न्यूजरूम में एक प्रधान संपादक का कोलेप्स कर जाना
पुष्य मित्र | फेसबुक:एक बड़े हिंदी अखबार का प्रधान संपादक रात साढ़े दस बजे अपने ही न्यूज रूम में कोलेप्स कर जाता है. महज 55 साल की उम्र में. यह महज सहानुभूति और सांत्वना व्यक्त करने वाली खबर नहीं है. यह खबर कहीं अधिक बड़ी है. यह एक सवाल है कि क्या हमारा न्यूजरूम पत्रकारों की जान लेने लगा है. अखबारों में काम करने वाले हमारे ज्यादातर मित्र इस बात से इत्तेफाक रखते होंगे कि पिछले कुछ सालों में न्यूजरूम का प्रेशर लगातार बढ़ रहा है. सीनियर लेवल के लोग लगातार प्रेशर में काम कर रहे हैं. अखबार में होने वाली एक चूक दिन भर के मूड का भट्ठा बैठा देती है. डांट-डपट का सिलसिला जो टॉप लेवल से शुरू होता है वह नीचे तक रिसता रहता है. जो अखबार जितना प्रोफेशनल है वहां यह तनाव उतना ही अधिक है.
और यह चूक कोई पत्रकारिता से संबंधित चूक नहीं होती. मुमकिन है आपने बहुत अच्छी खबर लगायी हो और उसकी वजह से सरकार के लोग आपके अखबार से नाराज हो जायें और यह तनाव का सबब बन जाये. क्योंकि सरकार के नाराज होने का मतलब है, विज्ञापन का फ्लो एक झटके में बंद हो जाना. यह तनाव इसलिए भी हो सकता है कि आपके कोई दो साथी आपस में झगड़ बैठे हों और उसे सुलझाने की जिम्मेदारी आपकी हो.
यह इसलिए भी हो सकता है कि आप ही सनक में आकर किसी पटना के पत्रकार का तबादला सूरत कर दें और वह पत्रकार भरे दफ्तर में आपसे गाली-गलौज या मारपीट कर बैठे. इसलिए भी कि प्रसार विभाग घटती बिक्री का खामियाजा संपादकीय विभाग पर फोड़ दे और आप जवाब देते रहें. यह इसलिए भी सकता है कि आपके बॉस आपसे किसी मंत्री का फेवर चाहते हों और आप ऐसा काम करने से बचते हों. यह इसलिए भी हो सकता है कि बिहार आया आपका बॉस चाहता हो कि आप उसके लिए कहीं से दारू की एक बोतल जुगाड़ दें. और कुछ तो परमानेंट किस्म के तनाव होते हैं, आप टॉप पर हैं तो आपके दस किस्म के दुश्मन होते हैं, आप हमेशा खतरे की जद में रहते हैं. वे आपके लिए गड्ढ़ा खोदने में जुटे रहते हैं, आप उनके लिए. यह सब ऐसा ही है जैसा किसी भी कॉरपोरेट कंपनी में होता है.
यह सब इसलिए लिख रहा हूं कि जो पत्रकार नहीं हैं, वे इस दुनिया को समझें. अब पत्रकार पत्रकारिता के, खबर लिखने के और किसी को अपनी खबर से नाराज करने के दबाव में कम है. उस पर ज्यादा दबाव मैनेजेरियल किस्म के हैं. और हमारा न्यूजरूम इन दबावों की वजह से कत्लगाह बनता जा रहा है. कल्पेश जी की मौत कोई पहली घटना नहीं है. इससे पहले भी न्यूज रूम में पत्रकारों को हार्ट अटैक आये हैं और उनकी जान चली गयी है. इनमें संपादक और न्यूज एडिटर किस्म के लोग भी हैं. भड़ास डॉट कॉम जैसे मंचों का शुक्रिया कि ऐसी खबरें सामने आती रहती हैं. वरना इन मसलों पर बात भी कौन करता.
और एक प्रधान संपादक की या किसी पत्रकार की न्यूज रूम में मौत को ही न देखें. आप न्यूजरूम में काम करने वाले हमारे साथियों का हेल्थ प्रोफाइल चेक करें. अगर किसी न्यूज में रूम में 50 लोग काम करते हैं तो उनमें 30 जरूर हाई ब्लड प्रेशर का शिकार होगा और 10 से अधिक शुगर के मरीज बन चुके होंगे. इसी तरह स्पोंडेलाइटिस, किडनी, लिवर, गॉल ब्लाडर से जुड़ी परेशानियां यह आम है. हम रोज अपने साथियों को इनसे जूझते हुए देखते हैं और इसी प्रक्रिया में हमारा कोई साथी एक रोज अचानक विदा ले लेता है. फिर हम ऑर्बिच्युरी लिखते रह जाते हैं.
