हिंदी सिनेमा में किशोर साहू होने का मतलब
डॉ. रमेश अनुपम
छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले में 22 अक्टूबर सन 1915 को कन्हैया लाल साहू के परिवार में जन्म लेने वाले रायगढ़, सक्ति की मिट्टी और धूल में खेलकर बचपन बिताने वाले और राजनांदगांव के स्कूल में पढ़ाई करने वाले किशोर साहू एक दिन हिंदी सिनेमा के इतने बड़े स्टार बन जायेंगे, यह किसी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा.
यह भी किसने सोचा होगा कि मात्र बाईस साल का छत्तीसगढ़ का यह छैल छबीला, तीखे नैन नक्श और पांच फुट साढ़े आठ इंच का बांका नौजवान सन 1937 में हिंदी सिनेमा की क्वीन और हर दिल अजीज नायिका देविका रानी के साथ बॉम्बे टॉकीज की फिल्म ‘ जीवन प्रभात ‘ में हीरो की मुख्य भूमिका अदा करेगा और रातों रात लाखों लोगों के दिलों में अपनी जगह बना लेगा.
आज यह सोचकर विश्वास नहीं होता है कि छत्तीसगढ़ के इस सपूत ने केवल तेईस वर्ष की उम्र में बॉम्बे टॉकीज के समानांतर अपना खुद का एक प्रोडक्शन हाउस बॉम्बे में खोलकर और उसके बैनर में ‘बहूरानी’ जैसी सुपर-डुपर हिट फिल्म बनाकर हिंदी सिनेमा जगत में तहलका मचा देगा. गौरतलब है कि इस फिल्म का निर्देशन भी उन्होंने स्वयं किया था. इस फिल्म की नायिका उस दौर की मशहूर हिरोइन अनुराधा और मिस रोज थीं.
बाईस साल की उम्र में उस समय की मशहूर अदाकारा ब्यूटीक्वीन देविका रानी के साथ बॉम्बे टॉकीज की फिल्म में हीरो होना और 23 साल की उम्र में अपने खुद का प्रोडक्शन हाउस खोलकर ‘बहूरानी’ जैसी फिल्म का निर्माण तथा निर्देशन करना साथ में प्रमुख नायक की भूमिका निभाना क्या अपने आप में कोई कम आश्चर्य की बात नहीं है.
चमत्कार का दौर केवल यहीं थमने वाला नहीं था. सन 1940 में उनकी दो फिल्में रिलीज हुई ‘बहूरानी’ और ‘पुनर्मिलन’. ‘पुनर्मिलन’ बॉम्बे टॉकीज की फिल्म थी. देविका रानी को एक बार फिर बॉम्बे टॉकीज की फिल्म में किशोर साहू को बतौर हीरो लेने के लिए बाध्य होना पड़ा था. इस बार उसके साथ हीरोइन थी स्नेहप्रभा प्रधान, उस जमाने की सबसे सुंदर और चर्चित नायिका. तब तक हिमांशु राय का निधन हो चुका था. बॉम्बे टॉकीज की सारी जिम्मेदारी देविका रानी के ऊपर आ गई थी.
‘बहुरानी’ और ‘पुनर्मिलन’ ने हिंदी सिनेमा में किशोर साहू की अभिनय प्रतिभा के झंडे गाड़ दिए थे. बॉम्बे की सिनेमा नगरी में चारों ओर अगर किसी का शोर मच रहा था तो वह थे हर दिल अजीज हमारे किशोर साहू का. इसके बाद ‘कुंवारा बाप’ और ‘शरारत’ जैसी फिल्में आई. दोनों के हीरो थे किशोर साहू और उनके साथ खूबसूरत हीरोइन थीं प्रतिमा दास गुप्ता. दोनों ही फिल्में खूब चलीं. इसके बाद तो जैसे किशोर साहू हिंदी सिनेमा के सिरमौर बन गए.
वह हिंदी सिनेमा का शुरुवाती और स्वर्णिम दौर था. हिंदी सिनेमा को एक नई मंजिल की तलाश थी और किशोर साहू, अशोक कुमार जैसे हीरो हिंदी सिनेमा के मंजिल थे. दोनों ही मध्यप्रदेश के कोहिनूर थे. एक खंडवा के तो दूसरे छत्तीसगढ़ के.
फिर सन 1943 में ‘राजा’ जैसी बेहतरीन फिल्म आई. जिसके निर्माता, निर्देशक, नायक कोई और नहीं किशोर साहू थे. उस समय ‘राजा’ फिल्म ने जैसे हिंदी सिनेमा में उथल-पुथल मचा दी थी. देश के सारे बड़े अखबार किशोर साहू की इस फिल्म की प्रशंसा से भरे पड़े थे.
‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ ने लिखा: ‘राजा‘ अभिनेता निदेशक किशोर साहू की महान व्यैक्तिक उपलब्धि है. ‘अमृत बाजार पत्रिका’ में छपा: ‘राजा’ निर्माण और भाव की गहराई की महानतम नवीनता प्रदर्शित करता है और यही नहीं, दिग्दर्शन में भी बढ़िया सफाई और भव्यता है.
हिंदी सिनेमा के बेमिसाल अभिनेता, निर्देशक, निर्माता, पटकथा लेखक किशोर साहू का जीवन सफलता के नए-नए शिखरों को छूने के लिए बना हुआ था. सम्राट अशोक के पुत्र कुणाल के जीवन पर आधारित फिल्म ‘वीर कुणाल’ किशोर साहू के लिए किसी महान उपलब्धि से कम नहीं थी. ‘वीर कुणाल’ के निर्माता, निर्देशक, लेखक और अभिनेता कोई और नहीं स्वयं किशोर साहू थे. उनकी इस फिल्म की नायिका थी उस जमाने की मशहूर अदाकारा शोभना समर्थ, जो नूतन और तनुजा की मां और काजोल की नानी थी.
1 दिसंबर सन 1945 को यह फिल्म बंबई की नॉवेल्टी थियेटर में शान से रिलीज की गई. उस दिन इस फिल्म का उद्घाटन जिसके द्वारा हुआ वह वाक्या भी कम रोमांचक और दिलचस्प नहीं है. सरदार वल्लभ भाई पटेल उन दिनों अपने सुपुत्र दया भाई पटेल के यहां बंबई आए हुए थे. दयाभाई पटेल उन दिनों मरीन ड्राइव में रहते थे. किशोर साहू को लगा ‘वीर कुणाल’ जैसी ऐतिहासिक महत्व की फिल्म के उद्घाटन के लिए सरदार पटेल से बड़ा और बेहतर नाम और कोई दूसरा नहीं हो सकता है. उन दिनों पंडित जवाहरलाल नेहरु और सरदार वल्लभ भाई पटेल स्वाधीनता आंदोलन और कांग्रेस के बड़े नायक थे.
सरदार पटेल ने किया था वीर कुणाल का उद्घाटन
किशोर साहू इससे पहले कांग्रेस के मार्च 1939 के त्रिपुरी कांग्रेस अधिवेशन में हिस्सा ले चुके थे. उस अधिवेशन के बारे में उन्होंने लिखा-“उस समय गांधी और सुभाष चंद्र बोस दो नायक थे पर लोगों की नजरें पण्डित नेहरू से हटती नहीं थी.”
