जयललिता और उनकी नीतियां
अरुण कान्त शुक्ला
तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता के निधन के बाद विचारकों और विश्लेषण कर्ताओं ने अनेक तरह से उस लोकप्रियता के पीछे छुपे कारणों में झांकने का काम किया है. प्राय: सभी लोगों ने कहा कि पूंजी परस्त आर्थिक उदारीकरण में जहाँ सब्सिडी खत्म करने की होड़ लगी है, वहीं जयललिता तमिलनाडु के राजस्व का चौथाई से अधिक 27 फीसदी हिस्सा समाज कल्याण के कार्यो पर सब्सिडी के रूप में खर्च कर रही थी.
यही उसके प्रति जनता का उमड़े प्यार और सम्मान का राज है. लेकिन, प्राय: सभी ने यह भी माना कि जनता को दान और उपकार से बहलाए जाते रहने से बेहतर यह नहीं है क्या कि आवाम को अधिकार दे कर सम्मानित जीवन सुलभ करने की नीति अपनाने की राजनीति हो. यहाँ प्रश्न यह है कि क्या ऐसी राजनीति, जैसी राजनीति में हम रह रहे हैं, कभी आवाम के संपन्न हिस्से को छोड़कर, किसी अन्य तबको को वह अधिकार देगी?
पूंजीवाद किसी को भी अधिकार देकर सम्मानित जीवन सुलभ करने की नीति अपनाने के सिद्धांत पर नहीं चलता. यहाँ एक वर्ग को हमेशा, गुणगान करने और सत्ता में चुने जाने के लिए दान-भिक्षा पर रखा जाता है. इस काम को भी पूंजीवाद में सरकारें ईमानदारी और भरोसे के साथ नहीं करतीं. जयललिता ने तमिलनाडु में इसे किया और लोकप्रिय हुई. कांग्रेस ने यूपीए प्रथम के कार्यकाल में इसे किया और 2009 में वापस आई. वामपंथ ने बंगाल में तीस साल इसे ईमानदारी से किया और जब पूंजीवाद की बुराई, बेईमानी और भ्रष्टाचार उस पर सवार हुई, वह सत्ता से बाहर हुई.
पूंजीवाद अलग से अधिकार दे कर सम्मानित जीवन सुलभ कराने की नीति अपनाने के लिए ईजाद कोई नई व्यवस्था नहीं है. इसका जन्म सामंतवाद की कोख से ही हुआ है. औद्योगिक क्रान्ति ने इसका बीज सामंतवाद के गर्भ में डाला. इसलिए, परिणाम स्वरूप आये पूंजीवादी बच्चे को अपने औद्योगिक क्रान्ति के स्वरूप को बचाने के लिए स्वयं को सामंतवाद की कुछ परंपराओं को पूंजीवादी उत्पादन से संबंधित सामाजिक और आर्थिक जीवन के कुछ क्षेत्रों से दूर रखना पड़ा है. किन्तु, शासन प्रणाली में जनता के असंतोष को दबाने के अस्त्र के रूप में आये लोकतंत्र सहित अन्य सारे पुर्जे सामंतवाद के ढाँचे के ही हैं और जनता को सामंतवादी ढाँचे के अन्दर बांधे रखना ही उसके लिए हितकर है.
इसीलिये आवाम को भी अधिकार की जगह राहत, रोजगार की जगह रोजगार भत्ता, सस्ती और सुलभ शिक्षा की जगह लेपटाप, घर से दो मील के अन्दर की दूरी पर स्कूल की जगह मुफ्त गणवेश, मुफ्त किताब-कापी, रहने की साफ़-सुथरी दशाओं की जगह दो कमरों का मुफ्त का आवास, काम के अधिकार की जगह मनरेगा, और सबसे बड़ी बात संघर्ष करके हासिल करने की बजाय भिक्षा माँगने की सीख दी जाती है.
एक और दो रूपया किलो चावल उसी का उदाहरण है. इसके लिए सामंतवाद के दो प्रमुख गुण धर्म और युद्ध का भरपूर प्रयोग पूंजीवादी लोकतंत्र करता है और कर रहा है. शासक वर्ग के पास इसके लिए तमाम आधुनिक उपकरण, जैसे मीडिया, स्वयं के विज्ञापन, थोथे नारे, आश्वासन, सबसिडी या मुफ्त में देने की योजनाएं आदि उपलब्ध रहते हैं. जिनसे वह अपने फायदे के हिसाब से जनता की सोच को बदलता है और उसे अपने फायदे के हिसाब से ढालता है.
