कौन चाहता है लखमा की मौत
रायपुर | विशेष संवाददाता:छत्तीसगढ़ के दरभा के नक्सली हमले में मरने से बचे कवासी लखमा निशाने पर हैं. दंतेवाड़ा से लेकर दिल्ली तक रोज-रोज आने वाले किस्सों और अफवाहों में तमाम साजिशों के बीच कोंटा के विधायक कवासी लखमा को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है. बस्तर के 12 में से कांग्रेस के एकमात्र विधायक कवासी लखमा हैं, जिनको लेकर अब भारतीय जनता पार्टी के छत्तीसगढ़ प्रवक्ता और वित्त आयोग के अध्यक्ष अजय चंद्राकर ने कहा है कि कवासी लखमा का नार्को टेस्ट करवाया जाये. कवासी लखमा लगभग रोने वाले अंदाज में कहते हैं- “मेरे खिलाफ साजिश हो रही है क्योंकि मैं छोटा आदमी हूं.”
बस्तर में हुये नक्सल हमले के बाद हर दिन अफवाह की आंधी तथ्य, सत्य और झूठ के साथ पूरे छत्तीसगढ़ में बह रही है. कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर नक्सली हमले के घंटे-दो घंटे बाद ही तरह-तरह की अफवाहें राज्य में फैलती रहीं. आरोप-प्रत्यारोप में दावों के ऐसे-ऐसे झूठ गढ़े गये कि संता-बंता के चुटकुले भी पानी भरने लग जायें.
इस हमले के अगले ही दिन महेंद्र कर्मा की मौत के जो किस्से अखबारों में छपे, उसमें बताया गया कि किस तरह कर्मा ने नक्सलियों को हमला रोकने की बात कह कर गाड़ी से बाहर निकल कर अपना परिचय दिया और किस तरह एक नक्सली ने 50 से ज्यादा गोलियां उन्हें मार कर ढ़ेर कर दिया.
इसके तीन दिन बाद दिल्ली के एक अंग्रेजी अखबार ने सुरेंद्र मोहन पाठक के उपन्यासों को भी पीछे छोड़ कर कर्मा की मौत का ऐसा दृश्य अपने अखबार में पेश किया गोया रिपोर्टर वहीं उपस्थित था. मसलन कर्मा से नक्सलियों ने अंतिम इच्छा पूछी, खाना खाने के लिये कहा वगैरह-वगैरह. अखबारों ने दावा किया कि हमले में 2000 नक्सली थे तो किसी ने कहा कि 300 नक्सली थे. जाहिर है, जब ऐसी रिपोर्टिंग की बदहवासी हो तो फिर तथ्यों की तरफ किसका ध्यान जाता है? कवासी लखमा भी लगातार ऐसी ही बदहवासी के शिकार हो रहे हैं, जिसमें कई लोग शामिल हैं.
कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हुये नक्सली हमले में 28 लोगों के मारे जाने और कोंटा के विधायक कवासी लखमा के बच जाने को लेकर रोज सवाल खड़े हो रहे हैं. मीडिया में आने वाली खबरों में हिंसक तरीके से यह पूछा जा रहा है कि कवासी लखमा को नक्सलियों ने क्यों नहीं मारा ? लखमा के बच जाने को लेकर कई तरह की बातें हो रही हैं. सबसे पहला सवाल तो यही कि लखमा को नक्सलियों ने क्यों छोड़ दिया ? कवासी लखमा पलट कर पूछते हैं- “25 मई को नक्सलियों ने जब कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हमला किया तो काफिले में 124 लोग थे. उसमें से 29 लोग मारे गये. इस हमले में बच गये 94 लोगों से कोई नहीं पूछ रहा कि वो क्यों बच गये या नक्सलियों ने उन्हें क्यों छोड़ दिया.”
25 मई को कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर नक्सलियों ने जब हमला बोला तो नक्सली कवासी लखमा, पीसीसी अध्यक्ष नंदकुमार पटेल, उनके बेटे दिनेश पटेल और उनके ड्राईवर को अपने साथ ले गये थे. उसके बाद नक्सलियों ने कवासी लखमा और नंद कुमार पटेल के ड्राइवर को भगा कर पटेल और उनके बेटे की हत्या कर दी थी.
कवासी लखमा रिपोर्टिंग करने पहुंचे एक पत्रकार की मोटरसाइकिल लेकर पटेल के ड्राइवर के साथ घटना स्थल से भागे. घटना वाली शाम रात गहराती गई और कवासी लखमा को घेरने की कोशिश शुरु होने लगी. सुरक्षा व्यवस्था की चुक से शर्मशार हो रही सरकार में शामिल कुछ लोगों ने दांव फेंका कि हमला कांग्रेस की साजिश है और लखमा बच कैसे गये? कहा गया कि माओवादियों ने ही कवासी लखमा को मोटरसाइकिल उपलब्ध कराई.