किशोर साहू त्रिपुरी अधिवेशन में तीन दिनों तक शामिल रहे. वे मात्र सिनेमाई नहीं थे बल्कि स्वाधीनता की चेतना से भरे हुए नौजवान भी थे. देश की राजनीति में उनकी गहरी दिलचस्पी थी.
इसलिए जाहिर है, उन्होंने अपनी फिल्म ‘वीर कुणाल’ के उद्घाटन के लिए लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल को चुना. पर मुश्किल यह थी कि जिस दिन (1 दिसंबर 1945) नावेल्टी थियेटर में ‘वीर कुणाल’ का उद्घाटन होना था, उसी दिन शाम को कलकत्ता में कांग्रेस की वर्किंग कमेटी की बैठक भी थी, जिसमें सरदार वल्लभ भाई पटेल को भी शामिल होना जरूरी था.
सरदार वल्लभ भाई पटेल ‘वीर कुणाल’ के उद्घाटन में शरीक होना चाहते थे. किशोर साहू उन्हें भा गए थे. सो तय हुआ कि 1 दिसंबर को सरदार पटेल ‘वीर कुणाल’ का उद्घाटन करेंगे और मध्यांतर तक फिल्म देखने के बाद स्पेशल चार्टर प्लेन से कलकत्ता निकल जायेंगे.
बंबई कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष एस.के.पाटिल ने सरदार पटेल की इच्छा के अनुरूप ऐसा ही कार्यक्रम सुनिश्चित किया. 1 दिसंबर सन 1945 को नॉवेल्टी थियेटर बंबई में ‘वीर कुणाल’ का शानदार प्रीमियर शो हुआ. सरदार वल्लभ भाई पटेल ने फिल्म से पहले भाषण दिया. अंग्रेजों को ललकारते हुए उन्होंने कहा: “जिस दिन विदेशी पूंजीपति हमारे देश में आकर स्टूडियो खोलने की कोशिश करेंगे, कांग्रेस पूरी ताकत के साथ उसका विरोध करेगी.”
भाषण के बाद सरदार पटेल मध्यांतर तक ‘वीर कुणाल’ देखते रहे, इसके बाद ही वे कलकत्ता की बैठक के लिए रवाना हुए.
‘वीर कुणाल’ ऐतिहासिक रूप से एक सफल फिल्म साबित हुई. 6 जनवरी 1946 को किशोर साहू की सुपुत्री नयना का जन्म हुआ. नयना साहू जो बाद में उनकी फिल्म ‘हरे कांच की चूड़ियां’ की नायिका बनी.
इसके बाद किशोर साहू ने फिल्मिस्तान के बैनर तले ‘सिंदूर’ फिल्म का निर्देशन किया. नायक वे स्वयं थे, नायिका थी शमीम. नायिका शमीम उस जमाने में एक फ्लॉप हीरोइन मानी जा रही थी. फिल्मिस्तान के निर्माता राय बहादुर चुन्नीलाल शमीम की जगह किसी दूसरी हीरोइन को इस फिल्म में लेना चाहते थे, पर किशोर साहू इसके पक्ष में नहीं थे.
राय बहादुर चुन्नीलाल को लगा किशोर साहू उनकी बात न मानकर उनकी लुटिया डुबो देंगे. इसलिए उन्होंने इस फिल्म में पैसा लगाना बंद कर दिया और अपने प्रोडक्शन की दूसरी फिल्म ‘शहनाई’ जिसका निर्देशन प्यारे लाल संतोषी कर रहे थे में ज्यादा से ज्यादा पैसा लगाने लगे.
‘सिंदूर’ 7 जून 1947 को रॉक्सी थियेटर में रिलीज हुई. यह फिल्म अद्भुत रूप से सफल रही. यह फिल्म 32 सप्ताह तक टॉकीज से नहीं उतरी. सिल्वर जुबली से भी आगे 7 सप्ताह ज्यादा चली. इस फिल्म को देखकर कई लोगों ने विधवा विवाह किया. ‘शहनाई’ फिल्म फ्लॉप फिल्म साबित हुई.
राय बहादुर चुन्नीलाल ने प्यारेलाल संतोषी द्वारा निर्देशित फिल्म ‘शहनाई’ के प्रचार-प्रसार में पानी की तरह पैसा बहाया था और पूरी बंबई नगरी को इस फिल्म के पोस्टर से पाट दिया था. जबकि ‘सिंदूर’ के प्रचार-प्रसार में एक ढेला भी खर्च नहीं किया. राय बहादुर चुन्नीलाल को लग रहा था कि ‘सिंदूर’ एक फ्लॉप फिल्म साबित होगी और ‘शहनाई’ एक सुपर-डुपर हिट फिल्म. लेकिन हुआ ठीक इसके उल्टा ही.
किशोर साहू आगे की सोच रखने वाले एक प्रगतिशील और गंभीर फिल्म निर्देशक थे. वह जमाना ही कुछ और था, आज जैसी मसाला और फूहड़ फिल्मों का दौर नहीं था, सोद्देश्य फिल्मों का जमाना था. यह था किशोर साहू की फिल्मों का जादू जो बीसवीं सदी के 30 और 40 के दशक में लोगों के सिर चढ़कर बोलता था. हिंदी सिनेमा के दर्शक और पूरी फिल्मी दुनिया किशोर साहू की फिल्मों की दीवानी हो चुकी थी. किशोर साहू तब तक हिंदी सिनेमा के आकाश में ध्रुव तारे की तरह चमकने लगे थे.
यह बात बहुत कम ही लोगों को मालूम है कि हिंदी सिनेमा के महान अभिनय सम्राट कहे जाने वाले ट्रेजडी किंग यूसुफ खान उर्फ दिलीप कुमार का फिल्मी कैरियर पचास के दशक में गर्दिश में था. ‘ज्वारभाटा’ (सन 1944) और ‘जुगनू’ (सन 1947) जैसी फिल्में दिलीप कुमार के कैरियर में कुछ खास नहीं कर पाई थी.
नए नवेले दिलीप कुमार की नैया मंझधार में हिचकोले खा रही थी. उस समय फिल्मी दुनिया में नए-नए आए हुए दिलीप कुमार को एक ऐसे प्रतिभाशाली निर्देशक की जरूरत थी, जो उसके भीतर छिपी हुई अभिनय प्रतिभा को समझकर उसे एक नया जीवनदान दे सके.
दिलीप कुमार के ऐसे दुर्दिनों में ही उनके जीवन में किशोर साहू एक फरिश्ता बनकर आए. जिसके चलते दिलीप कुमार आजीवन किशोर साहू के मुरीद हो गए. दिलीप साहब आजीवन किशोर साहू की यादों को अपने दिल में संजोए रहें. किशोर साहू द्वारा निर्मित और निर्देशित फिल्म ‘नदिया के पार’ (सन 1948) दिलीप कुमार के लिए वरदान साबित हुई.
छत्तीसगढ़ और दिलीप कुमार
सन 1948 में किशोर साहू द्वारा निर्मित तथा निर्देशित फिल्म ‘नदिया के पार’ कई अर्थों में एक विलक्षण और ऐतिहासिक फिल्म है. एक तरह से छत्तीसगढ़ अंचल को पहली बार हिंदी सिनेमा में इस फिल्म के माध्यम से एक नई पहचान देने की कोशिश की गई.
