Columnist

मैं कश्मीरद्रोही हूं

अनिल चमड़िया
मैं भारतवासी हूं लेकिन मैं भी अलगाववादी हूं. मैं कश्मीरद्रोही हूं क्योंकि मैं सिर्फ भारत के लोगों से प्यार करता हूं.

किसी भी सीमावर्ती प्रदेश के लोगों के भीतर अलगाववाद की भावना की शिनाख्त कर ली जाती है. लेकिन अलगाववाद के दो रूप होते हैं. किसी प्रदेश या क्षेत्र जैसे कश्मीर और उत्तर पूर्व के राज्यों में अलगाव की पहचान इस रूप में की जाती है कि वहां भारत नाम के राष्ट्र से अलग होने की इच्छा रखने वालों का एक या कई समूह है और वे अपनी इच्छा को पूरा करने के लिए तरह-तरह की कार्रवाईयां करते हैं.

वे अपनी कार्रवाईयों से जन समर्थन भी जुटाने की कोशिश करते हैं और राष्ट्र की मशीनरी को नुकसान भी पहुंचाते हैं. मगर क्या कभी हमने बहुसंख्यक अलगाववाद की पहचान की है?

नहीं है हिंदी में कोई पुस्तक

मैं उत्तर भारत के एक हिंदू परिवार में पैदा हुआ हूं. मेरे भीतर कश्मीर के प्रति अलगाववाद की भावना ही विकसित हुई. पूरे उत्तर भारत में हम एक सर्वे कर सकते हैं कि बचपन के दिनों में वहां कश्मीर से लोगों के रिश्ते कैसे बनाए गए? यदि मैं सौ बच्चों से पूछता हूं तो वे केवल मीडिया की सामग्री के जरिये ही कश्मीर को जानते हैं.

मेरी पहचान भी कश्मीर से किस तरह कराई गई इस कहानी को दोहराना चाहता हूं. मैं साठ के दशक के शुरुआती वर्षो में जन्मा. स्कूल के रास्ते आते-जाते ही मुझे ये बताया गया कि भारत के राष्ट्रीय झंडा तिंरगा से अलग कश्मीर का एक झंडा है. संविधान में उसके लिए अलग से धारा है और वहां मुसलमानों का बहुमत है.

चूंकि पाकिस्तान इस्लाम को मानता है इसीलिए कश्मीर के लोग भी संदिग्ध हैं. कश्मीर पर कोई ऐसी किताब नहीं मिली, जिसमें कश्मीर के भारत का हिस्सा बनने की सच्ची कहानियां मिलती हो. आज तक भी वह किताब खासतौर से हिंदी में तैयार नहीं हो सकी है.

मैंने फेसबुक पर एक पोस्ट देखी, जिसे सैकड़ों लोगों ने पसंद किया था और शेयर किया था. उसमें कश्मीर को जानने के लिए दर्जनों अंग्रेजी की किताबों के नाम थे. एक भी हिंदी में नहीं थी. कश्मीर के प्रति जुड़ाव की किताब नहीं मिलती है जैसे गाय से जुड़ने की किताब मिली. स्कूलों से ही ग से गाय से लेकर गाय हमारी माता है जैसी हर बात गाय से जोड़ने के लिए सिखायी जाती रही.

कश्मीर से जुड़ने की फिल्में मिली. लेकिन वह कश्मीर के खेतों, खलिहानों से नहीं जोड़ती थी.

फिर कहां है कश्मीर?

वह कश्मीर के बर्फ के गोले से जोड़ती थी जो कि बर्फ के ढेर से बनाकर हिंदी फिल्म का एक हीरो एक हीरोइन पर फेंकता है. वह बर्फ की पहाड़ियों से जोड़ती थी, जो मैदानी इलाके की आंखों को देखने में सुंदर लगती थी. नारों में कश्मीर को राष्ट्र का मुकुट कहा जाता था जो कि किसी हिंदू राजा के लिए नारा लगता था. और हां कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक जैसी राष्ट्रीय ध्वनि कानों के लिए तैयार की गई थी.

लेकिन कश्मीरियों से जोड़ने के लिए किताबों की तरह कोई फिल्म नहीं थी. कश्मीर हमेशा एक खूबसूरत जमीन के टुकड़े के रूप में ही मुझ जैसे बच्चों के दिमाग में बना रहा और वह राष्ट्र के लिए एक खतरे के रूप में दिखता रहा. तब वह खतरे के रूप में इस तरह दिखता था कि वहां पाकिस्तान ने नजरें गड़ा रखी है. यानी उसके प्रति एक असुरक्षा का बोध ही विकसित हुआ.

