इस लोहे में जंग नहीं लगता
जगदलपुर | एजेंसी : बस्तर के बैलाडीला से निकलने वाले लोहे की गुणवत्ता उच्च स्तरीय होने के कारण इसे ढाले जा रहे शिल्प में भी अनूठापन छिपा हुआ है, इसकी झलक आदिवासियों के तीर, बरछी, टंगिये व फरसे में नजर आता है. ये हथियार जंगरहित होते हैं.
बस्तर में लौह शिल्प का इतिहास प्रागैतिहासिक काल से ही रहा है. यहां के वन क्षेत्रों सहित अन्य ग्रामीण इलाकों में आज भी पारंपरिक तौर पर लोहे का चयन कर उसे फौलाद के रूप में ढाला जाता है. इस फौलाद का उपयोग एक ओर जहां तीक्ष्ण तथा धारदार हथियारों के लिए किया जाता है. वहीं इससे बनाई गई अनुपम कलाकृतियां संग्राहलयों की शोभा बढ़ा रही हैं.
नगरनार क्षेत्र के पुरस्कृत लौह शिल्पी विद्याधर कश्यप ने बताया, “सही लोहे की पहचान जरूरी है. इस लोहे को तोड़मरोड़ कर पीटा जाता है. यदि इसमें दरार या किरचें आ जाती है तो उसे अनुपयोगी माना जाता है. हथियार के लिए धातु में लचीलापन होना उसकी खासियत होती है. उसे ही तपाकर विभिन्न आकार में ढाला जाता है. इस तरह बने तीर, फरसे, कुल्हाड़ी आदि पर मौसम की मार का असर नहीं होता और न ही उसमें जंग लगती है.”
छत्तीसगढ़ विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद के निदेशक एमएम अंबर्डे ने बताया कि जाने-अनजाने ही बस्तर के आदिवासियों के हाथ लौह अयस्क में छिपे नैनो पार्टिकल्स का भान हो गया था. 13वीं शताब्दी में अशोक के लोहे की लाट में भी इसी विज्ञान का उपयोग हुआ था. स्तंभ में जंग का नामोनिशान तक नहीं है. इसे देखना हो तो उनके हथियारों में देखा जा सकता है.