छत्तीसगढ़ी बोली, छत्तीसगढ़ी आभूषण, राजकुमार कॉलेज और छत्तीसगढ़ के शहर रायपुर, मोतीपुर, राजनांदगांव जो इस अंचल की पहचान हैं, उन्हें इस फिल्म के माध्यम से किशोर साहू ने पूरे देश को परिचित करवाया. अन्यथा देश में आज से 75 वर्ष पहले छत्तीसगढ़ अंचल को इस तरह से कौन जानता था. तब तक तो मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ का ही कोई अस्तित्व नहीं था.
इस फिल्म का नायक दिलीप कुमार (छोटे कुंवर) राजकुमार कॉलेज रायपुर से अपनी पढ़ाई पूरी कर अपने घर लौट रहा है. ट्रेन मोतीपुर (राजनांदगांव) स्टेशन पर खड़ी है, दिलीप कुमार ट्रेन के डिब्बे से नीचे उतरते हैं. फिल्म में उनका यह पहला दृश्य है.
दुबले पतले छैल-छबीले दिलीप कुमार उस समय केवल छब्बीस साल के युवा थे. हिंदी सिनेमा में वे अभी नए-नए थे. उनके बनिस्बत किशोर साहू अभिनेता, निर्देशक, निर्माता, पटकथा लेखक के रूप में हिंदी सिनेमा में अपनी सफलता के झंडे गाड़ चुके थे.
फिल्म के इस पहले ही दृश्य में दिलीप कुमार के अभिनय का जादू अभिभूत करता है. दिलीप कुमार के संवाद बोलने का अपना एक अलग अंदाज और उनकी अभिनय शैली का कहना ही क्या है. भविष्य के एक सफलतम नायक को इस दृश्य के माध्यम से बखूबी चिन्हा जा सकता है और किशोर साहू के निर्देशन कौशल को सराहा जा सकता है.
इस फिल्म की नायिका कामिनी कौशल भी कम कमसिन और खूबसूरत नहीं हैं. दिलीप कुमार और कामिनी कौशल की जोड़ी इस फिल्म की जान है. अपनी इस शानदार फिल्म ‘नदिया के पार’ के बारे में स्वयं किशोर साहू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है:
‘साजन’ के बाद मैंने फिल्मीस्तान के लिए जो तीसरा चित्र बनाया, उसका नाम ‘नदिया के पार’ था. कथा, पटकथा सदैव की भांति मेरी ही थी. कहानी की पृष्ठभूमि मैंने अपना चिरपरिचित छत्तीसगढ़ रखी थी. स्थानीय छत्तीसगढ़ी भाषा का मुक्त उपयोग किया था. मुख्य भूमिका में दिलीप कुमार और कामिनी कौशल को लिया था. दिलीप और कामिनी तब लगभग नए थे.
किशोर साहू ने आगे अपनी इसी आत्मकथा में इस फिल्म की विशेषताओं को उद्घाटित करते हुए लिखा है:
‘नदिया के पार’ हिंदी चित्रों में पहला था, जिसमें नायिका को मैंने चोली ब्लाउज न देकर केवल सूती साड़ी पहनाई थी. उस समय कामिनी कौशल इस वेशभूषा में सुंदर और कलात्मक लगी. उसके बाद से यह छत्तीसगढ़ी संथाली वेशभूषा कई बहाने और कई बार हिंदी चित्रों में आती रही.
‘नदिया के पार’ की नायिका कामिनी कौशल (फुलवा) छत्तीसगढ़ की महिलाओं द्वारा गले में पहनी जाने वाली सर्वप्रिय आभूषण रुपिया माला और सुता, बाहों में पहने जाने वाली पहुंची से सुसज्जित है. संवाद और गाने छत्तीसगढ़ के रंग में रंगे हुए हैं.
यह किशोर साहू के मन में रचे बसे छत्तीसगढ़ के प्रति प्रेम को प्रदर्शित करता है. सच्चाई तो यह है कि बंबई जाकर भी वे छत्तीसगढ़ को कभी भुला नहीं सके थे. छत्तीसगढ़ जैसे उनके हृदय में धड़कता था. अपनी आत्मकथा में उन्होंने अनेक जगहों पर छत्तीसगढ़ को दिल से याद किया है.
‘नदिया के पार’ एक दुखांत फिल्म होते हुए भी अतिशय सफल रही. दिलीप कुमार और कामिनी कौशल को इस फिल्म से अपार ख्याति और प्रतिष्ठा मिली.
इस फिल्म में संगीत सी.रामचंद्र का था. सिनेमैटोग्राफी के.एच.कापड़िया की थी. इस फिल्म को लता मंगेशकर, मोहम्मद रफी और शमशाद बेगम ने अपने कर्णप्रिय गानों से गुलजार किया था. “कठवा के नैया बनिहै मल्लाहवा नदिया के पार दे उतार” तथा “ओ गोरी ओ छोरी कहां चली हो” जैसे गाने अब कहां सुनने को मिलेंगे. ‘नदिया के पार’ जैसी सुंदर फिल्म भी अब कहां देखने को मिलेगी.
आत्मा में बसता था राजनांदगांव
‘नदिया के पार’ किशोर साहू के लिए छत्तीसगढ़ के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने और हिंदी सिनेमा में दो नए-नए आए हुए दिलीप कुमार और कामिनी कौशल को प्रमोट करने के लिए बनाई गई फिल्म थी. छत्तीसगढ़ के लिए किशोर साहू के मन में गजब का आकर्षण और अपार प्रेम था. अपनी आत्मकथा में भी उन्होंने जगह-जगह पर छत्तीसगढ़ के प्रति अपने इस प्रेम का इजहार किया है.
राजनांदगांव, सक्ती और रायगढ़ का जगह-जगह बखान किया है. सक्ती में उनके दादा आत्माराम साहू दीवान थे. उस समय वहां लीलाधर सिंह राजा थे. राजा साहब आत्माराम साहू का बहुत सम्मान करते थे. किशोर साहू की दूसरी और तीसरी कक्षा की पढ़ाई सक्ती में ही संपन्न हुई. किशोर साहू के दादा की मृत्यु सक्ती में हो जाने के पश्चात उनका पूरा परिवार भंडारा चला गया था.
चूंकि भंडारा महाराष्ट्र में है, इसलिए वहां मराठी मीडियम से पढ़ाई लिखाई होती थी. किशोर साहू छत्तीसगढ़ से हिंदी मीडियम से पढ़कर गए थे, इसलिए जाहिर है मराठी मीडियम उन्हें रास नहीं आ रहा था.
इसलिए किशोर साहू को हिंदी मीडियम में आगे पढ़ने के लिए उनके मामा श्यामलाल महोबे जो उन दिनों बंगाल नागपुर कॉटन मिल्स में असिस्टेंट इंजीनियर थे, अपने साथ राजनांदगांव ले आए.
राजनांदगांव के स्टेट हाई स्कूल में सातवीं कक्षा में उनका दाखिला करा दिया गया. राजनांदगांव का जितना सुंदर वर्णन किशोर साहू ने अपनी आत्मकथा में किया है, वह अद्भुत है, वैसा वर्णन अन्यत्र कहीं नहीं मिलता है.