असुरक्षा का बोध अल्पसंख्यक में अलगाववाद पैदा करता है तो बहुसंख्यकों में आक्रामकता पैदा करता है. कश्मीर से जुड़ाव को लेकर किसी सांस्कृतिक संगठन ने सबसे ज्यादा अपनी राजनीति के लिए ढाल बनाए रखा तो वह राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ है. उसने अपनी सांस्कृतिक गतिविधियों में बताया कि कश्मीर में कैसे हिंदुओं के खिलाफ अत्याचार की घटनाएं होती रही है. उस समय के सजिल्द पच्रे मिल जाएंगे. बिना फोरेंसिक जांच से गुजरी तस्वीरें भी मिल जाएंगी.

उसकी सांस्कृतिक गतिविधियों में उत्तर भारत के लोगों को कश्मीर के प्रति अलगाववाद विकसित करने की कला शामिल रही है. सांस्कृतिक गतिविधियों की हवा का रूख दक्षिण की तरफ हो तो लोगों को लोगों से नहीं जोड़ती है. बहुसंख्यकों को मातृभूमि से जोड़ती है. मातृभूमि का मतलब मां की सम्पत्ति. उसकी हिंदुओं पर अत्याचार की कहानियां मुसलमानों के हमले से ही पूरी होती है.

उसके साहित्य में कभी कश्मीरियत नहीं दिखा. जिस भावना से कश्मीर की वादियों में रहने वाले हरेक ने पाकिस्तानी कबीलाइयों के हमलों के खिलाफ शहादतें दी थी. पाकिस्तानी कबीलाइयों के खिलाफ शहादत देने वाले हीरो में वही नाम शामिल है, जो कश्मीरियत के साथ लड़े. इस्लाम के प्रति आस्था के कारण नहीं.

मीडिया में भी मतैक्य नहीं

मैं कश्मीर में चल रही गतिविधियों पर मीडिया की सामग्री देखता हूं तो मुझे याद आता है कि तब राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ का अकेला ‘राष्ट्रवादी पत्र’ हिंदी में पांचजन्य था, जो मेरे शहर में भी शाखाओं में जाने वाले कई लोगों के पास आता था और कश्मीर हिंदुओं के खिलाफ अत्याचार और मेरे जेहन में पाकिस्तानियों के अड्डे के रूप में उसकी तस्वीर तैयार करता था. अब मुझे पांचजन्य के कई संस्करण मिलते हैं, जो तकनीकी रूप से भी काफी विकसित होकर टेलीविजन चैनलों के रूप में दिखने लगे हैं.

मजेदार बात ये दिख रही है कि मीडिया में जितने राष्ट्रवादी बढ़ रहे हैं, उतना ही मेरे भीतर कश्मीर और कश्मीरियों के खिलाफ चल रहा अलगाववाद बढ़ता चला गया है. वे जितना शोर मचाते हैं मेरा मन उतना ही कश्मीर से अलगाव महसूस करता है.

सचमुच में मैं बहुत अलगाववादी हो चुका हूं. कश्मीरद्रोही हो चुका हूं. लेकिन मैं राष्ट्रवादी कहलाता हूं. मेरी संवेदना मानवीय है मगर वह कश्मीर को लेकर दो हिस्से में बंट जाती है. कश्मीर को लेकर संवेदनशील हूं लेकिन कश्मीरियों के लिए पूरी तरह से असंवेदनशील हो चुकी है. मेरे भीतर कश्मीर को लेकर जो अलगाववाद है वह मेरे प्यारे भारत का राष्ट्रवाद है.

मैं अलगाववाद के साथ ही बड़ा हुआ. उस अलगाववाद को अलगाववाद इसीलिए नहीं कहते क्योंकि वह बहुसंख्यक है और संसदीय राजनीति में बहुसंख्यक ही मायने रखता है. संसदीय राजनीति में वह अलगाववाद खतरनाक है जो कि अल्पसंख्यक होता है. मेरा अलगाववाद चुनाव जीतता है. मेरा अलगाववाद उत्तर भारत की राजनीति में मंत्र की तरह काम करता है.

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