अखबारनवीसी का हक नहीं?
सुनील कुमार
पिछले कुछ दिनों से सोशल मीडिया पर कुछ अखबारनवीसों के बीच यह बहस छिड़ी है कि जिन लोगों को सही वाक्य लिखना नहीं आता, उन्हें मीडिया में लिखने का हक है, या नहीं. बहस के शब्द कुछ अलग हो सकते हैं, लेकिन कुल जमा बात भाषा को लेकर है कि उसका सही होना कितना जरूरी है. और यह बहस कोई नई नहीं है, हमेशा से बातचीत में कुछ लोग जब किसी की काबिलीयत को चुनौती देते हैं, तो यही कहते हैं कि उसे एक वाक्य भी ठीक से लिखना नहीं आता. जो लोग अंग्रेजी ठीक से नहीं बोल पाते हैं, उनके बारे में अंग्रेजी के जानकार कहते हैं कि वे दो वाक्य भी बिना रूके नहीं बोल पाते, और सही तो बोल ही नहीं पाते.
अब अंग्रेजी में इन दिनों एक शब्द का चलन कई जगह दिखाई पड़ता है, ग्रामर-नाजी. ग्रामर तो व्याकरण है, और नाजी है नस्ल के आधार पर नफरत करने वाला, हिटलर का अनुयायी. तो जो लोग ग्रामर की गलतियों को एक नस्लभेदी नफरत के साथ हिकारत से देखते हैं, उन लोगों के लिए ग्रामर-नाजी शब्द गढ़ा गया है. और यह बात हिन्दुस्तान में हिन्दी भाषा में भी है, जो कि देश के बहुत से हिन्दीभाषी राज्यों की स्थानीय बोलियों से मिलकर बनी भाषा है, और जिस पर क्षेत्रीयता या स्थानीयता का प्रभाव भी खासा कायम है.
हिन्दी का व्याकरण तो गढ़ लिया गया है, लेकिन क्षेत्रीय बोलियों के शब्द अलग-अलग इलाकों में चलते हैं, जिनके कि कोई विकल्प नहीं हैं, और बहुत से ऐसे क्षेत्रीय बोली के शब्द हैं, जिनके कोई बेहतर विकल्प हो ही नहीं सकते.
इसके साथ-साथ भाषा की एक बड़ी खूबी कहावत और मुहावरा भी होते हैं. ऐसी लोकोक्तियों के बिना कोई भी भाषा अधूरी रहती है, और अधिकतर लोकोक्तियां किसी न किसी क्षेत्रीय भाषा से निकली हुई रहती हैं, और उनकी शब्दावली से लेकर उनके व्याकरण तक में आज की खड़ी बोली कही जाने वाली हिन्दी के पैमाने पर कई गलतियां निकाली जा सकती हैं.
भारत जितने बड़े देश को देखें, और यहां के अलग-अलग हिन्दीभाषी प्रदेशों की मूल और मौलिक बोलियों को देखें, तो आज की आम हिन्दी उन सबका एक उसी तरह का संघीय ढांचा है, जिस तरह का ढांचा अमरीकी राज्यों का मिलकर यूनाईटेड स्टेट्स ऑफ अमरीका बनता है, या जिस तरह भारत एक संघीय गणराज्य है, या जिस तरह एक वक्त सोवियत संघ था. आज हिन्दी उसी तरह की एक भाषा है, जिसके भीतर बोलियों के अपने-अपने साम्राज्य अब तक कायम हैं.
आज बिहार के लालू यादव की हिन्दी देखें, और उधर हरियाणा के किसी जाट की हिन्दी देखें, और इधर मुलायम सिंह की हिन्दी देखें, तो ऐसा लगेगा कि हम कई अलग किस्म की जुबानों की बात कर रहे हैं. यह ठीक वैसा ही है जैसा कि बहुत से अलग-अलग देशों को मिलाकर यूरोपीय यूनियन बना है.
अब ऐसे में एक सही वाक्य जिसे न आए, वह अखबारनवीसी न करे, या अखबारनवीसी के लायक नहीं है, यह एक ऐसा शहरी, उच्च-शिक्षित, कुलीन और आभिजात्य पैमाना है जो कि आम लोगों को लिखने के हक से बाहर कर देता है. ऐसा भी नहीं है कि ऐसे ग्रामर-नाजी लोगों का हक छीन पा रहे हैं, या कि क्षेत्रीय अखबारों में वहां की बोलियों के प्रभाव वाली हिन्दी पूरी तरह से नकार दी गई है.