सच तो यह है कि छत्तीसगढ़ किशोर साहू के प्राणों में धड़कता था और राजनांदगांव उनकी आत्मा में बसता था.
राजनांदगांव छत्तीसगढ़ का पहला शहर था, जहां सबसे पहले बिजली पहुंची थी. किशोर साहू ने 12 वर्ष की उम्र में सन 1928 में पहली बार बिजली राजनांदगांव में ही देखी थी. उस समय का वर्णन करते हुए उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है:
राजनांदगांव रियासत अपने पूरे उत्थान पर थी. शहर पर बहार आई हुई थी. कुछ ही वर्षों पहले सर्वेश्वरदास गद्दी पर बैठे थे. राजा बनते ही उन्होंने शहर में बिजली लगवा दी, सड़कें ठीक कराई, बाग के लिए बड़े वेतन पर लायक और डिग्री प्राप्त अनुभवी व्यक्ति को रखा जिससे शहर से लगा हुआ बलदेव बाग, जिसे उनके पूर्वज बलदेव दास ने लगाया था, खिल उठा.
किशोर साहू ने राजनांदगांव के तीनों तालाब रानी सागर, लालसागर और बूढ़ा सागर का जिक्र और उसके विरल सौंदर्य का वर्णन अपनी इस आत्मकथा में शिद्दत के साथ किया है.
अब चलें किशोर साहू की फिल्मी यात्रा पर थोड़ा और नजर डालने.
‘नदिया के पार’ को बहुत खूबसूरती के साथ पार करने के बाद किशोर साहू के पांव हिंदी सिनेमा के विराट समुद्र को लांघने की ओर बढ़ चले. किशोर साहू पर हिंदी सिनेमा का जुनून सवार था. सफलता जैसे उनकी बाट जोहती हुई खड़ी थी. छत्तीसगढ़ के इस अनमोल रत्न के पास जैसे जादू की कोई छड़ी थी वे जिस पर भी अपनी छड़ी रख दें वह सोना हो जाए.
उन्होंने अपनी अगली फिल्म का नाम रखा ‘सावन आया रे’. यह फिल्म सचमुच किशोर साहू और हिंदी सिनेमा के लिए किसी सावन की तरह खुशगवार और बादलों की तरह अपार सफलता की बारिश करने वाला सिद्ध हुआ.
इस फिल्म की नायिका के रूप में उस जमाने की शोख नटखट चुलबुली नायिका रमोला को लिया गया. रमोला उन दिनों कोलकाता में रहती थी. किशोर साहू कोलकाता गए और रमोला से इस फिल्म के लिए बातचीत की. उस जमाने के सबसे सफलतम नायक, निर्देशक, निर्माता, पटकथा लेखक किशोर साहू के साथ हर नायिका काम करने के लिए जैसे लालायित रहती थीं. रमोला को तो जैसे गड़ा हुआ कोई अनमोल खजाना हाथ लग गया था.
किशोर साहू ने अपनी इस नई फिल्म के माध्यम से हिंदी सिनेमा जगत में वर्षों से चली आ रही रूढ़ि को भी तोड़ दिया. सन 1948 तक फिल्मों की सारी शूटिंग या तो स्टूडियो में होती थी या फिर बहुत ज्यादा हुआ तो बंबई के आस-पास शूटिंग कर ली जाती थी. आउटडोर शूटिंग उन दिनों प्रचलित ही नहीं थी. अपनी पूरी फिल्म यूनिट के साथ बंबई से बाहर जाकर फिल्म बनाने के बारे में तब तक किसी ने सोचा भी नहीं था.
किशोर साहू ने तय किया कि वे इस रूढ़ि को तोड़ेंगे साथ में यह भी कि ‘सावन आया रे’ की सारी शूटिंग वे आउटडोर करेंगे. इसके लिए उन्होंने नैनीताल का चुनाव किया.
नियत समय पर किशोर साहू अपनी पत्नी प्रीति और पूरी फिल्म यूनिट के साथ तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार नैनीताल की वादी में पहुंच गए. नैनीताल में आउटडोर शूटिंग के निर्णय में उनकी पत्नी प्रीति का भी कोई कम योगदान नहीं था.
‘सावन आया रे’ 13 मई 1949 को बंबई के कृष्ण और कैपिटल थियेटर में रिलीज हुई और सुपर हिट फिल्म साबित हुईं. किशोर साहू और रमोला की जोड़ी ने हिंदी सिनेमा के दर्शकों का ही दिल नहीं जीता वरन फिल्म समीक्षकों का भी दिल जीत लिया था. उस जमाने की सुप्रसिद्ध फिल्मी पत्रिका ‘फिल्म इंडिया’ ने लिखा: “ किशोर साहू कृत ‘सावन आया रे’ निर्देशकों के लिए एक पाठशाला है- एक महाकाव्य.”
‘संडे न्यूज ऑफ इंडिया’ ने लिखा: “1949 का सर्वश्रेष्ठ चित्र.”
सबसे सुंदर ‘ईव्ज वीकली’ ने लिखा: “सावन आया रे किशोर साहू की विलक्षण रचनात्मक कलाकृति है. यह ऐसा प्रतिभाशाली व्यक्ति है, जिसका फिल्म उद्योग में कोई जोड़ नहीं.”
सचमुच उस समय हिंदी सिनेमा में किशोर साहू का कोई जोड़ नहीं था. हिंदी फिल्म में किशोर साहू का अन्य कोई दूसरा विकल्प नहीं था.
जब कमाल अमरोही ने हटा दिया अपना नाम
सन 1952 में हिंदी फिल्म में नई-नई आई हुई माला सिन्हा को लेकर किशोर साहू ने शेक्सपियर के मशहूर नाटक ‘हैमलेट’ पर इसी नाम से एक फिल्म का निर्माण किया. इसके नायक की भूमिका में वे स्वयं थे और नायिका ओफिलिया की भूमिका में माला सिन्हा. किन्हीं कारणों से किशोर साहू की यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर सफल नहीं हुई.
सन 1953 में किशोर साहू ने एक महत्वाकांक्षी फिल्म ‘मयूर पंख’ का निर्माण किया. यह फिल्म कई दृष्टि से एक ऐतिहासिक महत्व की फिल्म थी. इस फिल्म की दो नायिकाओं में एक ओडेट फर्ग्यूसन थी, जो उस जमाने की एक मशहूर फ्रेंच अभिनेत्री थीं.
दूसरी अभिनेत्री के रूप में हिंदी फिल्म की जानी-मानी अभिनेत्री सुमित्रा देवी थीं. किशोर साहू ने इस फिल्म को ईस्टमैन कलर में बनाने का निर्णय लिया, जो उस जमाने में काफी महंगी मानी जाती थी. इस फिल्म के नायक की भूमिका में स्वयं किशोर साहू थे और निर्देशन भी उन्हीं का था.
यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर पिट गई, लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस फिल्म को बेहद सराहा गया. सन 1954 में कांस फिल्म फेस्टिवल में इस फिल्म को ग्रैंड पुरुस्कार के लिए नामांकित किया गया.
