पत्रकारों के लिए जंगल राज
एस के पांडे
मारो, पीटो, आतंकित करो और शोषण करो. आज पत्रकारों को अपने नियंत्रण में रखने का यही नया कानून है, फिर चाहे वह प्रिंट मीडिया या इलेक्ट्रोनिक मीडिया या फिर नया सोशल मीडिया. जाहिर है वक्त-वक्त पर सरकार पैसे और सत्ता की इस दुनिया में चुनिंदा लोगों के लिए लालच देने और छड़ी फटकारने के इन्हीं रुखों को शह देती रही है.
बिहार के सीवान में राजीव रंजन की हत्या और उससे पहले झारखंड में अखिलेश प्रताप की हत्या कुछ संकेत मात्र हैं. वर्ष 2015 में हत्याएं, हमले और प्रेस की आजादी का अतिक्रमण एक उभरते हुए जंगल के कानून के कुछ स्पष्ट संकेत हैं. इसलिए आश्चर्य की कोई बात नहीं अगर दुनिया में विभिन्न तरह की आजादियों के सूचकांकों में भारत का नाम नीचे के एक तिहाई देशों में है.
घृणित इमरजेंसी के चालीसवें वर्ष में तरह-तरह के दबाव हमें उसी की याद दिलाते हैं. हमें प्रेस सेंसरशिप की याद दिलाते हैं. बस इसमें बाहुबल की बर्बरता और जुड़ गयी है. आज पत्रकार ठेको की बंदिश में ज्यादा से ज्यादा बंधते जा रहे हैं. आज उनके तीन ग्रुप बन गए हैं- एक ग्रुप उन पत्रकारों का है जिन्हें खूब अच्छा पैसा मिल रहा है, फिर एक ग्रुप उनके सहायकों का है और उसके बाद फ्रीलांसरों की फौज है जिन्हें मामूली रकम मिलती है और उसके लिए उन्हें महीनों इंतजार करना पड़ता है.
पत्रकारों की दुर्दशा का हाल यह है कि दिल्ली के पटियाला हाऊस कोर्ट परिसर में उन्हें खुले आम पीटा जाता है. उनकी यह पिटाई उन चुनिंदा गुस्सैल वकीलों द्वारा की जाती है जिनकी सत्ता से नजदीकी है. दुर्दशा इतनी है कि पुलिस भी उन्हें बचाने की कोशिश नहीं करती और निस्सहाय देखती रहती है. हाल ही में उनके साथ पिटनेवालों में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र और शिक्षक भी शामिल थे.
गत 15 तथा 16 फरवरी को लगातार दो दिन तक दिल्ली के पत्रकारों पर हुए हमलों का सवाल है, यह ड्यूटी कर रहे पत्रकारों पर हमलों का स्पष्टï मामला था. यह भी एक तथ्य है कि वे नियमित बीट पत्रकार थे. लेकिन महिला पत्रकारों तक को नहीं बख्शा गया.
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि तकरीबन 90 फीसद राष्ट्रीय प्रेस और ज्यादातर टी वी चैनलों ने इस घटना को कवर किया. दिल्ली सरकार ने अब इस प्रकरण कुछ ऐसे टेप सबूतों के तौर पर पेश किए हैं, जिनके साथ छेड़छाड़ की गयी थी. क्या यह प्रैस की आवाज को कुचलने और उसे डराने-धमकाने का सीधा प्रयास नहीं था, जबकि पुलिस खामोश दर्शक बनी सब देखती रही.
एक युवा पत्रकार पूजा तिवारी की मौत का मामला भी सामने है जिस पर दिल्ली यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट्स तथा दिल्ली जर्नलिस्ट्स एसोसियशन जैसे विभिन्न पत्रकार संगठनों ने अपने क्षोभ का इजहार किया है.
छत्तीसगढ़ में और खासतौर से बस्तर क्षेत्र में स्थिति बेहद खतरनाक है. एडिटर्स गिल्ड ने बस्तर का दौरा करने के बाद एक रिपोर्ट जारी की है, जिससे पता चलता है कि कैसे पत्रकार सिर्फ सरकारी पक्ष या फिर धुर विरोध पक्ष या फिर कई बार सिर्फ पुलिस का पक्ष पेश करने के चलते दोतरफा हमले में फंस जाते हैं. उन्हें उत्पीडि़त किया जाता है, जिसमें उनकी गिरफ्तारियां भी शामिल हैं. यह तकरीबन रोजमर्रा की बात हो गयी है.