ऐसा होना उन लोगों के साथ बहुत बड़ी ज्यादती भी होगी जिन्होंने हिन्दी के संघीय ढांचे के साथ-साथ अपने क्षेत्रीय प्रभुत्व को भी कायम रखा है, और अपनी क्षेत्रीय बोली की खूबी के साथ वे हिन्दी का इस्तेमाल करते हैं. यह याद रखने की जरूरत है कि खड़ी बोली वाली हिन्दी क्षेत्रीय बोलियों की जिन बातों को हिन्दी में खामी करार देती है, वे तमाम खामियां उन क्षेत्रीय पैमानों पर खूबियां भी हो सकती हैं.
लेकिन यह पूरी बातचीत भाषा पर हो गई. आज की इस बात का मकसद अखबारनवीसी की जुबान पर है. एक अच्छी भाषा और एक सही व्याकरण वाली भाषा में फर्क भी हो सकता है. ये दोनों कहीं-कहीं पर एक भी हो सकती हैं, और कहीं-कहीं अलग भी. बहुत से लोगों की हिन्दी एकदम सही हो सकती है, कुछ लोगों की हिन्दी मेरी तरह कुछ खामियों वाली भी हो सकती है, और कुछ लोगों की हिन्दी खासी खामी वाली होते हुए भी बड़ी असरदार हो सकती है. और ये खामियां अगर क्षेत्रीय-खूबियां हैं, तो उनके सामने सही व्याकरण कोई मुद्दा नहीं है, कोई दिक्कत नहीं है.
अखबार की जुबान में व्याकरण का एक महत्व जरूर होना चाहिए, लेकिन वह महत्व जुबान की बाकी बातों से ऊपर होना भी जरूरी नहीं है. जुबान का असरदार होना, न्यायसंगत होना, और अखबारी बातों को पाठक तक सही तरीके से पहुंचाने में कामयाब होना व्याकरण से कम महत्वपूर्ण नहीं है, शायद अधिक ही महत्वपूर्ण है.
जिन लोगों को एक वाक्य सही लिखना नहीं आता, उन लोगों को अखबारनवीसी नहीं करना चाहिए, ऐसा पैमाना क्षेत्रीय बोली से सीखकर अखबारनवीसी में आए अधिकतर लोगों को बेरोजगार कर देगा. और यह बहुत बड़ी बेइंसाफी भी होगी. जिन लोगों को हिन्दी के लिए ऐसा दुराग्रह है, या किसी भी भाषा के व्याकरण के लिए जिनकी ऐसी जिद है, उनको यह समझना चाहिए कि दुनिया की बहुत सी भाषाओं में व्याकरण, हिज्जों, और उच्चारण के अनगिनत अपवाद ऐसे रहते हैं जिन्हें स्थानीय इस्तेमाल के आधार पर तय किया जाता है. अंग्रेजी को ही लें, जिसमें इतने अधिक अपवाद हैं कि उसे सीखने वाले लोगों की नानी ही मर जाती है. और ऐसे तमाम अपवादों को न्यायसंगत ठहराने के लिए अंग्रेजी जुबान के जानकार यह तर्क देते हैं- बिकॉज नेटिव्स से सो, (चूंकि स्थानीय लोग ऐसा कहते हैं).
भारत की हिन्दी को आज की आधुनिक हिन्दी के व्याकरण की कैद में बांधकर, उसके कम जानकार लोगों को हिकारत से देखना एक बड़ी बेइंसाफी है. अगर किसी की हिन्दी ऐसे शहरी-आधुनिक पैमाने पर खरी है, तो वे उस पर गर्व कर सकते हैं. लेकिन जिनकी हिन्दी क्षेत्रीय पैमानों पर खरी है, उनको भी अपनी भाषा पर गर्व करने का उतना ही हक है. हिन्दी को एक संघीय ढांचे की तरह क्षेत्रीय बोलियों का सम्मान करते हुए एक संपर्क-भाषा की तरह काम करना चाहिए, तो ही हिन्दी राष्ट्रभाषा है. अगर वह क्षेत्रीय खूबियों को नीची नजर से देखते हुए व्याकरण का अपना एक फौलादी ढांचा क्षेत्रीय बोलियों पर लादने का आग्रह करेगी, तो वह अपने ही वजन को घटा बैठेगी.
और जहां तक हिन्दुस्तान के हिन्दी इलाके की अखबारनवीसी की जुबान की बात है, तो उसका तो हिन्दी होना भी जरूरी नहीं है. उसकी लिपि देवनागरी हो सकती है, लेकिन उसकी जुबान एक मिली-जुली हिन्दुस्तानी हो सकती है जैसी कि खड़ी बोली के आने के पहले मुगलों के साथ आई उर्दू के चलन के बाद, और फिर अंग्रेजों की जुबान का तड़का लगने पर मिलकर चल रही थी. क्षेत्रीय बोलियों का अलग-अलग तरह का मेल अलग-अलग इलाकों में था, और उनमें से कोई भी क्षेत्रीय बोली आज की खड़ी बोली हिन्दी से कमजोर नहीं थी. उन बोलियों में असर हिन्दी से कहीं अधिक था, और भारत की गैरहिन्दी क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों में भी हिन्दी के मुकाबले अधिक वजनदार, अधिक पैने, और अधिक असरदार शब्द हैं, और जुमले हैं.