इस फिल्म के निर्माण के समय का एक दिलचस्प प्रसंग का जिक्र भी जरूरी है. इस फिल्म के निर्माण के दरम्यान किशोर साहू का मध्यप्रदेश के दो दिग्गज राज नेताओं से परिचय हुआ. वे दो राजनेता कोई और नहीं, बल्कि श्यामाचरण शुक्ल और विद्याचरण शुक्ल थे.
श्यामाचरण शुक्ल जब भी बंबई जाते, किशोर साहू के निवास ‘वाटिका’ में खाने पर अवश्य निमंत्रित किए जाते. एक बार किशोर साहू ने श्यामाचरण शुक्ल से उनके भविष्य की कार्ययोजना के बारे में पूछा. जिसके जवाब में श्यामाचरण शुक्ल ने कहा कि मैं तय नहीं कर पा रहा हूं कि मैं बिजनेस में जाऊं या पॉलिटिक्स में.
किशोर साहू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है: “तब मैं नहीं जानता था, न वे ही जानते थे कि एक दिन वे मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बनेंगे. पिता के बाद कोई पुत्र किसी प्रांत का मुख्यमंत्री बना हो ऐसा उदाहरण स्वतंत्र भारत के इतिहास में अभूतपूर्व था.”
विद्याचरण शुक्ल ‘मयूर पंख’ फिल्म का एक हिस्सा बन चुके थे. सन 1953 में विद्याचरण शुक्ल ‘एल्विन कूपर’ नामक एक शिकार कंपनी चला रहे थे. ‘मयूरपंख’ फिल्म के कुछ हिस्सों की शूटिंग कान्हा-किसली में की गई, जिसका ठेका विद्याचरण शुक्ल को दिया गया. इस फिल्म की शूटिंग के दरम्यान किशोर साहू ने विद्याचरण शुक्ल को बेहद निकट से देखा और जाना था.
अपनी आत्मकथा में किशोर साहू ने उन दिनों को याद करते हुए विद्याचरण शुक्ल के बारे में जो लिखा है वह अत्यंत महत्वपूर्ण है: “उनमें सतर्क दिमाग की पैनी धार थी.”
आगे चलकर किशोर साहू की यह भविष्यवाणी कितनी सच साबित हुई है, हम सब इसके गवाह हैं. विद्याचरण शुक्ल भारतीय राजनीति में धूमकेतु की तरह सिद्ध हुए.
श्रीमती इंदिरा गांधी के निकट के राजनेताओं में उनकी गिनती होती थी. सतर्क दिमाग की पैनी धार अंत तक उनमें विद्यमान रही.
सन 1958 किशोर साहू के फिल्मी कैरियर के लिए एक नया मोड़ साबित हुआ. उन दिनों कमाल अमरोही, राजकुमार और मीना कुमारी को लेकर ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ बनाने की सोच रहे थे. उन्होंने किशोर साहू को इस फिल्म के निर्देशन का ऑफर दिया. इस फिल्म में वे पहले से ही राजकुमार को हीरो के रूप में ले चुके थे.
किशोर साहू राजकुमार की जगह दिलीप कुमार को बतौर हीरो लेना चाहते थे, मीनाकुमारी भी यही चाहती थीं, पर कमाल अमरोही राजकुमार को ही इस फिल्म में हीरो के रूप में लेना चाहते थे. मीना कुमारी तब तक कमाल अमरोही से शादी कर चुकी थी.
मीना कुमारी तो किशोर साहू को इस फिल्म में हीरो के रूप में लेना चाहती थी, पर कमाल अमरोही को न दिलीप कुमार चाहिए था और न ही किशोर साहू, राजकुमार पर वे अडिग थे.
बहरहाल 20 जून सन 1958 को इस फिल्म की शूटिंग शुरू हुई. 1959 में बनकर तैयार भी हो गई. इस फिल्म का ट्रायल शो हुआ जिसमें कमाल अमरोही, शंकर जयकिशन, शैलेंद्र, हसरत जयपुरी, मीना कुमारी, राजकुमार और किशोर साहू का परिवार शामिल हुआ.
फिल्म सबको पसंद आई पर कमाल अमरोही को यह फिल्म बिल्कुल ही पसंद नहीं आई. शैलेंद्र ने भी कमाल अमरोही का साथ दिया. फिल्म की कहानी और सीन बदलने के लिए कमाल अमरोही ने किशोर साहू पर तरह-तरह के दबाव बनाने शुरू किए, पर किशोर साहू को वे इसके लिए राजी नहीं कर सके. किशोर साहू अपनी इस फिल्म में किसी तरह के छेड़छाड़ के खिलाफ थे.
मीना कुमारी और राजकुमार भी किशोर साहू की राय पर कायम थे. कमाल अमरोही की जिद के चलते यह फिल्म काफी दिनों तक रिलीज नहीं हो पाई. अंत में के. आसिफ के कारण ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ फिल्म प्रदर्शन का मुंह देख पाई, लेकिन कमाल अमरोही ने निर्माता से अपना नाम हटाकर मीना कुमारी के सेक्रेटरी एस.ए.बाकर का नाम डलवा दिया, यह सोचकर कि यह फिल्म बुरी तरह से फ्लॉप सिद्ध होगी.
29 अप्रैल 1960 को यह फिल्म बंबई के रॉक्सी और कोहिनूर थियेटर में रिलीज हुई. ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ सुपरहिट फिल्म साबित हुई. कमाल अमरोही का बुरा हाल था. इस फिल्म की अपार सफलता को देखकर उन्होंने मुंबई में लगे हुए सारे पोस्टरों से निर्माता एस.ए. बाकर का नाम मिटवा कर अपना नाम लिखवाना शुरू कर दिया. यह था किशोर साहू के निर्देशन का जादू, जो सर चढ़कर बोलता था.
कहना न होगा ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ हिंदी फिल्म में एक मील का पत्थर साबित हुई. फिल्म की कहानी, राजकुमार और मीना कुमारी का अभिनय, शंकर जयकिशन का संगीत और किशोर साहू के निर्देशन को भुला पाना सबके लिए मुश्किल साबित हुआ.
बेटी नयना बनी नायिका
‘दिल अपना और प्रीत पराई’ की अपार सफलता के पश्चात किशोर साहू ने मद्रास (चेन्नई) के सुप्रसिद्ध निर्माता एस.एस.वासन के लिए जैमिनी प्रोडक्शन के बैनर तले ‘गृहस्थी’ नामक अपनी ही पटकथा पर फिल्म का निर्देशन किया.
इस फिल्म के लिए उनके ही सुझाव पर अशोक कुमार और उस समय फिल्मी दुनिया में नए-नए कदम रखे मनोज कुमार को अनुबंधित किया गया. नायिका के लिए उन्होंने मशहूर निर्माता, निर्देशक वी. शांताराम की बेटी राजश्री को लेने का सुझाव वासन को दिया. वासन ने थोड़ा ना-नुकुर करने के बाद आखिरकार राजश्री के लिए हां कर दिया. इस फिल्म के अन्य कलाकारों के रूप में किशोर साहू ने फिल्म इंडस्ट्री में नए आए महमूद और शोभा खोटे को लिया.