सच्चाई तो यह है कि अब न सिर्फ पत्रकारों बल्कि शिक्षाविदों को भी आतंकवादियों के रूप में पेश करना एक फैशन ही बन गया है.
हाल में जंतर-मंतर पर एक विरोध प्रदर्शन के दौरान कुछ पत्रकारों ने दिल्ली यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट्स के पदाधिकारियों के समक्ष अपनी परेशानियां बयान की.
आज जरूरत इस बात की है कि ड्यूटी करनेवाले पत्रकारों को रिस्क इंश्योरेंस कवर दिया जाए. लेकिन यह एक अल्पजीवि कदम ही हो सकता है. दीर्घावधि कदम के रूप में जरूरत इस बात की है कि एक स्वतंत्र मीडिया कमीशन हो. यह पहले तथा दूसरे प्रेस आयोगों की तर्ज पर होना चाहिए, लेकिन उस पर सरकारी नियंत्रण कम से कम हो.
यह आयोग पूरे मीडिया पर नजर रखे फिर चाहे वह प्रिंट मीडिया या इलेक्ट्रोनिक मीडिया. वह उभरते ढ़ांचे पर गौर करे जिसमें पत्रकारों के काम की स्थितियां और उन पर पड़ऩेवाले दबाव शामिल हैं. यह नए खिलाडिय़ों पर भी नजर रखे जिनमें से कईयों का रिकार्ड बहुत ही संदेहास्पद होता है.
आज वक्त की जरूरत यह है कि कामकाजी पत्रकार कानून को वापस लाया जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि इसमें इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी शामिल हो. इसी के साथ उचित वेतन सुनिश्चित करना भी आवश्यक है. इसके साथ ही साथ पत्रकारों की सुरक्षा के लिए एक राष्ट्रीय सुरक्षा कानून बनाया जाना चाहिए.
इसके लिए साझा मांगों पर ऑल इंडिया न्यूजपेपर एंप्लाइज फेडरेशन और पत्रकारों के और व्यापक संगठनों के साथ और ज्यादा संयुक्त संघर्ष चलाए जाने की जरूरत है. इसका अर्थ यह भी होगा कि नव-उदारवाद के खिलाफ मजदूर वर्ग की यूनियनों का कुछ मुद्दों पर साथ दिया जाए और बढ़ते संघर्षों के कवरेज में उनकी मदद की जाए, न कि उन्हें ब्लैकआऊट किया जाए.
यह एक सचाई है कि पत्रकार यूनियनों तक की रिपोर्टों, जिनमें उनके प्रेस बयान भी शामिल होते हैं, तक को ब्लैक आऊट कर दिया जाता है.
अकेले दिल्ली में ही करीब 300 पत्रकार अन्यायपूर्ण लेबर प्रेक्टिसों के खिलाफ अदालतों में लड़ रहे हैं. इसी तरह दिल्ली में कोई एक हजार मजदूर हिंदुस्तान टाइम्स ग्रुप जैसे मामलों में मुकदमे लड़ रहे हैं. वे धरने भी दे रहे हैं. उनके मामले में अदालतें जो फैसले सुनाती हैं, उनका प्रेस में कोई जिक्र नहीं होता. यहां तक कि अगर फैसला उनके पक्ष में आता है तो भी नहीं.
असली सवाल यह है कि क्या उन्हें सरकार की मिलीभगत के बिना बर्खास्त किया जा सकता है? और वह भी 2005 में? उसके फौरन बाद उसी अखबार में पत्रकारों को मनमाने ढ़ंग से निकाल बाहर किया गया ताकि उन्हें वेज बोर्ड का बकाया न देना पड़े. उसी कार्यालय में 300 से ज्यादा मजदूर भुखमरी का शिकार हैं, जिनमें से करीब 12 की मौत हो चुकी है. उनके परिवार फैसले का इंतजार कर रहे हैं. विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस बीत चुका है. क्या अब वक्त नहीं आ गया है जब यह नारा लगना चाहिए: ‘‘पत्रकारिता को बचाओ, प्रेस वर्कर्स दिवस को बचाओ.’’