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गोरखालैंड के मसले पर हिस्टीरिया की राजनीति

गोरखालैंड के मसले के समाधान के लिए पश्चिम बंगाल सरकार को राजनीतिक संवाद शुरू करना चाहिए.किसी भी लोकतंत्र के लिए यह जरूरी है कि लोग राजनीति में भाग लें. लेकिन हिस्टीरिया से लोकतंत्र खतरे में पड़ता है. लोकतांत्रिक राजनीति के लिए यह जरूरी है कि लोगों को जानकारी हो लेकिन हिस्टीरिया विचार शून्यता को दर्शाता है. अभी भारतीय राजनीति में गौ हत्या, लव जिहाद, काला धन और अलगाववाद जैसे ऐसे मुद्दे अहम हो गए हैं जिसमें लोक असंयमित ढंग से प्रतिक्रियावादी हो गए हैं.

अलगाववाद में खुले दिमाग से बातचीत का कोई मतलब नहीं समझ आता और राजनीतिक स्वायत्ता की मांग की जाती है. पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले के मौजूदा संकट को लोकतांत्रिक संवाद के लिए कम होती जगह के तौर पर देखा जा सकता है.

8 जून को गोरखा जनमुक्ति मोर्चा की अगुवाई में दार्जिलिंग भारी विरोध प्रदर्शन हुआ. इस दिन 45 साल में पहली बार पश्चिम बंगाल कैबिनेट की बैठक हुई. इस विरोध को हवा राज्य के मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के उस निर्णय से मिली जिसमें उन्होंने बंगाली को राज्य के सभी स्कूलों में अनिवार्य कर दिया. हालांकि, दार्जिलिंग में कैबिनेट बैठक के पहले ही बनर्जी ने स्पष्ट कर दिया था कि यह निर्णय नेपाली बोलने वाले पहाड़ी क्षेत्रों में लागू नहीं होगा.

लेकिन तब तक भाषा के सवाल ने एक बार फिर से अलग गोरखालैंड की मांग को जिंदा कर दिया. सरकार ने अपनी ताकत के साथ इसका जवाब देने की कोशिश की. विरोध प्रदर्शनों को कुचलने के लिए सरकार ने पुलिस, अर्द्धसैनिक बलों और यहां तक की सेना तक की तैनाती करा दी.

तृणमूल कांग्रेस के नेतृत्व वाली राज्य सरकार ने कहा कि पश्चिम बंगाल की भौगोलिक अखंडता के लिए बल प्रयोग जरूरी है. इससे हिस्टीरिया का पता चलता है. बंगाल के उतावले लोगों ने दार्जिलिंग की तुलना कश्मीर से शुरू कर दी. दोनों को अलगाववाद के उदाहरण के तौर पर देखा जाने लगा. इस बात को नजरंदाज कर दिया गया कि कश्मीर में अलग राष्ट्र की मांग हो रही है और यहां भारत गणराज्य के अंदर ही एक अलग राज्य की मांग हो रही है.

कोलकाता स्थिति मीडिया घरानों ने भी केंद्र सरकार पर यह कहकर निशाना साधना शुरू किया कि कश्मीर समस्या से निपटने के लिए तो वह अटल दिखती है लेकिन वही चुस्ती यहां नहीं दिखा रही है. जाहिर है कि ऐसे में मूल मुद्दे का ही नुकसान होना था. इस तरह के माहौल में तात्कालिक तौर पर तो स्थितियां काबू में आ जाती हैं लेकिन समस्या का समाधान नहीं हो पाता.