दरअसल उदारीकरण की शुरुआत के साथ ही टाइम्स ऑफ इंडिया के समीर जैन ने भारतीय पत्रकारिता का कल्चर ही बदल दिया. उसके बाद अखबार एक आंदोलन नहीं, एक उत्पाद बनने लगा. उत्पाद बनते ही संपादक सुपर वाइजर की भूमिका में आ गया. वह खबरों से कम अखबार को रसीला बनाने की कोशिश में अधिक जुट गया. साथ ही यह प्रेशर भी कि सरकार के साथ-साथ हर बड़े विज्ञापनदाता को भी खुश रखना संपादक नामक पदाधिकारी की ही जिम्मेदारी बन गयी. जिलों और प्रखंडों तक फैली उसकी टीम विज्ञापन और प्रसार के मसले पर भी काम करने लगी, लिहाजा उसे भी इसमें शामिल होना पड़ा. फिर कंपनी की जायज नाजायज ख्वाहिशें जो सरकार से जुड़ी होती हैं, वह भी संपादक को ही करना है. यह साधारण दबाव नहीं है.
मैंने अपने संपादक साथियों को देखा है, सुबह पांच बजे ही फोन आने शुरू हो जाते हैं कि फलां सेंटर पर अखबार समय से नहीं पहुंचा. आठ से नौ बजे तक यही झमेला रहता है. उसका बाद खबरों की मिसिंग. आज आगे रहे या पिट गये. फिर 11 बजे मीटिंग, वहां पत्रकारों की क्लास लेना और सीनियर्स को रिपोर्ट करना. फिर को स्पेशल प्लान, फिर एक या डेढ़ बजे घर गये दो घंटे आराम करके फिर दफ्तर वापस. कई संपादक फिर रात के बारह बजे घर लौटते हैं. कुछ समझदार हैं जो दस बजे लौट जाते हैं, वे भी आखिरी एडीशन छूटने तक घर में रहने के बावजूद जगे रहते हैं. टीवी और नेट पर नजर रहती है कि कहीं कोई बड़ी घटना तो नहीं हो गयी. ऑफिस से पन्ने बन बन कर वाट्सएप पर उनके पास भेजे जाते हैं.
पहले दिन भर फोन घनघनाता था. अब इसकी जगह वाट्सएप ने ले ली है. मगर वाट्सएप से चीजें आसान होने के बदले और जटिल हो गयी हैं. वाट्सएप ग्रुप में पचास लोग हैं. उनके अनावश्यक झगड़े भी आपका अटेंशन खींचते हैं. आप उसमें उलझे रहते हैं.
इसके अलावा आप संपादक बनते ही कई लोगों की निगाह में आ जाते हैं. हर कोई सोचता है कि आप मोटा माल बना रहे हैं, फिर आपके परिचित पत्रकारों को लगता है कि आप उन्हें आसानी से बेहतर नौकरी दे सकते हैं. मतलब आपको चैन नहीं हैं. यह गणेश शंकर विद्यार्थी या प्रभाष जोशी वाली संपादक की कुरसी नहीं है, जहां आप अपने विचारों से अपने अखबार और समाज को समृद्ध करते हैं. आज संपादकों की दुनिया बिल्कुल अलग है. आपको लिखना-पढ़ना छोड़कर तमाम किस्म के प्रबंधकीय काम में जुटना है. तनाव की जलती भट्ठी में खुद को झोंक देना है. जाहिर है कि ऐसे में ऐसी दुखद घटनाएं होती हैं.
मगर सवाल यह है कि क्या मीडिया कंपनियों के मालिकानों की निगाह में यह बात है कि आपकी धनलिप्सा ने हमारे न्यूजरूम को कत्लगाह बना दिया है? क्या वे सोचते हैं कि इस स्थिति में कोई बदलाव होना चाहिए. अगर नहीं तो जैसे मोरचे पर फौजी शहीद होते हैं, वैसे न्यूजरूम में संपादक इसी तरह मरते रहेंगे. अलविदा कल्पेश सर…