प्रसंगवश

JNU का संदेश दलित-वाम एकता

त्वरित टिप्पणी | जेके कर: बहुप्रतीक्षित #जेएनयू छात्र संघ चुनाव के नतीजे देश में दलित-वाम एकता की वकालत करते हैं. इस बार जेएनयू छात्र संघ चुनावों में सीपीएमएल, सीपीएम तथा सीपीआई के छात्र संगठन आइसा, एसएफआई तथा एआईएसएफ ने मिलकर चुनाव लड़ा था. जिसके कारण अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, महासचिव तथा संयुक्त सचिव के चारों पद उनके झोली में गये.

यह जीत इस मायने में इतिहासिक तथा महत्वपूर्ण है कि ‘देशद्रोह’ के तमाम आरोपों, कन्हैया कुमार के भाषणों के टेप से छेड़छाड़ करने के बाद भी ‘लेफ्ट’ जेएनयू के चुनावों में जीतकर आया है. इस चुनाव में राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को कड़ी शिक्कत का सामना करना पड़ा जबकि पिछले साल महासचिव का पद उनके पास रहा था.

जेएनयू के छात्र संघ चुनावों के नतीजे ‘लेफ्ट’ के पक्ष में आसानी से नहीं आये. उन्हें अध्यक्ष पद पर दलितों के छात्र संगठन बिरसा आबंडेकर फूले स्टूडेन्ट्स एसोसिएशन (बापसा) ने कड़ी टक्कर दी. इस संगठन के अध्यक्ष पद के उम्मीदवार राहुल सोमपिम्पले केवल 409 वोटों से हारें हैं.

जबतक चुनाव के अंतिम नतीजें न आ गये वामपंथी यह दावा करने में झिझक रहे थे कि जेएनयू छात्र संघ चुनाव का अध्यक्ष का पद वे जीतने जा रहें हैं.

उल्लेखनीय है कि जेल से जमानत पर रिहा होने के बाद जेएनयू छात्र संघ के पिछले साल अध्यक्ष रहे एआईएसएफ के कन्हैया कुमार ने अपने जेल के दिनों की व्याख्या करते हुये कुछ इसी तरह का दलित-वाम एकता का संकेत दिया था.

बेशक, हमारे देश में दलितों तथा वामपंथी आंदोलनों के अपने-अपने गढ़ हैं. कई राज्यों तथा जिलों में इनकी सशक्त उपस्थिति को नकारा नहीं जा सकता है. हालांकि, इस ताकत को हमेशा संसदीय जनतंत्र के चुनाव में सफलता नहीं मिलती है या कहना चाहिये रणनीति में कई बार वे पीछे रह जाये हैं.

वैसे, देखा जाये तो दलित तथा वामपंथी, दोनों अपने-अपने क्षेत्र में उत्पीड़न का विरोध करते हैं. गौर करने वाली बात यह है कि दोनों जिस उत्पीड़क का विरोध करते हैं वह एक ही है. इसके बावजूद वे अलग-अलग चुनाव लड़ते हैं.

ऐसे में जेएनयू छात्र संघ चुनाव के नतीजों पर गौर किया जाना चाहिये.

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