इन स्त्रियों को जानते हैं आप?
कविता कृष्णापल्ल्वी | फेसबुक
मैं एक स्त्री हूँ, औरतों की घुटन और अंधकार भरी दुनिया और पुरुष-वर्चस्व के विविध सूक्ष्म और स्थूल रूपों से, बर्बर और “सुसंस्कृत” रूपों से बख़ूबी वाक़िफ हूँ, लेकिन मैंने, विशेषकर छोटे-छोटे शहरों में पली-बढ़ी, नितान्त अयोग्य लेकिन मुगालते में जीने वाली अतिमहत्वाकांक्षी, स्वार्थी और हृदयहीन, ढोंगी और नौटंकीबाज, मतलब निकालने के लिए अनैतिकता की किसी भी गहराई तक गिरने को तैयार बैठी, प्याज जैसी बहुपरती व्यक्तित्व वाली, आधुनिक चोले में फ़ूहड़-गँवारू स्त्री-आत्माएँ इतने बड़े पैमाने पर और विविध रूपों में देखी हैं कि क्या बताऊँ!
ऐसी बहुत सारी लड़कियों को मैंने राजनीति की दुनिया में घरेलू आर्थिक सुरक्षा और निजी आज़ादी और खुशहाल जीवन के सपने के लिए ‘एडहाक बेसिस’ पर इंक़लाबी बनते देखा है. वे धीरज से लंबी प्रतीक्षा करके और घात लगाकर, योग्य लेकिन कमज़ोर व्यक्तित्व वाले, उच्च मध्यवर्गीय बन सकने की क्षमता वाले युवाओं को अपना शिकार बनाती हैं और फिर तमाम नौटंकियाँ, ‘इमोशनल ब्लैकमेलिंग’ और जाल-फरेब करके उन्हें हीरामन तोता बनाकर घरेलू “सुखद गार्हस्थ्य” के सोने के पिंजरे में क़ैद कर लेती हैं.
ऐसी मायाविनियों को कमज़ोर व्यक्तित्व वाले गावदी टाइप पुरुष भलीभाँति समझ सकें, तबतक ज़िन्दगी की ट्रेन स्टेशन से छूटकर अगले कई स्टेशन पार कर चुकी होती है. ऐसे वे पढ़े-लिखे “विद्वान” पुरुष भी अक्सर इस ट्रैप में फँस जाते हैं जिनको लगता है कि उनकी सपनों की रानी का धरावतण कहीं इतना विलंबित न हो जाये कि तबतक उनकी धधकती जवानी ही राख हो जाये.
वे अकाव्यात्मक इन्द्रियभोगी सतही कम्युनिस्ट मर्द भी अपनी संकुचित विजन और भोगवादी सौन्दर्याभिरुचि की क़ीमत चुकाते ही हैं जो सोचते हैं कि करने को तो वे भगतसिंह जैसे महान काम कर सकते हैं, लेकिन होने-सोने के लिए मनोवांछित नहीं तो कम से कम काम चलाने लायक एक औरत या औरतनुमा कुछ-कुछ का समय रहते कुछ जुगाड़ तो हो ही जाना चाहिए, चाहे उसके दिल और दिमाग़ की जगह स्वार्थ और संकीर्णता से बजबजाता-गँधाता एक अंधकारमय खोखल, संपर्क में आने वाले व्यक्ति की समस्त सर्जनात्मक ऊर्जा को अपने भीतर खींचकर सोख लेने वाला एक भयावह ‘ब्लैकहोल’ ही क्यों न हो!
जहाँतक ऐसी स्त्रियों की बात है, लंबे समय से गुलाम और पराजितमना सामाजिक समूहों और वर्गों के भीतर से कई रूपों में कुछ विमानुषीकृत, मानवीय सारतत्व से रिक्त, स्वार्थी, चालाक, बेरहम, संकीर्णमना, हिसाबी-किताबी और कपटी व्यक्तित्व पैदा होते रहते हैं. ऐसी तमाम छद्म-आधुनिक, कस्बाई, मध्यवर्गीय लड़कियों को मैंने देखा और पाया कि वे अपनी पराजित अंतरात्मा की बंदी हैं.
उनकी ‘मिथ्या चेतना’ नारी मुक्ति की बात करती है (वहाँ भी वे कैरियरवादी तरक्की के नज़रिए से ही सोचती हैं), लेकिन उनका सरोकार निजी मुक्ति, सुरक्षित गार्हस्थ्य, ऐशो-आराम, मौज-मस्ती और जोखिम रहित आर्थिक खुशहाली होती है. दरअसल न तो पुरुष निर्भरता से ऐसी स्त्रियों को कोई वास्तविक नफ़रत होती है, न ही पुरातनपंथी पारिवारिक मर्दवादी जीवन और मूल्यों से उनका कोई निर्णायक विच्छेद हुआ रहता है.
राजनीतिक जीवन से निजी मुक्ति और मर्दरूपी “तरक्की की सीढ़ी” लेकर बुर्जुआ निजी जीवन में लौटकर जीने वाली ये स्त्रियाँ भी उम्र बढ़ने और खुशहाल जीवन की ओर कदम बढ़ाते जाने के साथ मर्दवादी और सोशल डेमोक्रेटिक यथास्थितिवादी वायरसों की ख़तरनाक़ वाहक बन जाती हैं, या सुखी गृहिणी का चर्बीला- ऊँघता जीवन बिताते हुए अपनी ‘सदगति’ को प्राप्त हो जाती हैं.
जिन पिरामिडों में “सफल” सामाजिक या गार्हस्थ्य जीवन की ये साम्राज्ञियाँ दफ़न होती हैं, उनमें इनके कपड़ों-लत्तों, गहना-गुरिया, तृप्त-अतृप्त इच्छाओं, पूरे-अथूरे सपनों, निजी स्वार्थी बीमार कामनाओं आदि-आदि की अंतहीन हवस के साथ, अपने पिंजरे सहित इनका प्यारा पालतू हीरामन तोता भी ज़िन्दा दफ़ना दिया जाता है.