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कश्मीर का कैसे हो समाधान

संदीप पांडेय
ऐसा बताया गया था कि सर्जिकल स्ट्राइक से पाकिस्तान को करारा जवाब दिया जा चुका है. अब पाकिस्तान की हमारे ऊपर हमला करने की हिम्मत नहीं होगी. फिर ऐसा बताया गया कि नोटबंदी, जो असल में सिर्फ नोटबदली था, से आतंकवाद व नक्सवाद की कमर तोड़ दी गई है. उम्मीद थी कि आतंकवादी एवं नक्सलवादी घटनाएं थम जाएंगी. किंतु कहीं कुछ फर्क नहीं पड़ा. पाकिस्तानी, आतंकवादी व नक्सलवादी हमले पूर्व की तरह जारी हैं.

ऐसा लगता है कि गुजरात विधान सभा में मियां मुशर्रफ के खिलाफ और लोक सभा चुनाव में छप्पन इंच के सीने की हुंकार भरने वाले नरेन्द्र मोदी को समझ ही नहीं आ रहा कि स्थिति को काबू में कैसे लाएं. शुरू के दो वर्षों में भारत की साख बनाने के लिए ताबड़-तोड़ विदेश यात्राएं करने वाले नरेन्द्र मोदी की सरकार के कई देशों, जिसमें पड़ोसी पाकिस्तान, चीन व नेपाल भी शामिल हैं, के साथ सम्बंध खराब हो गए हैं. संयुक्त राष्ट्र संघ में कश्मीर के मुद्दे पर भारत की किरकिरी हो रही है. आखिर यह सवाल तो उठेगा ही कि भारत ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग के दल को कश्मीर में क्यों नहीं जाने दिया जबकि पाकिस्तान ने उसे अपने कब्जे वाले कश्मीर में जाने दिया. भारत क्या छुपाना चाह रहा है?

कश्मीर की हालत शायद इससे पहले इतनी खराब कभी नहीं रही. इसका कारण है कि भारतीय जनता पार्टी और व्यापक हिन्दुत्व परिवार की सोच में सिर्फ दो ही ध्रुव होते हैं – या तो आप राष्ट्रभक्त हैं नहीं तो राष्ट्रदोही. पहले सिर्फ कुछ युवा पाकिस्तान में आतंकवादी गतिविधियों का प्रशिक्षण प्राप्त करने जाते थे. अब तो बच्चे-बच्चियां, महिलाएं तक सुरक्षा कर्मियों पर पत्थर फेंकते हैं. भारत सरकार का कहना है कि ये सब देशद्रोही हैं और पाकिस्तान इन्हें उकसाता है और पैसे भी देता है.

यह बात कुछ समझ में नहीं आती. पाकिस्तान तो बाहरी शक्ति है. 70 वर्ष से तो कश्मीर भारत के ही नियंत्रण है. ये कैसे हो गया कि पाकिस्तान जो चाहे वह कश्मीर में करवा लेता है और कश्मीर के लोग भारत को अपना मानते ही नहीं. कहीं न कहीं इसमें भारत सरकार के कश्मीर एवं कश्मीरियों के प्रति रवैए में कुछ कमी रही है जिसकी वजह से धीरे-धीरे कश्मीरियों का आज भारत सरकार के साथ पूरी तरह मोहभंग हो गया है.

कश्मीर के बच्चे व महिलाएं सुरक्षा कर्मियों की लगातार उपस्थिति और उसकी वजह से अपनी असामान्य जिंदगी, जिसमें कदम कदम पर भारत के सुरक्षाकर्मियों द्वारा अपमानित किए जाने का खतरा बना रहता है, से तंग आकर पत्थर उठाते हैं. वे चाहते हैं कि सेना वहां से हटे ताकि वे चैन से जी सकें. शायद इतनी भर आजादी से ही उन्हें राहत मिल जाएगी.

