कैसे बदलेगा समाज
चिन्मय मिश्र
अपने हॉकर को कल से चेंज करो
पांच सौ गांव बह गये इस साल.
-गुलजार
पिछले दिनों भारत के महालेखापाल एवं नियंत्रक (सीएजी) द्वारा कोल ब्लाक के आवंटन में बरती गयी अनियमितताओं से सरकारी खजाने को हुई लाखों करोड़ रुपये की हानि के बाद उपजे झंझावत ने भारतीय राजनीति को एक बार पुन: मुखर होने का मौका दिया. इसके बाद पूरी राजनीति डॉ मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देने और न देने के इर्द-गिर्द सिमट कर रह गयी.
कांग्रेस के इस मामले में बचाव के अपने तर्क हैं, तो भारतीय जनता पार्टी की एक्स-रे आंखें डॉ मनमोहन सिंह को पार करती उनकी कुर्सी पर लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज या अरुण जेटली को देख रही हैं, लेकिन वह यह भूल रही है कि मोहन भागवत के पास भी ऐसी ही आंखें मौजूद हैं, जो वहां किसी नितिन गडकरी जैसी प्रतिभा को देख रही होंगी.
बहरहाल मुद्दा किसी ‘अ’ की जगह ‘ब’ के बैठ जाने से हल नहीं होगा. कोयला उत्पादन करनेवाले मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में तत्कालीन आवंटन के दौरान भाजपा नीत सरकारें ही थीं और उन्होंने इस प्रक्रिया पर गंभीर प्रश्न नहीं किये. ऐसे समाचार प्रकाशित हुए हैं कि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने रिलायंस पॉवर लिमिटेड के सासन संयंत्र को कोयले की आपूर्ति को लेकर प्रधानमंत्री को एक सिफारिशी पत्र भी लिखा था. इस संबंध में जब उनसे प्रश्न पूछे गये तो उन्होंने पत्रकारों से प्रतिप्रश्न किया कि क्या आप सोच सकते हैं कि आपका मुख्यमंत्री ऐसा कर सकता है?
* राजनीतिक तंत्र की वैचारिक शून्यता
भारतीय राजनीति में आया यह नया उबाल दरअसल सारे राजनीतिक तंत्र की वैचारिक शून्यता को ही प्रकट कर रहा है. दो दलीय राजनीति के घातक परिणाम बहुत क्रूर तरीके से हमारे सामने आने शुरू हो गये हैं. भ्रष्टाचार एवं घोटाले अब दिनों या सप्ताह तक सीमित नहीं रह गये हैं, बल्कि ये वर्षों तक सतत् जारी रहते हैं और जब प्रकाश में आते भी हैं तो नया आरोपी पुराने आरोपी पर दोषारोपण कर इस भ्रष्टाचार की निरंतरता को बनाये रखता है.
2-जी स्पेक्ट्रम में हम यह देख ही चुके हैं और अंतत सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के बाद ही इस प्रक्रिया पर लगाम लगाने का प्रयास किया. शुरुआती दौर में इस घोटाले के खंडन की तुलना वर्तमान कोयला ब्लाक आवंटन या कोल-गेट घोटाले से करेंगे तो दोनों के बीच की समानताएं साफ नजर आती दिखायी देती हैं. हर राजनीतिक दल सच्चाई सामने लाने की बात कर रहा है. क्या यह इतना आसान है?
दरअसल राजनीति और अर्थनीति में सत्य की अपनी-अपनी गढ़ी हुई परिभाषाओं को स्थापित करने की होड़ मची रहती है, जो परिस्थितियों के हिसाब से बदलती भी रहती है. उदाहरण के लिए कांग्रेस आज अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए ‘खुदरा व्यापार में सौ प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ)’ को आराध्य मान रही है. वहीं दूसरी ओर भाजपा इसके विरोध में है. लेकिन जिस दौरान भाजपा सत्ता में थी, उस दौरान वह भी इसी आराध्य की ‘आराधना’ कर रही थी. यानी सत्ता में पहुंचते ही सबके लक्ष्य समान हो जाते हैं? वर्तमान पूरी जद्दोजहद की जद में सिर्फ सत्ता तक पहुंचने की जिद ही काम कर रही है. इससे आगे के फामरूले का इन दोनों ही दलों को ज्ञान नहीं है.
* सिर्फ वाम पक्ष के पास अपना दर्शन
दरअसल इस समय की सबसे बड़ी विभीषिका वैचारिक शून्यता है. भारतीय संस्कृति व परंपरा की दुहाई देनेवाले हमारे राजनीतिक दल ये भूल जाते हैं कि इसके वास्तविक मायने क्या हैं. भारत में अनादिकाल से यह कहा जाता रहा है कि ‘सत्य सोच-विचार से उपलब्ध नहीं होता, दर्शन से उपलब्ध होता है.’ लेकिन हमारे ये दोनों प्रमुख एवं तकरीबन सभी आंचलिक दल राजनीतिक दर्शन को समझ पाने की प्रक्रिया में पड़ना ही नहीं चाहते. वे अपने-अपने सत्य में ही मस्त हैं.
इस दौरान भारतीय वाम पक्ष ही ऐसा एक मात्र राजनीतिक वर्ग है, जिसके पास अपना एक राजनीतिक दर्शन मौजूद है. उससे सहमति और असहमति एक अलग विमर्श का विषय है, लेकिन उसकी समस्या आपसी अंतर्विरोध है. चार प्रमुख वामपंथी दल कमोबेश एक-से राजनीतिक सोच के बावजूद पूरी तरह से एक साथ मिल कर काम कर पाने में सफल नहीं हो पा रहे हैं.
