आधी दुनिया की नौकरियों को लील गया कोरोना
सुनील शर्मा | रायपुर: कोरोना ने छत्तीसगढ़ के बिलासपुर शहर की रहने वाली विमला शर्मा की दुनिया बदल कर रख दी. कोरोना काल से पहले सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था. वे 10 महिलाओं के साथ मिल कर मसाला उद्योग चला रही थीं. घर-गृहस्थी की गाड़ी अपने रफ़्तार से चल रही थी.
लेकिन मार्च के बाद, जैसे जीवन थम-सा गया. विमला वर्मा कहती हैं कि कोरोना ने उन्हें कहीं का न छोड़ा. काम धंधा बंद हो गया है. गरीब महिलाएं उनसे जुड़ी थीं. सभी त्रस्त हैं. बेटी के स्कूल की नौकरी छूट गई है. उधार लेकर किसी तरह जीवन बसर कर रहे हैं.
बिलासपुर की महिला आईटीआई में 1500 महिलाओं व युवतियों को रेग्जीन बैग व पर्स बनाने का प्रशिक्षण दे चुकी राधा परिहार खुद बेरोजगार हो गई हैं. वे कहती हैं कि उनके सामने भूखों मरने की नौबत है. बेटी थोड़ा बहुत कमाती थी. सेलरी काट ली गई तो उसने काम छोड़ दिया. बैग-पर्स बनकर घर में रखे हैं. कोई लेने के लिये तैयार नहीं है.
राधा परिहार खुद ही कहती हैं-“लोगों के पास खाने के लिए पैसे नहीं है. तो वे बैग-पर्स कैसे खरीदेंगे.”
विमला शर्मा और राधा परिहार केवल नाम भर नहीं हैं. ये छत्तीसगढ़ के अलग-अलग शहरों में रहने वाली उन हज़ारों महिलाओं की तस्वीर हैं, जिनके सारे रंग कोरोना काल ने छीन लिये हैं. ये वो महिलायें हैं, जिन्होंने बड़ी मुश्किल से घर-गृहस्थी से बाहर सांस लेना शुरु किया था. बड़ी मुश्किल से इन महिलाओं ने छोटे-छोटे रोजगार-धंधे शुरु किये थे. बूटिक, ब्यूटीपार्लर, मोमबत्ती, आयुर्वेदिक दवायें, आर्टिफिशियल ज्वेलरी और साफ्ट ट्वायज बनाकर उन्होंने आत्मनिर्भर होने की कोशिश की थी.
ऐसा नहीं है कि कोरोना ने केवल महिलाओं के ही सपने तोड़े. लेकिन अपने आस-पास नज़रें घुमाने पर पता चलता है कि कोरोना काल की बेरोजगारी की बाढ़ ने पुरुषों की तुलना में महिलाओं को कहीं अधिक प्रभावित किया.
निशाने पर महिलायें
मॉल से लेकर प्राइवेट स्कूल और निजी दुकानों के अध्ययन से यह पता चलता है कि कोविड 19 महामारी की वजह से इन संस्थानेां ने आर्थिक संकट का हवाला देते हुए कई कर्मचारियों को बड़े पैमाने पर नौकरी से निकाला. पर अधिकांश संस्थानों में नौकरी से निकाले जाने वालों में पहली सूची महिलाओं की सामने आई.
यहां तक कि जिन उपक्रमों में महिला और पुरुष दोनों बराबर थे, वहां भी महिलाओं की नौकरी पर ही गाज गिरी. इनमें भी दैनिक वेतन भोगी महिलाएं सर्वाधिक निशाने पर रहीं.
अब 36 साल की बिलासपुर की संगीता को ही लीजिए. इनकी शादी 15 साल पहले एक शिक्षाकर्मी से हुई थी. कुछ ही साल में पति गुजर गए. इनके दो बच्चे हैं. उन्होंने सोचा था कि इस बार बेटी-बेटे को किसी प्राइवेट स्कूल में तो दाखिला करवाएंगी पर वे जिस सरकारी प्रशिक्षण केंद्र में दैनिक वेतन भोगी थी, वहां ताला लटक गया. रोजगार छीन गया. थोड़ी जमा पूंजी. किराए के घर में चली गई. वह झाड़ू, पोछा, बर्तन का काम करने के लिये तैयार हैं. पर 5 माह से रोजगार नहीं मिल रहा है.
बिलासपुर की ही नीलम एक प्राइवेट स्कूल में टीचर थीं. वहीं उनके पति सुरेश ठाकुर भी पढ़ाते थे. संस्थान ने दोनों से इस्तीफा लिखवा लिया गया. कोरोना के कारण स्कूल बंद हुए तो कई महिला शिक्षिकाओं की नौकरी चली गई. 5 से 10 हजार रुपए मासिक आय बंद हो गई. 5 माह से उनके पास कोई काम नहीं है. कुछ तो ऐसे भी है जिनके पति की भी नौकरी चली गई.