आज सोशल मीडिया पर अंग्रेजी या हिन्दी, या कोई और जुबान, इन सबके इस्तेमाल में भाषा और ग्रामर के तमाम नियम-कायदों को जिस तरह उठाकर फेंक दिया गया है, और ऐसा सोशल मीडिया बड़े-बड़े भाषा-पंडितों के लिखे हुए के मुकाबले अधिक असर का हो गया है, उससे भाषा की शुद्धता के धर्मान्ध लोगों को इस शुद्धता के सीमित महत्व को समझ लेना चाहिए. आज सबसे अधिक इस्तेमाल हो रहे, और सबसे अधिक असरदार सोशल मीडिया पर न ग्रामर रह गया, न हिज्जे रह गए, न उच्चारण रह गए, और न ही परंपरागत शब्द या वाक्य-विन्यास रह गए.
कुछ बरसों के भीतर ही लोगों के बीच के संवाद ने एक निहायत ही अलग औजार विकसित कर लिया जिसे कि शुद्धतावादी भाषा भी कहने से इंकार कर देंगे. लेकिन यह समझना चाहिए कि भाषा को गढ़ा ही इसलिए गया था कि लोग एक-दूसरे तक अपनी बात पहुंचा सकें, दूसरों की बात समझ सकें. यह एक बड़ा ही सीमित इस्तेमाल था, और इस सीमित इस्तेमाल के लिए शुद्धतावादियों ने भाषा को आग में तपा-तपाकर चौबीस कैरेट सोने की तरह खरा करने की कोशिश की, कर भी लिया, लेकिन उसके बिना भी लोग बखूबी अपना काम चला ले रहे हैं.
एक वक्त था जब लोकसंगीत और लोकनृत्य को तपा-तपाकर, आग में पकाकर, उसे नियमों में बांधकर, उसकी लय और ताल को शास्त्रीयता के पैमाने तक ले जाया गया, और कला को एक दरबारी दर्जा दिया गया, उसे समझ पाने वाले लोगों को पारखी का दर्जा दिया गया, और उसे आम लोगों के सीखने-समझने के दायरे से बाहर निकाल दिया गया. कुछ ऐसा ही भाषा के व्याकरण की शुद्धता को लेकर किया गया. लेकिन जिस तरह लोककला और लोकसंगीत अब दीवारों को कैनवास बनाने लगे हैं, रेलवे स्टेशनों पर म्यूजिक-बैंड बनने लगे हैं, वे आज भी किसी शास्त्रीयता के मोहताज नहीं हैं.
इसलिए सही व्याकरण वाला वाक्य एक अच्छी बात हो सकती है, एक अनिवार्य बात नहीं हो सकती. और अखबारनवीसी में तो अकेला दुराग्रह सिर्फ सच और इंसाफ के लिए होना चाहिए, जुबान तो निहायत गैरजरूरी है. दो दिन पहले सीरिया से जान बचाकर भागे परिवार का एक बच्चा जिस तरह समंदर के किनारे लाश की शक्ल में कैमरे में कैद हुआ है, और जिसे देखकर पूरी दुनिया हिल गई है, उस तस्वीर में फोटोग्रॉफी के व्याकरण की खूबियों और खामियों की तरफ किसी का ध्यान जाता है? और जिस वक्त यह तस्वीर ली गई होगी, उसी वक्त दुनिया के बहुत से फोटोग्राफर मेहनत करके, फोटोग्रॉफी के पैमानों का ध्यान रखते हुए तस्वीरें ले रहे होंगे, लेकिन उनकी हजार गुना अधिक जानकारी, मेहनत, इस बेमेहनत तस्वीर के मुकाबले इतिहास में कहीं दर्ज नहीं हो पाएगी.
मायने यह रखता है कि किसी लिखे हुए, कहे हुए शब्द, या दिखाई हुई फिल्म या तस्वीर में सच कितना है, और उसमें इंसाफ की गुजारिश कितनी है. वरना शुद्धता दुनिया के किसी काम की नहीं है.
* लेखक हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार और रायपुर से प्रकाशित शाम के अखबार ‘छत्तीसगढ़’ के संपादक हैं.