* यूपीए-1 में थी वाम की सकारात्मक छाप
यूपीए-प्रथम के दौरान सामने आये अनेक जनहितकारी फैसलों पर इस वर्ग की छाप साफ दिखायी दी थी. सन् 2008 की आर्थिक मंदी से लड़ पाने की भारतीय ताकत इसकी पूंजीवादी नीतियों से नहीं, बल्कि नियमन (रेगुलेशन) से बंधी सार्वजनिक वित्त व्यवस्था जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक एवं बीमा कंपनियां शामिल थीं, से आयी थी. और इस सबसे ऊपर भारतीय कृषि और किसानों ने इस मजबूत आर्थिक स्थिति को बनाये रखने में अभूतपूर्व योगदान दिया था. वरना तो भारत का योजना आयोग, प्रधानमंत्री और तत्कालीन वित्त मंत्री जिस राह पर देश को ले जाना चाहते थे उसकी बानगी हम इस बार के वैश्विक आर्थिक संकट में देख रहे हैं.
शहरवालों की मुहब्बत का मैं कायल हूं मगर,
मैंने जिस हाथ को चूमा वो ही खंजर निकला.
यूपीए-एक से यूपीए-दो का सफर बड़ी आसानी से कट गया, क्योंकि देश की आम जनता को लगने लगा था कि भारतीय राजनीति में लंबे समय पश्चात किसी प्रकार की वैचारिकता का समावेश हुआ है. सूचना का अधिकार कानून, मनरेगा, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा मिशन (एनआरएचएम) जैसे अनेक कानूनों / कार्यक्रमों के माध्यम से शुरुआत तो हुई, लेकिन क्रियान्वयन में वैचारिक सोच आड़े आने लगा और पहले कार्यकाल के समाप्त होते न होते यूपीए ने निश्चय कर लिया कि उसे अब एक ‘व्यावहारिक’ पक्ष अपनाना है, जिससे कि उसका हित सधता रहे.
इस दौरान वामदलों ने अपनी गलतियों और अति-आत्मविश्वास के चलते वही गलतियां दोहरायीं, जो कि अन्य राजनीतिक दल दोहराते रहे हैं. उसके परिणाम भी उन्होंने अच्छे से भुगत लिये हैं. सवाल यही है कि क्या वे (वाम दल) इस वैचारिक खोखलेपन को भरने के लिये महज एक राजनीतिक दल नहीं, बल्कि एक वर्ग की तरह सामने आने का प्रयास करेंगे? वर्तमान में इसकी संभावनाएं बहुत कम नजर आ रही हैं.
* जागरूक तबके के स्वर गूंज नहीं पा रहे
प्रसिद्ध अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने करीब ढाई वर्ष पूर्व इंदौर में सर्वोदय प्रेस सर्विस द्वारा आयोजित एक व्याख्यान में इस कोल-गेट सहित भारत की खनिज एवं जैविक विविधता की लूट की बात सामने रखी थी. उस दौरान उन्होंने इसी तरह के आंकड़ों को संक्षेप में प्रस्तुत भी किया था. दिमाग को चकरा देनेवाले इन आंकड़ों पर तब सहसा विश्वास नहीं हो पा रहा था, लेकिन अब जब ये हमारे सामने आ रहे हैं, तो लगने लगा है कि भारत में एक अत्यंत मेधावी एवं जागरूक वर्ग मौजूद है, जो कि वास्तविकता को समझाने के लिए ‘कैग’ की रिपोर्ट का इंतजार नहीं करता. लेकिन इनकी आवाज को ‘गूंज’ में बदल देनेवाला समाज शायद अभी शैशवावस्था में हैं.
* एक परिपक्व दर्शन के बिना मंजिल संभव नहीं
2-जी स्पेक्ट्रम, कोल-गेट घोटाला, दिल्ली के नये अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे को कमोबेश मुफ्त में जमीन उपलब्ध करवाना और बाद में समझौता पत्र में परिवर्तन जैसी अनेकानेक अनियमितताओं को लेकर संसद को रोकने या संसद में इस पर चर्चा कराने जैसे मंतव्यों के मध्य कुछ और भी है, जिसको ध्यान में रखना आवश्यक है. बिना एक परिपक्व दर्शन के यह व्यवस्था एक रिले दौड़ की तरह बनती जा रही है, जिसमें एक धावक (दल) दूसरे धावक को बैटन देकर अपने हिस्से की दूरी दौड़ कर दौड़ से बाहर हो जाता है.
भारतीय राजनीति में भी कुछ-कुछ ऐसा होता दिखायी तो पड़ता है, लेकिन मूलभूत अंतर यह है कि यहां धावक अपने-अपने हिस्से की दौड़ अपने स्वार्थ के लिए ही दौड़ रहे हैं और यह एक निरंतर चलनेवाली प्रक्रिया है, जिसमें जीतने की इच्छा किसी को भी नहीं है, क्योंकि सफर तो मंजिल से ज्यादा लुभावना है.
वैसे कभी निर्णय की नौबत आ भी गयी, तो सभी धावक एक साथ मंच पर अपने पदक दिखाते मिल जायेंगे. जैसा कि हम देख चुके हैं कि अर्थव्यवस्था पर कांग्रेस एवं भाजपा काफी कुछ एक-सा मत रखते हैं. कोल-गेट में भी केंद्र और राज्य की सहभागिता साफ नजर आयी है. सवाल यह है कि भारतीय मानस अब भी सतर्क होगा या नहीं? गुलजार के ही शब्दों में कहें तो,
आदतन तुमने किये वादे,
आदतन हमने ऐतबार किया.
क्या हम इस परंपरा को तोड़ेंगे?