योगी-मोदी युग में वामपंथ
जेके कर
क्या योगी-मोदी के युग में वामपंथी राजनीति आज भी प्रासंगिक है? यह सवाल कईयों के जेहन में है. जेहन में इसलिये है कि क्योंकि यदा-कदा लेफ्ट पर गरियाने का कोई मौका नहीं छोड़ा जाता है चाहे मामला जेएनयू का हो या विदेश नीति का.
जब से योगी आदित्यनाथ का नाम यूपी के मुख्यमंत्री के तौर पर पेश किया गया है एक बहुत बड़ी संख्या में युवा उनमें नये भारत की छवि देखने लगे हैं. इनमें ज्यादातर यूपी से बाहर के हैं. इतना ही नहीं खबरों में भी योगी आदित्यनाथ छाये हुये हैं. जिन सुर्खियों में पिछले ढाई सालों से मोदी रहा करते थे उन्हें योगी आदित्यनाथ से संबंधित खबरों ने ले लिया है. युवा, मोदी के बाद योगी ब्रांड में देश का भविष्य देख रहा है.
ऐसा नहीं है कि योगी आदित्यनाथ के चेहरे को सामने रखकर यूपी विधानसभा का चुनाव लड़ा गया था. यूपी के चुनाव में तो चेहरा प्रधानमंत्री मोदी का ही था तथा सबसे ज्यादा मेहनत उन्होंने ही की थी. अन्यथा कौन से प्रधानमंत्री वोट मांगने गलियों में जाते हैं. यूपी में जीत के बाद सबसे पहले गृहमंत्री राजनाथ सिंह का नाम मुख्यमंत्री के लिये उछला परन्तु उनके द्वारा इंकार कर देने के बाद यूपी के भाजपा अध्यक्ष केशवप्रसाद मौर्य और केन्द्रीय मंत्री मनोज सिन्हा का नाम आया. अभी इन दोनों का नाम चल ही रहा था कि अचानक ही योगी आदित्यनाथ के नाम का फैसला हो गया तथा वे यूपी के मुख्यमंत्री बना दिये गये.
हालांकि योगी आदित्यनाथ के नाम पर पहले भी चर्चा हो चुकी थी इसलिये उनका नाम यूपी के मुख्यमंत्री के तौर पर आना चौंकाने वाला नहीं था. परन्तु मीडिया के एक हिस्से में यह चर्चा चली कि यह मोदी ब्रांड पर संघ की शह के समान है. योगी का नाम संघ के हस्तक्षेप के बाद ही तय हुआ था तब जाकर वे मुख्यमंत्री बने. जो कुछ भी हो मामला उनके अंदरूनी राजनीति का है लेकिन इसका अर्थ यह होता है कि संघ ने भाजपा के हो रहे कांग्रेसीकरण पर रोक लगा दी है.
वैसे मोदी खुद भी प्रधानमंत्री के लिये संघ की पहली पसंद नहीं थे. संघ ने तो आडवाणी के बाद नितिन गडकरी का नाम आगे किया था. आम आदमी पार्टी द्वारा नितिन गडकरी का नाम भ्रष्ट्राचार में घसीटे जाने के बीच मोदी का उदय हुआ. मोदी के उदय में कार्पोरेट जगत को मनमोहन सिंह के नीतियों को लागू करने में नाकामी का एक विकल्प मिल गया. उसके बाद का इतिहास जग जाहिर है. मोदी के नाम की लहर बनी जिसने सभी पार्टियों के कद को बौना करते हुये भाजपा को प्रचंड बहुमत से केन्द्र की राजनीति में स्थापित कर दिया. इतना बहुमत जिसकी कभी संघ ने कल्पना तक न की होगी.
कुल मिलाकर आज के युग को योगी-मोदी का युग कहा जा सकता है. जिसमें न केवल एक के बाद राज्यों में भाजपा की सरकारें ऐन-केन-प्रकारेण सत्तारूढ़ हो रही है, लोग नोटबंदी के दौरान जिस दुश्वारियों का सामना करना पड़ा था उसे भी भूल गये हैं. इन सब के बीच में वामपंथ की प्रासंगिकता का सवाल लोगों के जेहन में है. दावा किया जा रहा है कि उसकी राजनीति का अंतिम समय आ गया है. हालांकि, संसदीय राजनीति तथा सड़क की राजनीति से वामपंथ धीरे-धीरे धुंधला होता जा रहा है इसमें कोई शक नहीं है. आज वामपंथी कार्यकर्ता तथा उसके छोटे नेता ही इसके प्रासंगिकता पर सबसे ज्यादा सवाल खड़े कर रहें हैं.
