दक्षिणपंथ की विचारधारा
दिनेश श्रीनेत | फेसबुक: मेरे बहुत से नजदीकी दोस्त वैचारिक तौर पर दक्षिणपंथ के करीब हैं. वे सभी बेहद पढ़े-लिखे लोग हैं. सोशल मीडिया पर चल रही गाली-गलौज से दूर रहते हैं. बहुत परिष्कृत सेंस ऑफ ह्यूमर है, जिसे मैं बुद्धिमत्ता की और इंसान होने की पहली कसौटी मानता हूँ. इतिहास, संगीत, सिनेमा और कला की गहरी समझ है. इसके बावजूद वे राजनीतिक रूप से दक्षिणपंथ को सपोर्ट करते हैं. ऐसा क्यों है? इसका जवाब अब तक मैं तलाश नहीं पाया हूँ.
कुछ बातें संभव हैं- वामपंथ के अलावा बेहतर राजनीतिक विकल्पों का न होना और वामपंथी राजनीति का लगभग हाशिये पर पहुंचते जाना. देशज या भारतीय विचारधारा के प्रति आग्रह का धीरे-धीरे एक दुराग्रही राजनीतिक समर्थन में बदल जाना. वामपंथी राजनीति के दुराग्रहों या छलावों के कारण प्रतिक्रियावादी हो जाना. मैंने छात्र जीवन से लेकर नौकरी के आरंभिक चार-पांच सालों तक वामपंथी राजनीति को करीब से देखा. वहां भी मुझे बहुत अच्छे दोस्त मिले. पर ऐसा लगा कि वे खुद ही उन रास्तों में उलझ गए जिन पर चलना शुरू किया था. बहुत से लोग रुढ़ हो गये और बदलते हुए समय की आंधी में बहुत दूर छूट गए.
वामपंथ के प्रति बहुतों का विद्रोह दरअसल उस विचारधारा से लगाव के कारण भी होता है. यह भी प्रतिक्रियावादी होता है, जब हम बहुत से लोगों को वामपंथ का मुखौटा लगाकर उन्हीं गतिविधियों में लिप्त पाते हैं जिन्हें खत्म करने का संकल्प लेकर इस विचारधारा के करीब आए थे. वामपंथ से मेरी आरंभिक असहमतियां आज भी बरकरार हैं. जैसे मैं लोकतांत्रिक मूल्यों को ही सर्वोपरि मानता हूँ. मगर यह जरूर है कि आज भी वामपंथ ही एक ऐसी विचारधारा है जो व्यापक स्तर पर हाशिये के लोगों और जनपक्षधरता की बात करती है.
वहीं मुझे यह भी लगता है कि भारत में दक्षिणपंथ जैसी कोई विचारधारा है ही नहीं. कुछ मूर्खतायें हैं, जिनके पनपने के लिए हमारे समाज के पास काफी उर्वरा भूमि है. गांधीवादी विचारधारा अपने में इतनी सिमटी हुई और आत्ममुग्ध है कि वह लगभग गांधी के व्यापक जनआंदोलन की समझ का ही निषेध करती नजर आती है.
दिलचस्प बात यह है कि इस वक्त सारी वैकल्पिक राजनीतिक विचारधारायें प्रतिक्रियावादी हो गई हैं. उनकी सारी एनर्जी मूर्खताओं के जवाब देने में निकल जा रही है. लंबे समय से ग्राउंड लेवेल पर कोई काम नजर नहीं आ रहा है. देश की आर्थिक नीति पर, बढ़ती गरीबी पर, गांवों में तेजी से फैलते नशे के जाल पर, किसानों के हालात पर. इन मुद्दों पर स्वतःस्फूर्त आंदोलन हो रहे हैं पर उसे किसी राजनीतिक विचारधारा का नेतृत्व नहीं मिल रहा है.