कश्मीर का स्पष्ट संकेत
अमेरिका की उतावली सीरियाई नीति
सीरिया में ट्रंप प्रशासन द्वारा की गई सैन्य कार्रवाई सलाफी जिहादियों के अनुकूल है
साम्राज्यवादी ताकतें अक्सर मानवतावाद की बात करती हैं. अमेरिका के राष्ट्रपति भी आजकल ऐसी ही बातें कर रहे हैं. जबकि वे सार्वजनिक तौर पर इसके पहले हिंसा, नस्लवाद और युद्धोन्माद आदि की बातें करते रहे हैं. 1961 से 1971 के बीच चले वियतनाम युद्ध में अमेरिका ने एजेंट आॅरेंज का इस्तेमाल किया था. इसे भूलते हुए अमेरिकी प्रशासन इस निष्कर्ष पर पहुंच गया कि सीरियाई सरकार ने रसायनिक हथियारों का इस्तेमाल किया था. इसके बाद कॉरपोरेट मीडिया के जरिए यह संदेश दे दिया गया कि सीरिया को इसकी सजा जल्द से जल्द भुगतनी होगी.
छह सालों से गृह युद्ध के शिकार सीरिया में बीते 4 अप्रैल को इदिब प्रांत में विद्रोहियों के कब्जे वाले शेखों पर रसायनिक हथियार का इस्तेमाल किया गया. इसके तुरंत बाद व्हाइट हाउस ने इस हमले के लिए सीरिया के राष्ट्रपति बशर उल असद की निंदा की. पूरी मीडिया और राजनीतिक तंत्र ने सीरिया पर जुबानी जंग छेड़ दी. अगले दिन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने इस हमले की तस्वीरों को देखकर हतप्रभ होने की बात कही और उन्होंने कहा कि अस्वीकार्य सीमा को पार किया किया गया है. उन्होंने सैन्य विकल्पों पर बात करने के लिए राष्ट्रीय सैन्य परिषद की बैठक बुलाई. इसके अगले दिन अमेरिका ने सीरिया पर क्रूज मिसाइलों से हमला कर दिया.
सीरिया पर लगे आरोपों पर वहां के विदेश मंत्री वलीद अल मुआलिम ने कहा, ‘सीरियाई सेना ने रसायनिक हथियारों का न तो इस्तेमाल किया है और न करेगी.’ उन्होंने यह भी कहा कि हम ऐसे हथियारों का इस्तेमाल उन आतंकवादियों के खिलाफ भी नहीं करेंगे जो हमारे लोगों को मार रहे हैं. लेकिन उनकी इस बात को मीडिया और ताकतवर लोगों ने नजरंदाज किया. इसके बदले मीडिया ने संयुक्त राष्ट्र में अमेरिकी प्रतिनिधि निक्की हैली के बयान को काफी प्रमुखता दी. उन्होंने कहा था कि अगर वैश्विक समुदाय अपनी जिम्मेदारियों को नहीं पूरा कर पाता है तो अमेरिका को सीरिया पर हमला करने का पूरा अधिकार होगा. अमेरिकी मीडिया और वहां के राजनीतिक वर्ग ने सीरिया पर हमले के लिए ट्रंप की काफी सराहना की. विदेश मामलों पर सीएनएन के शो के एंकर फरीद जकारिया अब तक ट्रंप की आलोचना करते रहे हैं. लेकिन सीरिया पर हमले के बाद उन्होंने कहा कि इस हमले के बाद ट्रंप सही अर्थों में अमेरिका के राष्ट्रपति बन गए हैं.
सच्चाई तो यह है कि पहले की तरह ही इस बार अमेरिका अपनी साम्राज्यवादी कोशिशों को दोहराता दिख रहा है. 1991 में अमेरिका ने तेल संपन्न इराक में ऐसी ही बातों का हवाला देकर घुसपैठ की थी. उस वक्त कहा गया था कि इराक की सेना कुवैत के लोगों को सताने की योजना पर काम कर रही है. 1999 में नाटो ने युगोस्वालिया पर यह कहकर हमला किया कि वहां के राष्ट्रवादी नस्लवादी हिंसा की योजना बना रहे हैं. 2001 में अफगानिस्तान पर यह कहकर हमला किया गया कि अमेरिका में 11 सितंबर, 2001 को हुए हमलों के गुनहगारों को तालिबान प्रोत्साहित कर रहा है. 2003 में इराक पर यह कहकर हमला किया गया कि वहां के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन के पास वैसे हथियार हैं जिनसे बड़ी संख्या में लोगों की जान ली जा सकती है. 2011 में नाटो की अगुवाई में लीबिया में हमला किया गया और वहां के राष्ट्रपति मुनम्मर गद्दाफी की हत्या यह कहकर की गई कि वे बेनगाजी में नरसंहार कराने वाले थे.
वाशिंगटन ने योजनाबद्ध तरीके से अपने हितों की रक्षा के लिए दूसरे देशों में धार्मिक कट्टरपंथियों का इस्तेमाल किया है. अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए ने 1950 के दशक में अरब के लोगों के खिलाफ मुस्लिम ब्रदरहुड को साथ मिला लिया था. 1980 के दशक में सोवियत संघ के खिलाफ मुजाहिदिनों को अमेरिका ने अपने साथ जोड़ा. अब यही घिनौना खेल सीरिया में चल रहा है. सउदी अरब के वहाबी विचार ही सलाफी जिहादियों की प्रेरणा है. ये सुन्नी हैं. ये पुराने तौर-तरीकों में यकीन करते हैं. इस्लामिक स्टेट और अल कायदा दोनों इसी विचार से चलते हैं. इन संगठनों के जो भी सहयोगी इराक और सीरिया में हैं, वे भी इसी विचार के हैं. अल कायदा के जबत अल नुसरा अभी सीरिया में सबसे बड़ी विद्रोही ताकत है. अमेरिका असद के खिलाफ इसका साथ दे रहा है.
समस्या सिर्फ वहाबी विचार में नहीं है बल्कि अमेरिका द्वारा अपने स्वार्थ के लिए की जा रही फंडिंग और हथियारों की आपूर्ति में है. अब वक्त आ गया है कि संयुक्त राष्ट्र अमेरिका, सउदी अरब और खाड़ी देशों को यह कहे कि इन जिहादियों का समर्थन वे बंद करें. क्योंकि ये जिहादी सीरिया में अमेरिकी हितों को साधने के लिए काम कर रहे हैं. अगर सीरिया की स्थिति की ईमानदारी से व्याख्या की जाए तो पता चलेगा कि 21वीं सदी की सबसे बड़ी शरणार्थी समस्या के लिए ये कोशिशें जिम्मेदार हैं. ट्रंप की कार्रवाई से न सिर्फ सलाफी जिहादियों की ताकत बढ़ेगी बल्कि असद के साथ रूस और ईरान पहले के मुकाबले अधिक मजबूती से खड़े होंगे. इसका परिणाम यह होगा कि आम लोगों पर जुल्म और बढ़ेगा और शरणार्थी समस्या और गहरी होती जाएगी.
1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक के संपादकीय का अनुवाद