32 साल की राशि बिलासपुर की एक प्राइवेट शैक्षणिक संस्थान में भृत्य थी. उसे लिव विदाउट पे (एलडब्ल्यूपी) पर भेज दिया गया. राशि बताती हैं कि एलडब्लूपी पर जाने वाली वह अकेली नहीं बल्कि दर्जनभर महिलाएं हैं. जिनकी नौकरी बच गई है, उन्हें संस्थान आधी तनख्वाह दे रहा है.
शालिनी शॉपिंग मॉल में सफाईकर्मी थीं. अब वह बेरोजगार हैं. बारात में सिर पर लाइट रखकर रौशनी बिखरने वाली तारा के लिए शादियों का सीजन आर्थिक रूप से अंधकारमय ही था.
राजधानी रायपुर में भी शॉपिंग माल, डिपार्टमेंटल स्टोर्स, होटल, रेस्तरां में काम करने वाली महिलाओं व युवतियों की नौकरियां चली गई. यही स्थिति कोरबा, रायगढ़, दुर्ग जैसे शहरों की हुई. अप्रैल में बेरोजगार हुई महिलाओं को सितंबर में भी नौकरी नहीं मिली. लिहाजा उन्हें गांव लौटना पड़ा. शहर आकर काम करते हुए पढ़ाई करने और अच्छी नौकरी पाने का सपना टूट गया.
कई महिलाओं ने बातचीत में बताया कि छंटनी की शुरुआत संस्थानों में उनसे हुई. वे नौकरी से निकालने की आसान शिकार रहीं. विरोध करने पर उनकी आवाज दबा दी गई.
घट रही है नौकरी
कोविड 19 ने नौकरियां में लैंगिक असमानता को और साफ़ कर दिया. अलग-अलग संस्थानों में छंटनी के लिए महिला होना बड़ी वजह रही. यह हालत तब है, जबकि अधिकांश संस्थाओं में बराबर काम के लिये पुरुषों की तुलना में स्त्रियों को कम तनख्वाह मिलती है.
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग द इंडियन इकोनॉमी का हालिया सर्वे बताता है कि भारत में कम से कम 12 से 13 करोड़ लोगों की नौकरियां मई महीने के शुरुआत में ही जा चुकी हैं. लॉकडाउन खत्म हो चुका है पर वायरस के तेजी से प्रसार के कारण व्यवसायिक संस्थान में काम शुरू नहीं हो रहा है और नौकरियां रोज जा रही है. इस संकट का नकारात्मक असर देश के कामगार तबके की लैंगिक समानता पर पड़ना शुरू हो चुका है.
कई शोधार्थी बता चुके हैं कि कामकाजी महिलाओं की संख्या में भारी कमी आ सकती है. संयुक्त राष्ट्र ने भी अपनी हालिया रिपोर्ट में चेताया है कि ये महामारी महिलाओं के समाज में बराबरी हासिल करने के दशकों पुराने संघर्ष पर पानी फेर सकती है. इस महामारी के दौरान महिलाओं के अनपेड वर्क यानी बिना पैसे वाले काम में बेहद बढ़ोतरी हुई है.
2 लाख मजदूर महिलाओं का भी छीन गया रोजगार
छत्तीसगढ़ के आंकड़ों को देखें तो करीब 5 लाख मजदूरों की कोरोना के कारण राज्य में वापसी हुई. इनमें करीब 40 फीसदी महिला मजदूर हैं. वे वापस आईं और अब बेरोजगारी का दंश उन्हें झेलना पड़ रहा है.
10 दिन की बच्ची के साथ पुणे के ईट भट्ठे से लौटी जांजगीर-चांपा जिले के पामगढ़ के पास कोसा गांव की फिरतिन हो या फिर बिलासपुर के बहतराई की रानी, सभी की हालत खराब है. उन्हें अब काम नहीं मिल रहा है.
ये बताती हैं कि जब वे बाहर रोजी-मजदूरी करती हैं तो उनके हाथ में पैसा रहता है. वे पति की कमाई पर आश्रित नहीं होतीं लेकिन कोरोना ने उन्हें आश्रित बना दिया. यह पूछने पर कि मनरेगा में तो उन्हें काम मिलता होगा, इस पर वे फिरतिन कहती है कि मनरेगा में भी पुरुषों को ज्यादा काम दिया जाता है.
अब बात सरकार के दावों की. प्रदेश की 9883 पंचायतों में मनरेगा में 18 लाख 51 हजार 536 श्रमिकों के काम करने का दावा राज्य सरकार ने किया. प्रदेश में सर्वाधिक 1 लाख 17 हजार मजदूर अविभाजित बिलासपुर जिले में लौटे. 90 हजार का जॉब कार्ड जून तक बना. कुछ को काम मिला लेकिन फिर 12 जून को मानसून आ गया और काम बंद हो गए.
छत्तीसगढ़ में गिरती बेरोजगारी दर और बढ़ती बेरोजगारी
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) की रिपोर्ट में कहा गया है कि छत्तीसगढ़ की बेरोजगारी दर सितंबर 2018 में 22.2 फीसदी थी, जो घटकर अप्रैल 2020 में 3.4 फीसदी हुई है. यह राष्ट्रीय बेरोजगारी दर (23.5 फीसदी) से काफी कम है.