यही कारण है कि जनता को भी समाज को बदलने की बात को सुनने से ज्यादा अच्छा भागवत में दस दिन गुजारना लगता है. शान्ति-भाईचारे और एकजुटता की बातों से साम्प्रदायिक, युद्ध और हिंसा की बातें ज्यादा अच्छी लगती हैं. वसुधैव कुटुम्बकं से ज्यादा अच्छा छोटा और थोथा राष्ट्रवाद लगता है. औचित्य, तर्क और वैज्ञानिक सोच से अंध-श्रद्धाभक्ति, वरदान (आश्वासन) ज्यादा अच्छे लगते हैं. पूंजीवाद की चरम अवस्था साम्राज्यवाद है और साम्राज्यवाद को अपने अस्तित्व को बनाए रखने और लंबा करने के लिए आज पूरी व्यवस्था को तीन सौ वर्ष के पूर्व के भक्ति और रीति काल में ले जाने की आवश्यकता है.
वह इतनी वैज्ञानिक और भौतिक तरक्की हो जाने के बाद, इसे, आवाम के रहन-सहन, खानपान, पहरावे, शौक, आधुनिक रोजगार, उत्पादन के साधनों पर, उपलब्ध वैज्ञानिक और तकनीकि उपकरणों के होते हुए, आवाम के जीवन के स्तर पर नहीं कर सकती है. यह इसलिए कि इन सभी से पूंजीवाद का आधार स्तंभ मुनाफ़ा (संपत्ति एकत्रीकरण की प्राणवायु) जुड़ा हुआ है. तब इसे कैसे किया जाए?
इस यक्ष प्रश्न का जबाब हाल के पिछले तीन दशकों में पूंजीवाद ने खोजा है और अब उस पर विश्व के पैमाने पर अमलीकरण हो रहा है. वह तरीका है, आधुनिक जीवन जियो, उत्पादन के साधन आधुनिक रखो, पर वितरण पर पकड़ सामंतवादी रखो, आवाम के सोच का स्तर घोर सामंतकाल का रखो, याने, आवाम को सोच के स्तर पर पीछे ले जाने के पूरे प्रयास हो रहे हैं.
यह काम भारत में रविशंकर, रामदेव, आशाराम जैसे कथित संत सरकार के सरंक्षण में निजी तौर पर कर रहे हैं तो सरकारें तीर्थ यात्राएं, हज के लिए पैसा देकर कर रही है. अनेक अन्य संतों के कारनामों की तरफ से सरकारें आँखें मूंदी रहती हैं, ताकि आम लोग भ्रमित और अन्धविश्वासी बने रहें. राधे मां, फतवे जारी करने वाले मौलवी, चंगाई देने वाले ईसाई गुरु, फिल्म बनाने वाले और उसमें काम करने वाले पंजाब के संत सब सरकारों के पालित ही हैं. राजा और नबाब भी ऐसा करते थे, लोकतांत्रिक सरकारें भी ऐसा कर रही हैं.
दुनिया के अन्य देशों में भी ऐसा ही हो रहा है. तभी, 19वी शताब्दी के मध्य से जन्मी आधुनिक सोच, जिसने बीसवीं शताब्दी में जाकर अमली जामा पहना, पूरी शताब्दी भी ज़िंदा न रह पाई और उसका कार्यप्रणाली में परिवर्तित रूप (समाजवाद) पूंजीवाद ने अपने पैने जबड़ों से चबा डाला. इस सबके बीच यदि कोई संतोष का विषय है तो वह यह है कि वह बीज जो निकला पूंजीवाद के गर्भ से ही है, उसमें सामंतवाद का अंशमात्र भी असर नहीं आया है और वह एक आजमाई हुई शासन पद्धति के उदाहरण के रूप में प्रगतिशील, शोषित और मेहनतकश जनता के मष्तिष्क में हमेशा न केवल मौजूद रहेगा बल्कि समाज के अनेक तबके हमेशा उसे पुनर्स्थापित करने के लिए संघर्ष करते ही रहेंगे. अधिकार दे कर सम्मानित जीवन सुलभ करने की नीति, उसी बीज का पौधा है, जिसे संघर्ष रूपी खाद और त्याग रूपी वर्षा की जरुरत है.
और, तब तक भारत में मोदी, जयललिता, शिवराज-रमन-वसुंधरा, अमरीका में ट्रम्प आते-जाते रहेंगे. सरकारें या तो घोर दक्षिणपंथी रास्ते पर चलेंगी या कांग्रेस के समान उससे समझौता करती रहेंगी. अफसोस, जिन्होंने पूंजीवाद और समाजवाद के इस गठजोड़ का समूल नाश करने का बीड़ा उठाया था और वे भी जो इसके नाम से रोटी खा रहे हैं, पूंजीवाद के मोह जाल में फंसकर अपने को कमजोर कर चुके हैं. पर, मानव के कल्याण का रास्ता वहीं से निकलेगा और जब तक ऐसा नहीं होता तब तक जयललिता जैसे नेताओं की लोकप्रियता और उनके लिए रोने वालों की संख्या हमेशा हमें चौंकाती रहेगी.