केजरीवाल का इस्तीफ़ा बनाम प्रधानमंत्री पद की तैयारी
कनक तिवारी
भाजपा और मोदी की छत्रछाया से मुक्त या निस्पृह होकर केजरीवाल की राजनीति की महत्वाकांक्षाएं अपनी पेंगें नहीं भर पाएंगी, ऐसा भी कभी-कभी लगता है.
वह अच्छी तरह जानते हैं कि नरेंद्र मोदी के बाद उन्हें ही भारत का प्रधानमंत्री बनने का मौका इतिहास से छीन लेना चाहिए, इतनी फितरत उनमें है. ऐसा आत्मविश्वास उनका कहता है.
लेकिन इसके लिए किसी राष्ट्रीय पार्टी का होना ज़रूरी है क्योंकि बहुत कोशिश करने पर भी आम आदमी पार्टी केजरीवाल के अकेले दम पर सबसे बड़ी ऐसी राष्ट्रीय पार्टी नहीं बन सकती कि जिसका नेता देश का नेता हो जाए.
इसके लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी उनके लिए निरर्थक नहीं हैं. अभी तो सब मिली जुली कुश्ती का खेल है, ऐसा लगता है और केजरीवाल में अगर काबिलियत है तो उन्हें देश का नेता क्यों नहीं बनने देना चाहिए?
बहुत कुछ तो उन्होंने अपने दम पर हासिल किया है. हालांकि किस तरह किया है, वह एक अलग मुद्दा बल्कि पहेली भी है.
अभी परेशानी यही है कि कांग्रेस की राजनीति में अचानक एक मोड़ आया है, बदलाव आया है, और राहुल गांधी नाम का एक नौजवान नेता देश के सामने कई चुनौतियां खड़ी कर रहा है और सफल भी हो रहा है. ऐसी हालत में केजरीवाल को ऊहापोह में जाना स्वाभाविक है.
उनका इस्तीफा देने का ऐलान भी इसी कड़ी का हिस्सा है.
शायद उन्हें पहले से मालूम है कि केंद्रीय निजाम उनके बारे में और क्या-क्या करने वाला है. कहीं न कहीं से कुछ कनफुसिया भी शायद हुई होंगी. ऐसा शक क्यों नहीं होना चाहिए?
इसका कतई अर्थ नहीं है कि केजरीवाल का राजनीति में अवमूल्यन होना चाहिए. वह अपने दम पर जहां तक जा सकते हैं, क्यों नहीं जाएंगे, क्यों नहीं जाना चाहिए. लेकिन एक राष्ट्रीय पार्टी के अभाव में एक राष्ट्रीय कार्यक्रम के भी अभाव में आगे बढ़ना मुश्किल होता है.
आम आदमी पार्टी का जो आर्थिक विचार है, उसका जो राजनीतिक विचार है, उसका कोई अच्छा दस्तावेज तक नहीं है. स्कूल बना लो, अस्पताल बना लो, नालियां साफ करो, बिजली दे दो, इसको वह प्रगति का लक्षण तो मानते हैं लेकिन यह राजनीतिक आईडियोलॉजी नहीं है.
स्वराज नाम की किताब उनके नाम पर छपी थी. उसमें बहुत कुछ वैचारिक कचरा भरा हुआ है. उस पार्टी की कोई आईडियोलॉजी होनी चाहिए. जो भाजपा के पास तो है, कम्युनिस्ट पार्टियों के पास है, कांग्रेस के भी पास है. बहुत कुछ समाजवादियों के भी पास है.
तो ऐसी स्थिति में राजनीति केवल खेलकूद नहीं है. केजरीवाल धीरे-धीरे अपनी प्रासंगिकता इस तरह खो देंगे क्योंकि उनमें व्यक्त करने के अर्थ में गंभीरता के लक्षण नहीं हैं. उन्हें कम बोलना चाहिए. कम उछल कूद करनी चाहिए. लेकिन इतिहास में अपनी जगह ठीक से अंगद के पैर की तरह बनानी चाहिए.
मेरा उनके प्रति बहुत अच्छा विचार है लेकिन जो लक्षण हैं, उनको देखकर ऐसा लगता है कि वह बहुत जल्दी में कोई गड़बड़ी न कर दें.