लगातार नौ महीने तक मद्रास में रहकर ही उन्होंने ‘गृहस्थी’ फिल्म पूरी कर ली. जैमिनी प्रोडक्शन के बैनर तले बनाई गई फिल्म ‘गृहस्थी’ सफलतम फिल्म साबित हुई. बंबई तथा अनेक शहरों में इस फिल्म ने जुबली मनाई. मनोज कुमार और राजश्री की जोड़ी देखते ही देखते सुपरहिट जोड़ी साबित हुई.
महमूद और शोभा खोटे की जोड़ी भी हिंदी फिल्मों में लोकप्रिय हो गई. इस फिल्म के बाद तो जैसे हास्य अभिनेता महमूद की गाड़ी चल निकली. सन 1963 में किशोर साहू ने एक और फिल्म का निर्देशन किया ‘घर बसा के देखो’. इस फिल्म में बतौर नायक मनोज कुमार तथा नायिका के रूप में उन्होंने दोबारा राजश्री को लिया. यह फिल्म भी बॉक्स आफिस पर सफल रही.
मनोज कुमार और राजश्री इसके बाद हिंदी सिनेमा के जगमगाते सितारों में गिने जाने लगे. किशोर साहू जैसे कमाल के निर्देशक ने उनके भीतर की अभिनय प्रतिभा को तराश कर एक नया रूप दे दिया था.
एस.एस. वासन ने जिस राजश्री के लिए ठिगनी और सांवली लड़की कहकर ‘गृहस्थी’ की हीरोइन के रूप में नापसंद किया था, जिसे किशोर साहू के समझाने के बाद उन्हें लेना पड़ा था, वह लड़की हिंदी सिनेमा के लाखों दर्शकों की नायिका बन चुकी थी. किशोर साहू की आंखें अभिनय प्रतिभा को दूर से देखकर ही पहचान लेती थी.
सन 1965 में ‘पूनम की रात’ फिल्म का निर्देशन किशोर साहू ने किया. इस फिल्म में भी उन्होंने हीरो के रूप में मनोज कुमार को ही लिया. तब तक मनोज कुमार और किशोर साहू अच्छे दोस्त बन चुके थे. ‘पूनम की रात’ में उन्होंने एक नई हीरोइन कुमुद छुगानी को अनुबंधित किया. यह फिल्म भी सफल रही.
सन 1966 में किशोर साहू ने ‘हरे कांच की चूड़ियां’ फिल्म का निर्माण और निर्देशन किया. इस फिल्म के लिए उन्होंने पहले से ही विश्वजीत का नाम तय कर रखा था. नायिका के लिए वे किसी नई लड़की की तलाश में थे. दिल्ली और बंबई की कई लड़कियों का वे इंटरव्यू भी ले चुके थे, पर इस फिल्म के अनुरूप उनमें से कोई भी उन्हें नहीं जंची थी.
उन्हीं दिनों नयना जो हॉस्टल में रहकर अपना ग्रेजुएशन का कोर्स कर रही थी, घर आई हुई थी. पिता ने पुत्री को देखा और लगा कि जिसकी तलाश में वे भटक रहे थे, वह तो अपने घर पर ही मौजूद है. किशोर साहू को लगा कि ‘हरे कांच की चूड़ियां’ की नायिका की जो कल्पना उन्होंने की थी, वह तो हू-ब-हू नयना ही है, उनकी अपनी प्यारी और खूबसूरत बेटी.
पिता ने पुत्री से पूछा: “पिक्चर में काम करोगी ?”
पुत्री ने थोड़ा आश्चर्य के साथ अपने पिता से पूछा: “कौन मैं ?”
पिता ने कहा: ‘हां तुम.’
पुत्री ने पूछा: “कौन से पिक्चर में ?”
पिता ने कहा: “हरे कांच की चूड़ियां, में.”
बेटी ने पूछा: “कौन सा रोल?”
पिता ने अपनी बेटी से कहा: “हीरोइन का रोल.”
बेटी के लिए यह सब कुछ अप्रत्याशित है. वह अपने पिता से डरी सहमी से पूछती है: “क्या यह रोल मैं कर सकूंगी?”
पिता आश्वस्त होकर बेटी से कहते हैं: “क्यों नहीं.”
‘हरे कांच की चूड़ियां’ का निर्माण प्रारंभ हो जाता है. पिता निर्माता, निर्देशक हैं और उनकी प्यारी बिटिया इस फिल्म की नायिका.
कोई पिता अपनी ही सुपुत्री को नायिका के रूप में अपनी ही किसी फिल्म में डायरेक्ट करे, अद्भुत है यह प्रसंग. हिंदी सिनेमा जगत के लिए भी यादगार.
बहरहाल, यह खूबसूरत फिल्म 4 मई सन 1967 को बंबई की लिबर्टी में रिलीज हुई. यह फिल्म सफल रही. एक कुंवारी लड़की की मां बनने की कहानी वाली इस लीक से अलग हटकर बनाई गई फिल्म को दर्शकों ने बेहद पसंद किया.
विश्वजीत और नयना साहू के अभिनय का जादू लोगों के सिर चढ़कर बोलने लगा. इस फिल्म के गाने हर जुबान पर थिरकने लगे. खासकर “धानी चुनरी पहन, सज के बन के दुल्हन, जाऊंगी उनके घर, जिनसे लागी लगन, आएंगे जब सजन, देखने मेरा मन, कुछ न बोलूंगी मैं, मुख न खोलूंगी मैं, बज उठेंगी हरे कांच की चूड़ियां.”
शैलेंद्र के इस खूबसूरत गीत को संगीत से संवारा था शंकर जयकिशन ने और इसे वाणी दी थी अप्रतिम गायिका आशा भोसले ने.
बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन ने नयना साहू को सन 1967 की श्रेष्ठ अभिनेत्री का खिताब दिया. उत्तरप्रदेश, राजस्थान, आंध्रप्रदेश फिल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन ने भी नयना साहू को उत्कृष्ट अभिनय के लिए पुरस्कृत और सम्मानित किया.
किशोर साहू की यह खूबसूरत हीरोइन बेटी किशोर साहू जन्म शताब्दी समारोह में शिरकत करने 22 अक्टूबर 2016 में राजनांदगांव आई थी. 23 अक्टूबर को उनके सम्मान में उनकी फिल्म ‘हरे कांच की चूड़ियां’ का प्रदर्शन राजनांदगांव में किया गया.
छत्तीसगढ़ ने अपने लाडले सपूत किशोर साहू की इस सुंदर और प्रतिभाशालिनी बिटिया को भरपूर मान सम्मान और दुलार दिया. 22 जनवरी 2017 को हमारी यह खूबसूरत नायिका सदा-सदा के लिए हम सबसे दूर चली गई.
राजा दिग्विजय दास की यादें
बंबई में रहते हुए और फिल्मों में बेहद व्यस्त रहते हुए भी किशोर साहू के सीने में छत्तीसगढ़ धड़कता रहता था. राजनांदगांव, खैरागढ़, सक्ती की धूसर स्मृतियां उनके भीतर किसी खुशबू की तरह महकती रहती थी.
राजनांदगांव के राजकुमार दिग्विजय दास (जिन्हें प्यार से वे दिग्वि राजा कहते थे) के साथ उनकी गहरी मित्रता थी. मित्रता ऐसी कि जब दिग्विजय दास को विवाह के लिए दो राजकुमारियों में से किसी एक को पसंद करना था तो उन्होंने पसंद करने की जिम्मेदारी किशोर साहू और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती प्रीति (पांडेय) साहू पर डाल दी.
