ओह, ये ही होते हैं पत्रकार !
जगहंसाई
पोस्टमार्टम के बाद दंडकारण्य समाचार में रिपोर्ट करना था. मैंने फोन लगाकर सूचना दी. फोन में बातचीत के दौरान खरख्रराहट के चलते भारी अवरोध था. मैंने मणिकुंतला मैडम को बताया मैडम ने सुना. समझ में नहीं आने के कारण वे बार-बार पूछती रहीं कि क्या निकला. डाक्टरों ने भूख से मरने की पुष्टि नहीं की थी. और कहा था कि अनाज का अंश है. मैंने कह दिया ‘अनाज का दाना निकला.’ बस फिर क्या था दंडकारण्य ने खबर प्रकाशित कर दी कि ‘गागरी के पेट से अनाज का दाना निकला.’ खबर छपने के बाद जो हुआ वह तो हुआ ही. दंडकारण्य समाचार की जग हंसाई भी खूब हुई. इसकी वजह न तो मैं था और न ही तुषारकांति बोस जी, जो हुआ उसकी वजह फोन की गड़बड़ सेवा थी. बाकि समझ की बात थी. जो भले ही मै नहीं समझ पाया पर ‘उन्हें’ तो समझना चाहिए था.
दंडकारण्य से संबंधित एक और खबर याद है. भ्रष्टाचार की निर्माण कार्यों में अनियमितता की शिकायत की जांच करने किलेपाल पहुंचा. वहां ठेकेदार ने मुझ पर बंदूक तान दी. और जान से मारने की धमकी दी. इसकी खबर भी दंडकारण्य में प्रकाशित हुई हैडिंग थी ‘समाचार एकत्र कर रहे संवाददाता को जान से मारने की धमकी’. कुल मिलाकर फिरंता पत्रकारिता की मेरी एक शुरूआत थी. जिसे मैं शायद अब समझ पा रहा हूं.
पत्रकारिता और राजनीति
पत्रकार होने के नाते गांव में पहचान और साख बढ़ी. कांग्रेस के विधायक मन्नूराम कच्छ को सरपंच से विधायक बनते देखा और योगदान दिया. सो राजनीति का रंग-ढंग भी देखा. करीब से समझा. अक्सर ऐसी ही गलतियां ग्रामीण पत्रकार करते हैं जो मैंने की हैं.
पत्रकार और नेतागिरी के बीच करीबी रिश्ता है. नेता चाहता है पत्रकार उसके साथ हों. और पत्रकार तो चाहता ही है कि उसे समाज में रुतबेदार समझा जाए. इस दौर में भोपाल आने-जाने का क्रम भी शुरू हुआ.
विधायक विश्राम गृह 2 में नेताओं जैसी हरकतें, बातें, आम थी. पत्रकारिता पीछे छूटने लगी थी और नेतागिरी का रंग चढ़ने लगा था. हालांकि यह दौर बेहद आंशिक रहा. अपनी गलतियों को समझते देर नहीं लगी. पर जो भी उस दौरान देखा वह अपनी आंख खोलने के लिए काफी है.
यह भी लगता है कि अगर राजनीति को इतने करीब से नहीं देखा होता तो शायद पत्रकारिता में वैसा पैनापन भी नहीं आ पाता. क्योंकि पत्रकारिता में चाहे कुछ भी क्यों न हो. इसका राजनीतिक संबंध तो होता ही है. (उस दौर की बात फिर कभी) इसके बाद मैं बस्तर लौट आया. पत्रकारिता के क्षेत्र में ही सक्रिय हो गया. पुन: गांव से ही शुरूआत.
एक बड़ी खबर
जब मैं भोपाल से लौटा तो सुबह मां ने बताया ‘सुना, आरापुर में टोनही बताकर महिलाओं को बांधकर पीटा गया है. वहां आंगादेव लेकर आए हैं, जो बता रहा है कि कौन टोनही है.’
मां ने यह भी बताया कि कल गांव वाले यहां भी चंदा मांगने आए थे. शायद एक-दो दिन में आंगा देव यहां भी आएंगे. बस फिर क्या था, पत्रकार जाग चुका था. कैमरा लिया और निकल पड़ा आंगादेव को ढूंढने. पास के ही गांव में दुगनपाल के करीब आंगादेव का मजमा मिल गया.
