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ज्योति सिंह की याद में

पांच साल पहले 16 दिसंबर, 2012 को ज्योति सिंह को दिल्ली में एक चलती बस में भयंकर यौन प्रताड़ना दी गई. इस प्रताड़ना के बारे में जब जानकारियां बाहर आती गईं तो लोगों में जबर्दस्त गुस्सा दिखा. उस वक्त की सरकार पर इतना दबाव बना कि उसने ‘निर्भया’ मामले की सुनवाई फास्ट ट्रैक कोर्ट में करवाया और महिलाओं के खिलाफ होने वाले यौन अपराधों से संबंधित कानून को भी मजबूत किया. उस मामले के बाद महिलाओं के खिलाफ होने वाले इस तरह के मामलों पर खूब बहस चली.

ज्योति सिंह की जिंदगी की कहानी इस देश के नौजवानों की आकांक्षाओं को अभिव्यक्त करता है. यह एक बड़ी वजह थी कि बड़ी संख्या में लोग उस हादसे का विरोध करने सड़कों पर उतरे. पिछले पांच साल में यौन अपराधों के खिलाफ कई अभियान दिखे हैं. ऐसे अभियान सड़क से लेकर विश्वविद्यालयों तक दिखे हैं. हरियाण के रेवाड़ी में स्कूल जाने वाली लड़कियों ने अभियान चलाया तो उत्तर प्रदेश के बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की छात्राओं ने भी आवाज बुलंद की. दिल्ली विश्वविद्यालय में पिंजरा तोड़ अभियान चला.

सोशल मीडिया पर चले ‘मीटू’ अभियान के तहत भारत के अकादमिक जगत के कुछ यौन शोषकों का नाम सार्वजनिक हुआ. बलात्कार के कई चर्चित मामलों ने लोगों में इन अपराधों के खिलाफ गुस्सा बढ़ाने का काम किया. इन पांच सालों में एक अच्छा बदलाव यह दिखता है कि लोगों में इस तरह के मामलों के खिलाफ आवाज उठाने की जागरूकता आई है. पहले ऐसे मामलों को दबाने पर जोर होता था.

इसके बावजूद यह नहीं कहा जा सकता है कि ऐसे मामलों की रिपोर्टिंग दर बढ़ी है या फिर ऐसे अपराधों से बच जाने वालों के प्रति सामाजिक सोच बदली है. महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा की चिंता बनी हुई है. साथ ही पुलिस का असहयोगपूर्ण रवैया भी जस का तस है. मीडिया सनसनी के लिए पेशेवर नैतिकता को लगातार दरकिनार कर रही है. अक्सर पीड़ित की पहचान उजागर हो जा रही है. मीडिया में सिर्फ बड़े शहरी केंद्रों के मामले ही प्रमुखता पाते हैं. पिछड़ी जातियों की महिलाओं और अल्पसंख्यकों के खिलाफ होने वाले मामलों को मीडिया में अहमियत नहीं दी जाती. जबकि जिन मामलों में आरोपित इस वर्ग के हों, उन मामलों को मीडिया बढ़ा-चढ़ाकर पेश करती है.

दूसरी तरफ राजनीतिक वर्ग और अदालतें ‘सुरक्षा’ से अधिक कोई और समस्या इसमें नहीं देख पा रही हैं. जबकि महिलाओं के मूल अधिकारों और उनकी अपनी निर्णय क्षमता को लगातार दरकिनार किया जा रहा है. हादिया का मामला सबसे ताजा उदाहरण हैं. फिल्म, टेलीविजन और सोशल मीडिया ने भी लोगों में इस तरह का भय पैदा करने का काम किया है. यह इस बात से साबित होता है कि लोग रेप के मामलों में अदालतों पर मृत्यु दंड के लिए दबाव बना रहे हैं और अदालतें ऐसा कर भी रही हैं. यह मानवाधिकार संधियों और यहां तक की जस्टिस वर्मा समिति की सिफारिशों के भी खिलाफ है.

बलात्कार से संबंधित कानूनों में वे सभी संशोधन नहीं हुए जिनकी सिफारिशें वर्मा समिति ने की थीं. वैवाहिक बलात्कार कानून के दायरे से बाहर बना हुआ है. वर्मा समिति ने सहमति की उम्र घटाने और सेना में बलात्कार के मामलों में सुनवाई के लिए जरूरी संशोधन की सिफारिश भी की थी. बलात्कार कानूनों के अलावा महिलाओं के खिलाफ हिंसा से जुड़े अन्य कानूनी प्रावधानों को कमजोर किया गया है. भारतीय दंड संहिता की धारा-498ए को ‘दुरुपयोग’ और परिवार संस्था के कमजोर होने का कुतर्क देकर कमजोर किया गया.

अभी भारत में जो प्रभावी राजनीतिक विचारधारा है उसमें महिलाओं को गौरवशाली हिंदू परंपरा से जोड़कर देखा जा रहा है. यह पद्मावती फिल्म और लव जिहाद के मामले में जो कुछ हो रहा है, उससे प्रमाणित होता है. महिलाओं को रुढ़िवादी सांस्कृतिक एजेंडे में डालकर उन्हें यौन हमलों के शिकार के तौर पर पेश किया जा सकता है जिसकी रक्षा के लिए परिवार, समाज और सरकार की जरूरत है.

इससे महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों का पूरा मामला गड़बड़ हो रहा है. इसमें बदलाव सिर्फ लोगों के गुस्से और कानूनी संशोधनों से नहीं होगा. बल्कि इसके लिए यह जरूरी है कि पुरुषवादी सोच को बदलने की दिशा में लगातार प्रयास किए जाएं. यह तब ही होगा जब महिलाओं को अधिक आजादी मिले और उन्हें कहीं भी आने-जाने की अधिक छूट मिले. महिलाओं की सुरक्षा तब ही सुनिश्चित हो सकती है जब सबके लिए सामाजिक समानता, न्याय और भाईचारा स्थापित हो.
1960 से प्रकाशित इकॉनामिक एंड पॉलिटिकल विकली के नये अंक का संपादकीय

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