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने 4 अगस्त को ट्वीट किया, “आप सबको बताते हुए संतोष हो रहा है कि छत्तीसगढ़ में लॉकडाउन के दौरान भी चल रही आर्थिक गतिविधियों के कारण बेरोजगारी की दर में उल्लेखनीय कमी आई है. सीएमआईई से जारी आंकड़ों के अनुसार प्रदेश में बेरोजगारी की दर जून माह में 14.4 थी जो घटकर जुलाई माह में 9 प्रतिशत के स्तर पर आ गई है.”
इधर सीएमआईई के जुलाई माह के आंकड़ों के अनुसार छत्तीसगढ़ की स्थिति बेरोजगारी के मामले में कई राज्यों से बुरी रही. छत्तीसगढ़ में जुलाई माह में बेरोजगारी की दर 9 फीसदी है. जबकि इसी माह में आंध्रप्रदेश में यह आंकड़ा 8.3 फीसदी, असम में 3.2 फीसदी, गुजरात में 1.9, झारखंड में 8.8, कर्नाटक में 3 6, केरल में 6.8, मध्यप्रदेश में 3.6, महाराष्ट्र में 4.4, मेघालय में 2.1, ओडिशा में 1.9, सिक्किम में 4.5, तमिलनाडु में 8.1, उत्तरप्रदेश में 5.5 और पश्चिम बंगाल में यह 6.8 फीसदी रहा.
इस लिहाज़ से देखा जाए तो असल में छत्तीसगढ़ बेरोजगारी दर कम करने के मोर्चे पर कई राज्यों से पीछे रह गया है. इधर प्रदेश में 22 लाख 11 हजार रजिस्टर्ड शिक्षित बेरोजगार पहले से हैं. इसमें 35 फीसदी महिलाएं हैं.
कुटीर उद्योग की महिलाएं कर्ज में डूब रहीं
छत्तीसगढ़ लघु एवं सहायक संघ के अध्यक्ष हरीश केडिया बताते हैं कि छोटे-छोटे एक हजार उद्योग तो बिलासपुर जिले में ही हैं, जिनमें अधिकांश महिलाओं द्वारा संचालित हैं. ऐसा कोई दिन नहीं होता, जब उनके पास परेशान महिलाओं के फोन न आते हों.
हरीश केडिया कहते हैं-“कोरोना के कारण उनकी बिक्री शून्य हो चुकी है. उनसे सामान खरीदने वालों में भय का वातावरण है. वे कर्ज में डूब चुकी हैं. अपने काम के लिए नहीं, घर चलाने के लिए सूद पर रुपए ले रही हैं. कोरोना के पहले वे आत्मनिर्भर बन रही थी, लेकिन इस महामारी ने उन्हें कई साल पीछे धकेल दिया. न सरकार, न शासन न समाजसेवी संगठन उन्हें मदद कर रहा है.”
संयुक्त महिला संगठन की अध्यक्ष विद्या केडिया बताती हैं कि मध्यमवर्गीय परिवार की महिलाएं जो अचार, पापड़ आदि बनाकर आर्थिक रूप से सक्षम बन रही थीं, उन्हें कोरोना ने बेरोजगार कर दिया. उनका पुराना स्टॉक ही पड़ा-पड़ा खराब होने को है. टिफिन बंद होने से कई महिलाओं का रोजगार छीन गया. निम्नवर्गीय महिलाओं को खाने के लाले हैं. कई लोगों ने तो अपनी सेविकाओं को तनख्वाह तक नहीं दी. हमने जरूरतमंद महिलाओं को 25 सिलाई मशीन दिए. मॉस्क बनाकर वे गुजारा कर रही हैं. पर सब ऐसा नहीं कर पा रही.
समाजसेवी संगठन ‘एक नई पहल’ की रेखा आहूजा के मुताबिक अकेले शहर में ही ऐसी महिलाओं की तादाद हजारों में है, जिन्हें कोरोना ने बेरोजगार बना दिया. वे काम के लिए फोन करती हैं. होटल में खाना पकाने वाली बिमला चौहान बेरोजगार हुई तो उसे सिलाई मशीन हमने दिया. कइयों को मोबाइल व साइकिल दिए. पर सब तक पहुंच पाना और उन्हें मदद कर पाना असंभव है.
सामाजिक कार्यकर्ता डॉ.अनिता अग्रवाल कहती हैं कि महिलाओं को आज सबसे ज्यादा मदद की जरूरत है. सरकार भी मदद करती नजर नहीं आ रही है. अब तक जिन चंद लोगों को लॉकडाउन के बाद रोजगार सरकार द्वारा उपलब्ध कराया गया है, उनमें महिलाओं की संख्या उंगलियों में गिनी जा सकती है.
आधी आबादी और आधी दुनिया जैसे विशेषणों में समानता तलाशने वाले, इस कोरोना काल के अंधेरे को देख पा रहे हैं?
(लाडली मीडिया फेलोशिप के तहत किए गए अध्ययन पर आधारित रिपोर्ट)