केजरीवाल एक पहेली
अरविंद केजरीवाल द्वारा अपने राजनीतिक विरोधियों से माफी मांगे जाने का एक सीमित मतलब तो है. आम आदमी पार्टी की खास बात यह है कि उसकी आंतरिक खींचतान भी पूरी तरह सार्वजनिक हो जाती है. भ्रष्टाचार विरोधी अभियान से अलग-अलग तरह के कार्यकर्ताओं को मिलाकर बनी पार्टी भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस से इतर एक विकल्प बनना चाहती है. लेकिन इसने सत्ता में आने के बाद भी अपनी कुछ चीजें नहीं छोड़ीं. हालांकि, इस पार्टी में कई अवसरवादी भी आए लेकिन अब भी इसमें कई ऐसे लोग है जो सही मायने में एक बेहतर राजनीतिक विकल्प देने को प्रतिबद्ध हैं.
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल द्वारा उन राजनीतिक विरोधियों से माफी मांग लेने से जिनका वे विरोध करते थे, पार्टी को साथ देने वाले लोगों में नाराजगी है. केजरीवाल ने शिरोमणि अकाली दल के नेता बिक्रम सिंह मजीठिया से माफी मांग ली है. केजरीवाल ने उन पर पंजाब में नशा के कारोबार में लिप्त होने का आरोप लगाया था. कपिल सिब्बल और उनके बेटे अमित से केजरीवाल ने यह आरोप लगाने के लिए माफी मांगी कि 2जी केस में वकालत करने वाले इन दोनों पर हितों के टकराव का मामला बनता है. नितिन गडकरी को भ्रष्ट लोगों की सूची में डालने की बात कहने पर उनसे भी केजरीवाल ने माफी मांग ली है.
इससे केजरीवाल के समर्थक दुखी है. खास तौर पर आप की पंजाब इकाई. इन लोगों ने 2017 के विधानसभा चुनाव में नशाखोरी को बड़ा मुद्दा बनाया था. पार्टी के कुछ प्रमुख समर्थकों ने भी खुद को पार्टी से दूर कर लिया है. पूर्व आप नेता अंजली दमनिया ने कहा कि उन्हें ऐसा लगता है कि केजरीवाल ने धोखा दिया. इन लोगों की आलोचनाओं का सार यही है कि केजरीवाल ने आत्समर्पण कर दिया और इससे भविष्य में पार्टी की संभावनाओं पर बुरा असर पड़ेगा.
इसके बावजूद केजरीवाल के समर्थक उनका मजबूती से बचाव करते हैं. इनका कहना है कि केजरीवाल ने यह निर्णय दिल्ली में बेहतर शासन देने के लिए लिया ताकि उन्हें हर मुकदमे की तारीख पर देश के अलग-अलग हिस्सों में नहीं जाना पड़े. मानहानी के मुकदमों में सजा होने पर जेल भी हो सकती है और केजरीवाल को किसी भी हाल में पार्टी खोना नहीं चाहेगी. केजरीवाल समर्थकों को लगता है कि अक्लमंदी भी बहादुरी का ही हिस्सा है.
इस तर्क के पक्ष में कुछ बातें हैं. आप सरकार जबर्दस्त दबाव में रही है. उपराज्यपाल ने बार-बार यह दिखाया है कि वे निर्णय लेंगे. केजरीवाल के नीतिगत फैसले पलटे गए हैं. दिल्ली सरकार में काम कर रहे अफसरों का करियर केंद्र सरकार पर निर्भर करता है. हाल के सालों में भारत में किसी विपक्षी दल को अफसरों की इतनी अड़चनों का सामना नहीं करना पड़ा है.
ऐसे में लगता है कि पार्टी दिल्ली में अपनी जमीन बचाए रखना चाहती है. सरकारी स्कूलों में उपस्थिति बढ़ी है और मोहल्ला क्लिनिक लोकप्रिय हुए हैं. 2014 में भले ही आप का सपना राष्ट्रीय पार्टी बनने का था लेकिन अभी यह संभव नहीं है. केजरीवाल भी अगर टकराव की राजनीति करते हुए जेल चले जाते हैं तो उनके लिए भी आगे की राजनीति आसान नहीं होगी. उन पर आरोप लगेगा कि वे अपनी जिम्मेदारियों से भाग जाते हैं.
माफी मांगने की घटना का पंजाब और महाराष्ट्र के पार्टी कार्यकर्ताओं के मनोबल पर बुरा असर पड़ेगा. अगर आप अगले लोकसभा चुनावों से पहले अपनी स्थिति ठीक नहीं करती तो विपक्ष की जगह में थोड़ा खालीपन रहेगा. केजरीवाल और उनके सहयोगी चाह रहे होंगे कि दिल्ली पर नियंत्रण बना रहे ताकि इस आधार पर भविष्य में विस्तार हो सके. लेकिन ऐसा होगा ही, यह कहा नहीं जा सकता.
इस घटना से भविष्य के केजरीवाल के बारे में कुछ सवाल उठते हैं. क्या वे बगैर हमलावर रुख के प्रचार करने वाले नेता रहेंगे? पार्टी का क्या होगा जो केजरीवाल के हमलावर रुख का फायदा उठाती थी? संभव है कि 2019 में दिल्ली में जीत हासिल करने के लिए एक बार फिर केजरीवाल टकराव की मुद्रा अपना लें. अगर केजरीवाल के साथ अब भी योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण होते तो क्या स्थिति अलग होगी? अगर पार्टी सामूहिक नेतृत्व को विकसित कर पाती तो जिस संकट का सामना उसे अभी करना पड़ रहा है, वह नहीं करना पड़ता. दिल्ली में छोटे स्तर पर ही सही लेकिन आप की सफलता यह बताती है कि देश में ऐसे राजनीतिक विकल्प की जरूरत है जो पारदर्शिता और गरीबों की बात करता हो. केजरीवाल भले ही अपने बोझ से मुक्त हो जाएं लेकिन जो क्षण उन्होंने और उनकी पार्टी ने गंवा दिए, उन्हें हासिल करना संभव नहीं है.
1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक का संपादकीय