लेनिन, पेरियार या आंबेडकर की मूर्तियों पर ही क्यों गुस्सा आता है?
उर्मिलेश | फेसबुक : त्रिपुरा में लेनिन की मूर्ति तोड़े जाने के बाद कुछ ‘पढ़े-लिखे लोगों’ को यह कहते सुना जा रहा है कि विदेशी मूल के किसी नेता या नायक की मूर्ति लगाने का यहां औचित्य ही क्या है? इस तरह का सवाल दो तरह के लोग उठा रहे हैं: एक तो वे जो पारंपरिक संघी हैं या मौजूदा सत्ता-संस्कृति या वैचारिकी के नये-नये पोषक बने हैं और दूसरे, वे जो अपने आपको प्रगतिशील बताते हैं और वामपंथी दलों या उनसे जुड़े लेखकों-बुद्धिजीवियों के कतिपय रवैये से क्षुब्ध.
पहले खेमे के लोगों की टिप्पणियों पर मुझे ज्यादा कुछ नहीं कहना है. लेकिन दूसरे वाले खेमे के मित्रों से जरूर बात होनी चाहिए. मेरा मानना है कि वे लोग जो सवाल उठा रहे हैं, वे सारे सवाल हमारी वैचारिक सांस्कृतिक बहसों का हिस्सा रहे हैं और आगे भी रहेंगे पर आज जब मनुवादी-हिंदुत्ववादियों का सबसे खूंखार गोडसेवादी खेमा कहीं लेनिन, कहीं आंबेडकर और कहीं पेरियार की मूर्तियों( मैं निजी तौर पर मूर्तिपूजक नहीं पर महामानवों और नायकों की मूर्तियां सिर्फ पूजा के लिए नहीं होतीं, वे नई पीढ़ी को प्रेरित भी करती हैं) पर हमले कर रहा है, कुछ तरक्कीपसंद कवि-लेखकों या अन्य मित्रों की ऐसी टिप्पणियां पूरी तरह गैरवाजिब हैं कि लेनिन क्यों अपने देश के महापुरुषों की मूर्तियां क्यों नहीं?
क्या वे बता सकते हैं, अपने मुल्क में लेनिन की कितनी मूर्तियां हैं? क्या प्रगतिशील समाज ने अपने देसी नायकों की मूर्तियां नहीं लगाई हैं? आंबेडकर आज गांव-गांव में मौजूद हैं. भगत सिंह की याद में भी हाल के वर्षों में कई स्मारक बने हैं. फिर भी ऐसे मित्र जो बहस चलाना चाहते हैं, मैं उसके साथ हूं, पर उसके लिए आज न तो मौका है और न कोई प्रासंगिकता है! उसके लिए उन्हें बहुत समय मिला और आगे भी मिलेगा, अगर लोकतंत्र बच गया! वे अगर सिर्फ लोकतंत्र और संविधान को बचाना चाहते हैं तो भी आज फासीवादी हमलों के विरुद्ध एक आवाज में बोलने की जरूरत है! प्रगतिशील और वामपंथी होने की बात तो और आगे की है!
अब आते हैं, पहले खेमे के ‘भगवा बौद्धिकों’ के तर्क पर. विदेशी मूल के चिंतकों, नायकों और राजनेताओं की मूर्तियों या स्मारकों के औचित्य की! भाई, इसका जवाब तो सारी मानव सभ्यता और संस्कृति दे रही है! ब्रिटेन सहित तमाम यूरोपीय देशों, अमेरिका, आस्ट्रेलिया और अफ्रीका के देशों में देखिए किन-किन मुल्कों के नायकों, चिंतकों या कलाकारों की मूर्तियां लगी हैं! वे क्यों लगी हैं? अचरज कि ये सवाल वे लोग उठा रहे हैं, जो ‘ग्लोबलाइज़ेशन’ के पैरोकार बनते हैं! पर कैसी विडम्बना है, वे सिर्फ पूंजी और पूजीखोरों, लूट और लुटेरों का ग्लोबल-गठबंधन चाहते हैं! अवाम, विचार, चिंतन, कला और संस्कृति के वैश्विक आदान-प्रदान पर कुपित हो रहे हैं! वैश्विक पूंजीवाद के सदर मुकाम-अमेरिका में लेनिन की मूर्ति पर किसी को एतराज नहीं, द अफ्रीका में गांधी ही नहीं, अंदरीस प्रिटोरस की भी मूर्ति है! मार्क्स की मूर्ति तो दुनिया के तमाम पूंजीवादी मुल्कों में दिख जाती है! फिर कुछ लोगों को भारत में लेनिन की मूर्ति पर क्यों एतराज है? मेरे अपने जिले में अंग्रेज लार्ड कार्नवालिस का भव्य स्मारक है. हम सबको कभी आपत्ति नहीं हुई और न होनी चाहिए.
फिर कुछ लोगों को लेनिन, पेरियार या आंबेडकर की मूर्तियों पर ही क्यों गुस्सा आता है? कारण समझना किसी के लिए भी कठिन नहीं! एक जमाने में उनके पूर्वजों ने बौद्ध प्रतिष्ठानों और बाद के दिनों में कबीर के समर्थकों पर हिंसक हमले कराये थे! ज्यादा पहले की बात नहीं! प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के कार्यकाल में आरक्षण के ऐलान पर क्या हुआ था? लोगों की स्मृतियों में यह सबकुछ है भाई!
इसलिए आज का नारा है: दुनिया के मजदूरों-उत्पीड़ितों के साथ भारत के तमाम शोषितों, दलितों-पिछड़ों और हर तरह के उत्पीड़ितों एक हो! अगर एकजुट नहीं हुए तो विध्वंस की ताकतें एक दिन इस सिकुड़ती जम्हूरियत, तुम्हारे जल-जमीन और आचार-विचार, सबकुछ खत्म कर देंगी!