घटनास्थल पर सबसे पहले पहुंचने वाले आईबीसी 24 चैनल के तेज़-तर्रार पत्रकार नरेश मिश्रा बताते हैं कि वे दरभा तक अपनी कार में पहुंचे और उसके बाद हाईवे चैनल के एक पत्रकार साथी सुमन से उनकी हीरो होंडा मोटरसाइकिल ली और घटनास्थल की ओर रवाना हुये. आम तौर पर ऐसी जगहों पर सावधानी बरतने के उद्देश्य से चाबियां गाड़ी में लगी रहने दी जाती हैं. दरभाघाटी में मौत ने जहां तांडव किया था, वहां पहुंचने के बाद उन्होंने कई घायलों को सहायता पहुंचाई, उन्हें पानी पिलाया और रिपोर्टिंग भी की. यह सब कुछ करने के बाद जब नरेश अपनी मोटरसाइकिल के पास लौटे तो उनकी मोटरसाइकिल वहां से गायब थी. नरेश हैरान और परेशान हो गये.
नरेश कहते हैं- “मेरी गाड़ी लेकर कवासी लखमा जा चुके थे, यह बात मुझे दरभा पहुंचने पर पता चली.”
लेकिन बेपर की उड़ाने वालों को नरेश मिश्रा या कवासी लखमा से बात करने की फुर्सत नहीं है. राजधानी रायपुर से लेकर दिल्ली तक आज भी यही खबर उड़ रही है कि कवासी लखमा को माओवादियों ने मोटरसाइकिल उपलब्ध कराई थी.
कवासी लखमा पर नक्सलियों से सांठ-गांठ का आरोप लगाने वाले तमाम लोग जानते हैं कि बस्तर की 12 में से 11 सीटें भाजपा के पास हैं. और यह बात किसी चुटकुले से कम नहीं मानी जाती कि बस्तर में बिना नक्सलियों के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष इच्छा के कोई राजनीति कर सकता है या उद्योग लगा सकता है. अगर राजनेताओं और नक्सलियों के बीच के संबंधों की जांच की जाये तो बस्तर से लेकर सरगुजा तक कई नेता बेनकाब हो जाएंगे. लोकतंत्र को खोखला करने वाले कई अफसरों के चेहरे से नकाब हट जायेगा. जाहिर है, ऐसे में कोई जांच तो होने से रही. तो फिर कवासी लखमा पर नक्सलियों से सांठ-गांठ का एकतरफा आरोप क्यों ? इसका सीधा जवाब यही है कि अपनी सुरक्षा गलतियों को छुपाने के लिये भाजपा की सरकार में शामिल कुछ लोग किसी भी तरह से इस पूरीघटना को कांग्रेस की आंतरिक साजिश बताने में जुटे हुये हैं और कवासी उनके लिये ‘सॉफ्ट टारगेट’ हैं.
कांग्रेस में भी दबे-छुपे यह बात इसलिये हो रही है क्योंकि कवासी लखमा पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के कट्टर समर्थक हैं. पार्टी के भीतर का एक धड़ा जोगी को निपटाने के चक्कर में खुसुर-फुसुर करता रहता है और उनके लिये भी यह एक बेहतर अवसर है.
लेकिन चकित करने वाली बात इतनी भर नहीं है. नेता, अफसर और मीडिया के साथ-साथ इस साजिश में कई और लोग भी जाने-अनजाने प्रलोभन या दबाव में शामिल होते चले गये. राजधानी में सरकारी अस्पताल और दर्जनों अत्याधुनिक अस्पताल होने के बाद भी सभी घायलों को एक ही जगह रामकृष्ण केयर अस्पताल में भर्ती करवाया गया. रामकृष्ण अस्पताल के डाक्टर संदीप दवे के हवाले से मीडिया में बयान आया कि कवासी लखमा की तबीयत ठीक है लेकिन वे अस्पताल से जाना नहीं चाहते. जाहिर है, इस बयान के सहारे लखमा को लेकर लोगों के मन में संदेह के बादल गहराने की कोशिश की गई.
इसके उलट कवासी लखमा कहते हैं- “मैंने डाक्टरों से कहा कि मुझे जाने दो, मैं ठीक हूं. लेकिन डाक्टरों ने मुझे जबरन दो दिन और अस्पताल में रखा. जिस दिन मुझे छोड़ा गया, उस दिन भी मैंने जिद की थी. वर्ना तो उन्होंने उस दिन भी कई नेताओं के सामने कहा था कि इन्हें दो दिन और अस्पताल में रखना पड़ेगा. कमरे के अंदर कुछ और व मीडिया में कुछ और बयान देने वाले डाक्टर की इस भूमिका की जांच की जानी चाहिये.”
जाहिर है, दरभाघाटी में हुये नक्सली हमले की जांच से परे कई सवाल, जवाब और साजिशें हैं, सरकार की चुक है, कांग्रेस नेताओं का दुस्साहस है, लोकतंत्र को नष्ट करने की नक्सली कार्रवाइयां हैं और इन सबके बीच कवासी लखमा खुद प्रश्नवाचक चिन्ह की तरह खड़े हैं, ढ़ेर सारे हिंसक सवालों से घिरे.