वामपंथ की प्रासंगिकता पर चर्चा करने से पहले यह देख लेना चाहिये कि क्या योगी-मोदी युग में देश के सामने उपस्थित बेरोजगारी, मंदी, महंगाई की समस्या का क्या समाधान है. क्या बीफ पर रोक लगाकर युवाओं को नौकरी मुहैय्या कराई जा सकती है? क्या राहुल गांधी को कोसकर महंगाई कम की जा सकती है? कांग्रेस पर गरियाने से क्या बाजार की मंदी दूर हो जायेगी. सवाल लोगों को नौकरी देने का है. उनकी क्रय शक्ति बढ़ाने का है. नौकरी की सुरक्षा देने का है. यह सच है कि युवाओं को उन्माद में ढकेलकर कुछ समय तक उन्हें बेरोजगारी, नौकरी, शिक्षा के अधिकार, भूख से मुकाबला जैसे बुनियादों सवाल करने से दूर रखा जा सकता है. लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि आखिर कब तक उन्हें भरमाया जा सकता है.
देश के सामने उत्पन्न समस्या के मूल में नई आर्थिक नीति है. भाजपा भी उसी आर्थिक नीति पर ही चल रही है जिसमें चलकर मनमोहन बदनाम हुये थे. हां, भाजपा के पास उसे तेजी से लागू करने का संख्याबल संसद तथा संसद के बाहर भी मौजूद है. इस रास्ते पर चलकर कितनी दूर जाया जा सकता है इसे अमरीका के उदाहरण से आसानी से समझा जा सकता है. जो अमरीका कभी खुलेपन का सबसे बड़ा समर्थक था आज उसी के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अमरीका को बचाने के लिये दीवार खड़ी करने पर तुले हुये हैं. अमरीकी अपने सामने उत्पन्न दुश्वारियों का हल विदेशियों को भगाने में देख रहें हैं. यही कारण है कि अमरीका में लगातार विदेशियों पर नस्ली हमलें हो रहें हैं उन्हें देश से बाहर चले जाने की धमकी दी जा रही है.
आज मंदी में फंसे अमरीकी को, वहां बढ़ती बेरोजगारी को दूर करने का कोई उपाय डोनाल्ड ट्रंप को नहीं सूझ रहा है. सूझेगा भी तो कैसे यदि उनके पास इन समस्याओं का हल होता तो वे दीवार खड़ी करने की बात नहीं करते. दरअसल, इन समस्याओं का हल वामपंथ के पास है. जो गिनेचुने लोगों के हाथों में संपदा के इकठ्ठा होने का विरोध करता है. वामपंथ की राजनीति ही है कि कमाने वाला खायेगा लूटने वाला जायेगा. समाजवाद का अर्थ ही संपदा का बराबर बंटवारा करना है. ऐसा कौन है जो संपदा को बराबरी से बांटे जाने का विरोध करेगा, ऐसा कौन है जो नौकरी की संभावना को ठुकरायेगा, ऐसा कौन है जो दाम को कम करने का विरोध करेगा. शायद कुछ मुठ्ठीभर लोग इसका विरोध करे.
आज जो कुछ हो रहा है उसका जिम्मेदार खुद वामपंथ भी है. उसने लोगों का भरोसा खोया है, अपनी जमीन खुद गंवाई है, अपने संगठन पर अन्य वाद जैसे भाई-भतीजीवाद, अर्थवाद, अवसरवाद को हावी होने दिया है.
दरअसल, लेफ्ट या वामपंथ अप्रासंगिक नहीं हुआ है, अप्रासंगिक हुई है उसकी रणनीति, सांगठनिक चाल-चलन तथा व्यवहार. देश के समाने उत्पन्न समस्याओं का हल वामपंथ के पास ही है इससे आंख मूद लेने का अर्थ सच्चाई को नकारने जैसे होगा. 19वीं शताब्दी के एक समाजशास्त्री ने कहा था, अब तक के दार्शनिकों ने दुनिया की व्याख्या ही की है, लेकिन सवाल इसे बदलने का है.