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घरेलू मजदूरों के लिए एक व्यापक कानून की जरूरत

देश में घरेलू मज़दूरों की स्थिति को समझने के लिये नोयडा की यह घटना आंख खोल देने वाली है.12 जुलाई को राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के नोएडा के एक हाउसिंग सोसाइटी में रहने वालों और वहां काम करने वालों के बीच शुरू हुए संघर्ष ने मुस्लिम विरोधी रंग ले लिया. इस मामले की शुरुआत तब हुई जब 27 साल की जोहरा बीबी महागुन मॉडर्न सोसाइटी से अपना दिन का काम पूरा करके शाम तक अपनी झुग्गी में वापस नहीं लौटीं. इसके बाद पुलिस और सरकार ने जो किया वह स्पष्ट तौर पर घरेलू मजदूरों के प्रति उनके भेदभाव को दिखाता है. जब रात में जोहरा के पति ने पुलिस को फोन किया तो 2000 फ्लैट वाले इस सोसाइटी की तलाशी की खानापूर्ति पुलिस ने कर ली.

अगली सुबह जब जोहरा की झुग्गी बस्ती के लोग सोसाइटी के गेट पर जमा हुए तो उनसे ठीक से बात नहीं की गई और हिंसा की स्थिति बन गई. अगर पुलिस ने शुरुआती तलाशी ठीक से ली होती तो यह स्थिति नहीं बनती. यह सवाल भी उठता है कि अगर किसी ताकतवर व्यक्ति के गायब होने की खबर आती तो भी क्या पुलिस इसी रवैये के साथ काम करती?

जोहरा के नियोक्ता, सोसाइटी में रहने वाले लोग और बिल्डर ने एफआईआर दर्ज कराई. इन तीनों पर कार्रवाई करते हुए पुलिस ने झुग्गी बस्ती से 13 लोगों को गिरफ्तार कर लिया. लेकिन जोहरा बीबी की उस शिकायत पर पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की जिसमें उन्हें आरोप लगाया है कि उनके नियोक्ता ने उन्हें पीटा. केंद्रीय संस्कृति मंत्री और स्थानीय सांसद महेश शर्मा ने पूरी न्याय व्यवस्था को धता बताते यह फैसला सुना दिया कि सोसाइटी में रहने वालों की कोई गलती नहीं है और वे झुग्गी बस्ती से गिरफ्तार हुए लोगों की जमानत नहीं होने देंगे.

महेश शर्मा ने सिर्फ सोसाइटी के लोगों से बात की झुग्गी बस्ती वालों से नहीं. यहां उन्होंने कहा कि इस देश में किसी को यह अधिकार नहीं है कि वह कानून अपने हाथ में ले. जबकि सच यह है कि तीन साल पहले जब से उनकी सरकार से बनी है तब से कानून को धता बताते हुए हिंदुत्ववादी भीड़ ने कई मुस्लिमों पर हमले किए हैं और कुछ की हत्या की है.

सोसाइटी के लोगों, पुलिस और सरकार ने जो रुख अपनाया उसमें स्पष्ट तौर पर एक वर्ग के ताकत का प्रदर्शन दिखता है. नोएडा प्रशासन ने झुग्गी बस्ती के लोगों द्वारा चलाई जा रही कई दुकानों को उखाड़ फेंका. प्रशासन ने कहा कि ये अवैध रूप से बने हुए थे. इन लोगों ने मुस्लिम विरोधी माहौल का फायदा उठाने की भी कोशिश की. इस बस्ती में तकरीबन 600 लोग ऐसे हैं जो पूर्वी बंगाल से आए हैं और मुस्लिम हैं. इन्हें बांगलादेश से अवैध तौर पर आया हुआ बताया गया. पुलिस ने भी छापेमारी में इन लोगों से भारतीय होने का प्रमाण मांगा. हालिया हिंसक घटना के पहले यह सवाल नहीं उठा था.

इस घटना ने साबित कर दिया है कि आज जरूरत इस बात की है कि संसद दो करोड़ घरेलू मजदूरों के लिए कोई व्यापक कानून बनाए. इनमें से अधिकांश असंगठित क्षेत्र में है और इनमें भी ज्यादातर महिलाएं हैं. ऐसे कानून से घरों में काम करने वाले इन लोगों को श्रमिक का दर्जा मिल पाएगा और समाज में ऐसे कामों के प्रति व्याप्त हीनभावना भी कम होगी. हालांकि, कई सरकारों ने नीतियां बनाई हैं लेकिन कोई कानून नहीं बन पाया है.

इन मजदूरों को कई तरह के शोषण का सामना करना पड़ता है. इन्हें कम पैसे मिलते हैं. कामकाजी परिस्थितियां ठीक नहीं होतीं. इसके अलावा भी कई तरह के खतरों का सामना इन्हें करना पड़ता है. बंद दरवाजों के भीतर इनके काम करने की प्रकृति से भी इनका जोखिम बढ़ जाता है.

आधे राज्यों ने घरेलू मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी कानून में शामिल किया है. हालांकि, इनमें उत्तर प्रदेश, दिल्ली, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र शामिल नहीं हैं. सच्चाई तो ये है कि न्यूनतम मजदूरी कानून के प्रावधान पर्याप्त नहीं हैं. इस कानून में ऐसा प्रावधान नहीं है कि जिससे काम करने वाले और काम कराने वाले का कहीं कोई पंजीकरण हो ताकि इस बात पर नजर रखी जा सके कि दोनों पक्ष अपनी जिम्मेदारियां ठीक से निभा रहे हैं. नए कानून में घरेलू मजदूरों की सुरक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं, उनके बच्चों की शिक्षा और अन्य जरूरी बातों का भी ध्यान रखा जाना चाहिए.

केरल और तमिलनाडु ने ऐसे मजदूरों के लिए कल्याण बोर्ड बनाए हैं. लेकिन इनके पास इतना पैसा नहीं होता कि ये प्रभावी रूप से काम कर सकें. एन कानून में उन एजेंसियों के नियमन का भी प्रावधान होना चाहिए जो इन मजदूरों को काम दिला रहे हैं. ऐसी कई एजेंसियों पर यह आरोप भी है कि वे बच्चों को जोखिम में डालने का काम कर रहे हैं.

हालिया संघर्ष से यह पता चलता है कि इन मजदूरों की कामकाजी परिस्थितियां को सुधारने में एक हद तक ही सही लेकिन कानून की अपनी भूमिका हो सकती है. कानून का ठीक से इस्तेमाल हो इसके लिए जरूरी है कि घरेलू मजदूर संगठित हों. क्योंकि उनके नियोक्ता आर्थिक और सामाजिक तौर पर उनसे मजबूत स्थिति में हैं. पिछले कुछ दशकों में बड़े शहरों में ऐसे मजदूर संगठित हुए हैं. लेकिन सिर्फ इससे भी बात नहीं बनेगी क्योंकि कई नियोक्ताओं की मानसिकता सामंती है और वे घरेलू मजदूरों को सम्मान की नजर से नहीं देखते. यह स्थिति बदलनी चाहिए.
1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक के संपादकीय का अनुवाद

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