाइन में शिकायत क्यों नहीं की? ‘की थी पर वहां से भी कुछ नहीं हुआ.’