लेकिन सेना तो हटाने की बात दूर जब उमार अब्दुल्लाह ने बतौर मुख्य मंत्री सिर्फ सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम, जिसकी वजह से कई मानवाधिकार उल्लंघन की घटनाएं हुई हैं, को हटाने की बात की तो सेना ने उसे नहीं माना.

भारतीय राज्य दिखाना तो चाहता है कि कश्मीर में परिथितियां सामान्य हैं, चुनाव होता है और स्थानीय दल सरकार चलाते हैं किंतु राज्य सरकार को वह लोकतांत्रिक तरीके से काम नहीं करने देता. देश की सुरक्षा के नाम पर सेना राज्य सरकार पर हावी रहती है और केन्द्र सरकार भी इस मामले में हस्तक्षेप नहीं करती.

कश्मीर में सेना हटाए बिना स्थिति सामान्य नहीं बनाई जा सकती है. एक बार भारत सरकार को जम्मू व कश्मीर की चुनी हुई सरकार पर भरोसा कर उन्हें कश्मीर की पूरी जिम्मेदारी सौंपनी चाहिए. सेना कर काम सिर्फ सीमा की सुरक्षा होना चाहिए. कहां अनुच्छेद 370 में कश्मीरियों को विशेषाधिकार देने की बात थी और कहां हम उनको उतने अधिकार भी नहीं दे रहे जो बाकी राज्यों के पास हैं.

हम कश्मीरियों पर आरोप लगाते हैं कि वे अपने को भारत का हिस्सा नहीं मानते. सच तो यह है कि हम ही कश्मीरियों को अपना हिस्सा नहीं मानते. यदि मानते होते तो वहां लोहे के छर्रों की बौछार करने वाली बंदूकों, जिससे सैकड़ों लोग जिनमें बच्चे भी शामिल हैं, विकलांग या अंधे हो गए हैं, का इस्तेमाल नहीं करते.

क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि इन बंदूकों का इस्तेमाल भारत के किसी अन्य राज्य में किया जाएगा? उ.प्र. में एक भाजपा सांसद जब दल बल के साथ पुलिस अधीक्षक के आवास पर हमला बोल देता है तो उसे देशद्रोह नहीं माना जाता लेकिन कश्मीरी जब सेना पर पत्थर फेंकता है तो वह देशद्रोह है. आखिर क्या अंतर है दोनों घटनाओं में? दोनों में ही भारतीय राज्य से प्रतीकों पर हमला हो रहा है.

इतने लंबे समय तक सेना के बल पर कश्मीर को नियंत्रित करने की कोशिश में कश्मीर की जनता भारत से दूर होती गई. सैयद अली शाह गिलानी चुनाव लड़ कर विधायक बन सकते थे किंतु भारत सरकार की नीतियों ने उन्हें अलगाववादी नेता बना दिया, जिनकी पकड़ कश्मीरी जनता पर किसी चुने हुए जनप्रतिनिधि से ज्यादा है. भारत सरकार कहती है कि वह किसी अलगाववादी से बात नहीं करेगी. लेकिन नागालैण्ड में तो उसने बातचीत की और समझौता भी किया हलांकि अभी तक यह सार्वजनिक नहीं हुआ है.

कुछ लोग कश्मीरियों को नसीहत देने लगे हैं कि यदि भारत के साथ नहीं रहना है तो भारत छोड़कर चले जाएं. यह तो सामंती या साम्राज्यवादी भाषा है. यह तो कहीं के भी लोगों का अधिकार है कि वे अपना भविष्य तय करें. हमने भी अंगे्रजों के खिलाफ लड़ाई में इसे अपना अधिकार माना और अपने लिए एक व्यवस्था चुनी.

भारत को कश्मीर को अपना गुलाम मानना छोड़कर उसे स्वायत्ता का दर्जा देना चाहिए. इसके अलावा कश्मीर में दोनों तरफ सिर्फ लोगों का जानें जाएंगी, लोग घायल होते रहेंगे लेकिन कोई समाधान नहीं निकलेगा.

* लेखक मैगसेसे से सम्मानित सामाजिक कार्यकर्ता हैं.

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