यह दिलचस्प किस्सा कुछ इस तरह से है. नवंबर 1953 में दिग्विजय दास ने किशोर साहू को पत्र लिखकर सूचित किया कि वे अपनी मां रानी साहिबा ज्योति देवी के साथ लड़की देखने के लिए बंबई आ रहे हैं.
बंबई में पहले से ही इंदौर महाराजा अपनी सुपुत्री राजकुमारी और बारिया महाराजा अपनी राजकुमारी बहन के साथ पहुंच चुके थे. दिग्विजय दास को इन्हीं में से एक को अपनी वधू के रूप में चुनना था.
दिग्विजय दास असमंजस की स्थिति में थे. वे तय नहीं कर पा रहे थे कि अपनी भावी रानी के रूप में किसे पसंद करें. रानी साहिबा ज्योति देवी बार-बार अपने राजकुमार बेटे पर अपनी पसंद बताने के लिए दबाव बना रही थीं.
रानी साहिबा का रुझान बारिया महाराजा की बहन संयुक्ता देवी की ओर अधिक था पर दिग्विजय दास किशोर साहू और प्रीति साहू की पसंद के बिना इस पर मुहर लगाने को तैयार नहीं थे.
सो दिग्विजय दास के दबाव के चलते रानी साहिबा, दिग्विजय दास, बारिया महाराजा जयदीप सिंह, उनकी बहन राजकुमारी संयुक्ता देवी सभी मोटरों में बैठकर किशोर साहू के निवास स्थान वाटिका पहुंचे.
वाटिका में किशोर साहू और प्रीति ने सभी मेहमानों की आवभगत की. दोनों ने राजकुमारी संयुक्ता देवी से बातचीत की. दिग्विजय दास से भी उनकी पसंद के बारे में पूछताछ की और संयुक्ता देवी के पक्ष में अपना निर्णय सुना दिया. इस तरह 11 दिसंबर 1953 को बारिया में धूमधाम से दिग्विजय दास और राजकुमारी संयुक्ता देवी का विवाह संपन्न हुआ.
बारात में किशोर साहू भी सम्मिलित हुए. विवाह में देश भर से राजा महाराजा शामिल हुए. खैरागढ़ के राजा बहादुर वीरेंद्र बहादुर सिंह और सक्ती राजा लीलाधर सिंह भी उपस्थित थे.
सक्ती के जिस राजा के अधीन किशोर साहू के दादा जी दीवान हुआ करते थे, उस परिवार के वारिस राजा लीलाधर सिंह से मिलना, उनके लिए किसी रोमांचक अनुभव से कम नहीं था.
27 अप्रैल 1954 को राजनांदगांव में राजकुमार दिग्विजय सिंह का राज्याभिषेक हुआ. दिग्वि का राजतिलक हो और वहां किशोर साहू उपस्थित न हो, यह संभव ही नहीं था. किशोर साहू इस राज्याभिषेक समारोह में अपनी धर्मपत्नी प्रीति के साथ राजनांदगांव आए और इस समारोह में शरीक हुए.
राजतिलक होने के बाद दिग्वि राजा को तिमाही 70,000 हजार रुपए प्रिविपर्स के रूप में मिलने लगे थे. साल भर तो दिग्वि राजा अपनी पत्नी रानी साहिबा संयुक्ता देवी उर्फ टाइनी के साथ राजनांदगांव स्थित लालबाग पैलेस में रहे. पर राजनांदगांव न दिग्वि राजा को रास आ रहा था न महारानी साहिबा संयुक्ता देवी को. इसलिए वे बंबई चले आए. बंबई के महालक्ष्मी स्थित वसुंधरा में एक फ्लैट किराए पर लेकर रहने लगे.
बंबई में राजासाहब रात-दिन शापिंग करते और फिल्में देखते थे. पर इससे भी जब वे उकता गए तो उन्होंने स्वयं को व्यस्त रखने के लिए महेन्द्र एंड महेंद्र कंपनी में अवैतनिक नौकरी ज्वाइन कर ली. रोज कार में बैठकर ऑफिस जाते थे और दिन भर नीली वर्दी पहनकर, हाथ में मोटर सुधारने का औजार लेकर वे यहां-वहां घूमते रहते थे. उनके लिए समय बिताना सबसे कठिन काम था.
कौन जानता था कि एक दिन दिग्वि राजा आत्महत्या जैसी आत्महंता कदम उठाएंगे और मात्र पच्चीस वर्ष की आयु में वे सबको रोता-बिलखता छोड़कर एक दूसरी दुनिया में चले जायेंगे.
दिग्विजय दास की आत्महत्या यूं तो आज भी रहस्यमय मानी जाती है, पर इस संबंध में किशोर साहू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि बोनाई के जंगल में दिग्विजय दास ने एक जंगली हाथी का शिकार किया. गोली उन्होंने हाथी की कनपटी पर मारी थी. वहां के आदिवासियों को यह सब अच्छा नहीं लगा था. वे लोग हाथी को गणेश भगवान का रूप मानते थे. दिग्विजय दास को भी इसका अफसोस होने लगा था कि उसने उस निर्दोष हाथी की हत्या क्यों की. उन्होंने स्वयं इस घटना के बारे में किशोर साहू को जानकारी दी थी और अपने हृदय की वेदना को उनके समक्ष प्रकट किया था.
दो दिन बाद दिग्विजय दास राजनांदगांव चले गए. तीसरे दिन वहां से खबर आई कि दिग्वि राजा ने अपनी कनपटी पर पिस्तौल तानकर आत्महत्या कर ली.
यह आत्महत्या ठीक उसी तरह की थी जिस तरह उन्होंने हाथी की कनपटी पर बंदूक चलाकर उसे मार डाला था. क्या यह केवल एक संयोग मात्र था?
22 जनवरी 1958 को किशोर साहू के अभिन्न मित्र और राजनांदगांव के युवा राजा दिग्विजय दास सदा-सदा के लिए अनंत में विलीन हो गए. छोड़ गए ढेर सारे अनुउत्तरित प्रश्न, जो आज भी उत्तर की प्रत्याशा में हैं.
किशोर साहू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है:
“राजनांदगांव का वह राजवंश जो वास्तव में गोसाई वंश था और जिस वंश पर श्राप था कि किसी राजा (महंत) के संतान नहीं होगी- संपूर्णत: नष्ट हो गया.”
और अंतिम फ़िल्म ‘गाइड’
किशोर साहू, किशोर साहू थे, अपनी तरह के एक अलग ही किरदार. एक प्रतिभाशाली अभिनेता, निर्देशक, निर्माता, पटकथा लेखक ही नहीं, हिंदी साहित्य में दखल रखने वाले सुप्रसिद्ध उपन्यास लेखक भी. अशोक कुमार, देवानंद, मनोज कुमार, राजकुमार, विश्वजीत जैसे अभिनेताओं के मित्र और देविका रानी, शोभना समर्थ, स्नेहलता प्रधान, प्रतिमा दासगुप्ता, अनुराधा, शमीम, रमोला जैसी उस जमाने की सुप्रसिद्ध सीने तारिकाओं के हरदिल अजीज.