वहां कैमरा लेकर पहुंचने के बाद जैसे ही तस्वीर निकाली चार आदमियों के कंधों पर सवार आंगादेव दौड़ते हुए पहुंचे और धूल उड़ाते खड़े हो गए. मैं वास्तव में तब घबरा गया था. लगा कि अब तो गए काम से. आंगा देव ने मेरी नीयत समझ ली है. पर सामने के दो युवा बैठ गए, पीछे के दो युवा खड़े रहे. मैंने उनके साथ आए व्यक्ति से पूछा कि क्या कह रहे हैं, वो बोले फोटो खिंचवाने आए हैं, खींच लो.
मैंने तस्वीर ले ली और उल्टे पैर लौट आया उस गांव में जहां कथित रूप से आंगा देव ने कहर बरपाया था. रिपोर्ट ली और सीधे देशबंधु के दफ्तर पहुंचा. खबर पवन दुबे को दी और उसने रायपुर भेज दी. एक सप्ताह के बाद रविवारीय अंक में आल एडिशन रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी वह भी बाई लाइन. टोनही प्रताड़ना के इस मामले में आरापुर के 35 ग्रामीणों के खिलाफ एएफआईआर दर्ज की गई. मामला कोर्ट में है.
पहली सिटी रिपोर्टिंग
पत्रकारिता की सनक बढ़ती गई. 1995 में एक दिन तुषारकांति जी का फोन आया और उन्होंने कहा सुरेश तुम जगदलपुर में सिटी रिपोर्टर बनोगे? मैंने हामी भर दी और जगदलपुर पहुंच गया. इसके बाद कुछ समय तक दंडकारण्य समाचार में सिटी रिपोर्टिंग की. इस दौरान दो कॉलम शुरू किए एक ‘दरबारी भाट’ और दूसरी ‘बीच शहर’.
एक रोचक घटना भी उसी दौरान हुई, जो याद रह गई है. पत्रकारिता में कब कौन कहां कैसे हो जाए, कोई नहीं जानता. पल्लव घोष जो अब दुनिया में नहीं रहे, उन्होंने तुषारकांति बोस जी से परिचय करवाया था. उसके बाद मैं जगदलपुर में उन्हीं के अखबार में सिटी रिपोर्टर बना.
एक दिन शाम को जब वे मेरी टेबल की ओर पहुंचे तो देखा कि उनकी लिखी खबर को एडिट करने के लिए मैडम ने मुझे सौंप दिया था. बस फिर क्या था, दफ्तर में बवाल खड़ा हो गया. पल्लव ने मैडम से नाराजगी जताई. मैंने पूरे विवाद से स्वयं को अलग रखने की कोशिश की. आखिर मैडम का आदेश और पल्लव भाई के बीच में मैं नहीं पड़ना चाहता था.
‘दरबारी भाट’ का कंटेंट लिखकर मैडम की टेबल पर दे दिया. उन्हें बात जम गई और इस तरह से कॉलम शुरू हुआ. पर पांच अंक के बाद ही कॉलम बंद हो गया. मसला जगदलपुर कलेक्टर प्रवीर कृष्ण के इमली आंदोलन से जुड़ा था. जिसमें आंदोलन के पक्ष में स्कूली बच्चों की रैली निकाली गई थी. इस पर झन्नाटेदार कटाक्ष दरबारी भाट के अंक के लिए लिखकर दफ्तर से निकला. दूसरे दिन सुबह वह अंक नहीं छपा था. सो, अपना बोरिया बिस्तर उठाया और दंडकारण्य समाचार छोड़ दिया. अक्खड़ मिजाज होने के अपने फायदे और नुकसान होते हैं. ऐसा अब महसूस होता है.
इस बीच में एक-दो बार ऐसे अवसर भी आए जब मैंने देशबंधु में पवन दुबे के साथ स्वयं को जोड़े रखा. देशबंधु में समाचार लिखता तो रायपुर में एक सज्जन थे. जिनसे कभी आमने-सामने मुलाकात तो नहीं हो पाई; पर वे बहुत कुछ सीखा गए. उनका नाम था कुलदीप निगम. जो अब दुनिया में नहीं है.
वे देशबंधु रायपुर कार्यालय में भेजे गए समाचार में लाल गोले लगाकर वापस भिजवाते. उसे पढ़ता और सुधार करता. आज के सुरेश महापात्र को कुलदीप निगम जी ने प्रशिक्षित किया है, कहना गलत नहीं है. बीच-बीच में देशबंधु छोड़कर तोकापाल लौट आता. दो-तीन दिन नहीं पहुंचने पर पवन दुबे सीधे घर पहुंच जाते. मां को समझाते कहते ‘इसे क्या हो जाता है? मां जी इसमें काबिलियत है.’ फिर वही देशबंधु का दफ्तर.