जाहिर है कि राज्य सरकार को मांग को मानने से पहले इसका मूल्यांकन करना चाहिए. जिस आधार पर नए राज्य की मांग की जा रही है, उस पर सवाल उठाने में कोई हर्ज नहीं है. इतिहासकार लियोनल कैप्लन कहते हैं कि गोरखा शब्द की उत्पति ऐसी हुई कि अंग्रेजों ने लड़ने के लिए इस नाम से सेना के अंदर एक समूह बनाया. इसमें कई भाषा और नस्ल के लोगों को शामिल किया गया. लेकिन क्या सिर्फ आधार पर उनकी मांग को गलत ठहराया जा सकता है? अंग्रेजों के जमाने की कई चीजें कई वर्गों के पहचान से जुड़ी हुई हैं. बंगाली भद्रलोक की पहचान भी ब्रिटेन के मध्य वर्ग से जुड़ी हुई है. अगर वह सही है तो फिर गोरखा के पहचान में क्या दिक्कत है.

गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के बारे में सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि यह किसकी नुमाइंदगी करती है और किसकी नहीं करती. उत्तरी बंगाल में गोरखा अकेले नस्ली समूह नहीं हैं. यह सवाल उठाया जाना चाहिए कि दूसरे अल्पसंख्यकों की कितनी नुमाइंदगी मोर्चा करता है? गोरखा लोगों की बहुतायत वाले दार्जिलिंग के अलावा मोर्चा सिलीगुड़ी जैसे मैदानी इलाकों को भी अलग गोरखालैंड का हिस्सा मानता है. जबकि इन जगहांे पर गोरखा अल्पसंख्यक हैं. मोर्चा से यह भी पूछा जाना चाहिए कि वह प्रस्तावित राज्य में गैर-गोरखा को कैसे रखेगी. लेकिन यह सब तभी होगा जब खुले दिमाग से बातचीत की जाए न कि बलप्रयोग के जरिए दमन किया जाए.

राज्य सरकार द्वारा बल प्रयोग की सबसे बड़ी वजह यह दिख रही है कि बंगाल की अखंडता के नाम पर तृणमूल कांग्रेस के पक्ष में पूरे राज्य में गोलबंदी हो जाएगी. गोरखालैंड आंदोलन बंगाल के 1905 और 1947 के राज्य बंटवारे की तरह यहां के लोगों को डराता है. तृणमूल कांग्रेस खुद को बंगाली संस्कृति का रक्षक के तौर पर पेश करना चाहती है और यह दिखाना चाहती है कि वह बंगाल की अखंडता को लेकर पूरी तरह प्रतिबद्ध है. तृणमूल को लगता है कि ऐसा करके वह पश्चिम बंगाल में भारतीय जनता पार्टी के बढ़ते प्रभाव को रोक पाएगी.

राजनीतिक अशांति से उत्तरी बंगाल में जनजीवन थम गया है. इसके बावजूद संभव है कि तृणमूल को इसका चुनावी लाभ मिल जाए. वाम मोर्चा की पहले की सरकारों ने भी गोरखलैंड के मसले पर ऐसा ही रुख अपनाया था. भाजपा भी यहां अनिर्णय की स्थिति में दिख रही है. पहले उसने अलग गोरखालैंड की मांग के प्रति संवेदनशीलता दिखाई थी. लेकिन बंगाल में उसकी बढ़ती महत्वकांक्षाओं ने उसके लिए मुश्किल कर दिया है. भाजपा की दार्जिलिंग इकाई ने अलग गोरखालैंड की मांग का समर्थन किया, पश्चिम बंगाल इकाई ने इसका विरोध किया और केंद्र सरकार ने आंदोलन को कुचलने के लिए सैन्य सहायता दी. इस मामले को और जटिल बनाते हुए सिक्किम के मुख्यमंत्री पवन कुमार चामलिंग ने अलग गोरखालैंड की मांग का समर्थन कर दिया.

दोनों पक्षों द्वारा हिंसा का इस्तेमाल बातचीत से बचने के लिए किया जाता है. मामले को शांत करने की जिम्मेदारी राज्य सरकार की है. ममता बनर्जी दावा करती हैं कि उन्हें लोकतांत्रिक ढंग से पूरे पश्चिम बंगाल का मुख्यमंत्री चुना गया है. उन्हें राजनीतिक संवाद शुरू करना चाहिए न कि हिस्टीरिया की राजनीति को बढ़ावा देना चाहिए.

1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक के संपादकीय का अनुवाद

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