अमृत लाल नागर, इस्मत चुगतई, मंटो, धर्मवीर भारती, कमलेश्वर, मनोहर श्याम जोशी जैसे हिंदी के मशहूर लेखक किशोर साहू के मित्र हुआ करते थे. साधना, माला सिन्हा तथा परवीन बॉबी जैसी उस जमाने की तारिकाओं को उन्होंने पहले पहल अपनी फिल्मों में काम देकर हिंदी सिनेमा जगत से परिचित करवाया था.
किशोर साहू देवानंद के अभिन्न मित्र थे. देवानंद की नवकेतन फिल्म्स के बैनर तले बन रही फिल्म ‘गाइड’ में मारको के चरित्र के लिए देवानंद को एक चरित्र अभिनेता की जरूरत थी. आर.के.नारायण के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘गाइड’ को वे अंग्रेजी और हिंदी दोनों भाषाओं में बना रहे थे.
अंग्रेजी फिल्म की पटकथा सुप्रसिद्ध लेखिका नोबेल प्राइज विजेता पर्ल बक लिख रही थीं और निर्देशन के लिए टेड डेनिलेविस्कि को चुना गया था. दोनों भारत भी आ चुके थे.
किशोर साहू उन दिनों मद्रास में अपनी फिल्म ‘गृहस्थी’ की शूटिंग में व्यस्त थे. एक दिन बंबई से देवानंद का ट्रंक कॉल आया कि वे ‘गाइड’ फिल्म के सिलसिले में उनसे बात करना चाहते हैं, इसलिए वे तुरंत बंबई आ जाएं. देवानंद ने किशोर साहू को यह भी बताया की टेड और पर्ल बक भारत आ चुके हैं.
उन्होंने यह भी बताया कि इस फिल्म में नायक की भूमिका वे स्वयं करेंगे तथा नायिका के रूप में वहीदा रहमान का चुनाव किया जा चुका है. देवानंद ने फोन पर ही किशोर साहू को बताया कि ‘गाइड’ के सहनायक का चुनाव होना अभी बाकी है. उनका नाम भी सहनायक के पैनल में है, इसलिए उनका बंबई आना जरूरी है.
किशोर साहू ने अपने अभिन्न मित्र देव को बताया कि ‘गृहस्थी’ की शूटिंग में व्यस्त होने के कारण फिलहाल उनका मद्रास से निकल पाना मुश्किल है. उन्होंने देव से कहा कि अच्छा होता तुम ही एक दिन के लिए मद्रास चले आते.
देव ने अपने मित्र की बात मान ली और दूसरे दिन टेड को लेकर मद्रास पहुंच गए. दोपहर में किशोर साहू ने अपने मित्र देव को लंच पर आमंत्रित किया. देव और टेड दोनों लंच पर किशोर साहू के मद्रास स्थित बंगले पर पहुंचे.
टेड ने किशोर साहू को नजर भर देखा और देवानंद से कहा कि हमें जिस मारको की तलाश थी वे हमें किशोर साहू के रूप में मिल गए हैं.
देवानंद ने तुरंत अनुबंध पत्र निकाला और किशोर साहू से उस पर हस्ताक्षर करवा लिए. टेड और देव दोनों शाम की फ्लाइट से वापस बंबई लौट आए. कुछ दिनों के पश्चात ‘गृहस्थी’ फिल्म की शूटिंग समाप्त कर तथा मद्रास को अलविदा कह किशोर साहू अपनी पत्नी प्रीति के साथ वापस बंबई लौट आए.
फरवरी सन 1963 में वे ‘गाइड’ फिल्म की शूटिंग में भाग लेने सपत्नीक उदयपुर पहुंचे. ‘गाइड’ फिल्म की पूरी यूनिट पहले ही उदयपुर पहुंच चुकी थी. देवानंद ने पहले से ही किशोर साहू के लिए उदयपुर के लैक पैलेस होटल में रुकने का प्रबंध कर लिया था, जहां वे स्वयं तथा वहीदा रहमान, चेतन आनंद, पर्ल बक, टेड सभी ठहरे हुए थे.
‘गाइड’ फिल्म के लिए उदयपुर और चित्तौड़ का लोकेशन तय किया गया था. अंग्रेजी और हिंदी दोनों भाषाओं के लिए एक साथ शूटिंग की जा रही थी पर दोनों की पटकथा और निर्देशन में काफी भिन्नता थी.
अंग्रेजी फिल्म का निर्देशन टेड कर रहे थे और हिंदी फिल्म का देव के अनुज विजय आनंद कर रहे थे. पटकथा भी विजय आनंद ने ही लिखी थी. पहले इस फिल्म का निर्देशन देव के बड़े भाई चेतन आनंद करने वाले थे पर देव से कुछ मनमुटाव हो जाने के चलते बात नहीं बनी. सो निर्देशन की जिम्मेदारी भी विजय आनंद पर आ गई. शायद फिल्म की अपार सफलता के लिए इस संयोग का होना भी जरूरी था.
अंग्रेजी ‘गाइड’ फिल्म जल्दी बन गई और रिलीज भी हो गई साथ ही बुरी तरह से फ्लॉप भी हो गई. टेड एक कमजोर निर्देशक साबित हुए थे.
हिंदी में बनी ‘गाइड’ 6 फरवरी सन 1965 में रिलीज हुई. हिंदी में बनी ‘गाइड’ ने बॉक्स ऑफिस के सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले. यह फिल्म सुपरहिट फिल्म साबित हुई. देवानंद, वहीदा रहमान, किशोर साहू और विजय आनंद की कभी न भुलाई जाने वाली फिल्म सिद्ध हुई.
सचिनदेव बर्मन के संगीत और शैलेंद्र के लाजवाब गीतों ने तहलका मचा दिया. हर किसी के होंठ उन गीतों को गुनगुनाने के लिए जैसे बेताब थे. ये गीत आज भी उतने ही कर्णप्रिय और सुमधुर हैं जितने आज से 59 वर्ष पूर्व थे.
“पिया तोसे नैना लागे रे”, “आज फिर जीने की तमन्ना है आज फिर मरने का इरादा है”, “तेरे मेरे सपने अब एक रंग हैं”, “दिन ढल जाए हाय रात न जाए”, “वहां कौन है तेरा मुसाफिर जायेगा कहां” जैसे गीतों को आज भी भुला पाना मुमकिन नहीं है.
‘गाइड’ फिल्म के विषय में स्वयं किशोर साहू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है:
हिंदी चित्र ‘गाइड’ बढ़िया बना. लोगों ने इसमें एक नया देवानंद देखा. वहीदा रहमान इतनी आकर्षक कभी नहीं लगी, जितनी वह ‘गाइड’ में लगी हैं. लोगों को मेरा अभिनय भी पसंद आया. ‘गाइड’ हर दृष्टि से एक अच्छा चित्र था और वह चली भी अच्छी थी.
एक तरह से ‘गाइड’ किशोर साहू की अंतिम फिल्म साबित हुई. हिंदी सिनेमा का यह नायाब सितारा और छत्तीसगढ़ का लाडला तथा प्यारा 22 अगस्त सन 1980 में बैंकाक से उड़ान भरते समय, मात्र 65 वर्ष की आयु में हृदयाघात से, सदा-सदा के लिए सुदूर अंतरिक्ष में विलीन हो गया.